Last Updated:October 17, 2025, 11:28 IST
Honesty in Politics: बिहार में सियासत का एक दौर वो भी था जब श्रीकृष्ण सिंह जैसे मुख्यमंत्री थे. उन्होंने राजनीति में वो मानदंड स्थापित किए जो आज ढूंढे नहीं मिलते हैं. जानिए बिहार की राजनीति के उस सुनहरे दौर की कहानी जो आज के राजनेताओं के लिए बड़ी सीख है.

ShriKrishna Singh: बिहार ने देश को कई ऐसे राजनेता दिए हैं जिन्होंने देश की राजनीति में अपनी अलग पहचान बनायी. ऐसे ही एक राजनेता थे बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री डॉ. श्रीकृष्ण सिंह (सिन्हा) जिनसे आज के नेताओं को सीखना चाहिए. इनसे सीखना चाहिए कि जब जनता ने आपको सेवा करने के लिए चुना है तो उन्हें उसके विश्वास पर खरा उतरने के लिए क्या कुछ करना चाहिए. डॉ. श्रीकृष्ण सिंह अपने विधानसभा चुनाव क्षेत्र में कभी अपने लिए वोट मांगने नहीं जाते थे. फिर भी वह कभी चुनाव नहीं हारे. वह आम दिनों में अपने चुनाव क्षेत्र में जरूर जाते थे. लोगों से उनका संपर्क और संबंध जीवंत और अनौपचारिक था. उनका मानना था कि यदि मैंने जनता के लिए काम किया है तो वो मुझे वोट देने लायक समझेगी.
श्रीकृष्ण सिंह जिनको लोग श्री बाबू के नाम से जानते थे निजी जिंदगी में ईमानदारी और शुचिता की मिसाल थे. श्रीकृष्ण सिंह का देहांत 31 जनवरी 1961 को हुआ था. उनके निधन के ठीक बारहवें दिन, उनकी निजी तिजोरी को बिहार के तत्कालीन राज्यपाल ज़ाकिर हुसैन, मुख्यमंत्री दीपनारायण सिंह, जयप्रकाश नारायण और श्रीबाबू के मुख्य सचिव बिमलकांत मजूमदार की उपस्थिति में खोला गया. तिजोरी के भीतर चार अलग-अलग लिफाफों में कुल 24,500 रुपये की राशि पायी गयी. इस धन का वितरण उन्होंने पहले ही निर्धारित कर दिया था.
कोई निजी संपत्ति नहीं बनाई
एक लिफाफे में 20,000 रुपये प्रदेश कांग्रेस कमेटी के नाम थे. दूसरे लिफाफे में 3,000 रुपये उनके मित्र शाह उजेर मुनीमी के परिवार को दिए जाने के लिए रखे गए थे. तीसरे लिफाफे में 1,000 रुपये की राशि बिहार सरकार में मंत्री रहे महेश प्रसाद सिन्हा की छोटी बेटी के विवाह के लिए भेंट स्वरूप थी. चौथे लिफाफे में 500 रुपये उन्होंने अपने निजी नौकर के लिए छोड़े थे. रिकॉर्ड बताते हैं कि उन्होंने अपने पूरे जीवनकाल में कोई निजी संपत्ति या धन इकट्ठा नहीं किया था. श्री बाबू की जिंदगी से जुड़े कई ऐसे पहलू थे, जो आज की बिहार की राजनीति से तुलना करने पर हैरान करते हैं.
परिवारवाद के विरोधी
बिहार की राजनीति में इन दिनों परिवारवाद चरम पर है. हर बड़ा नेता अपने परिवार को राजनीति में आगे बढ़ा रहा है. लेकिन डॉ. श्रीकृष्ण सिंह बहुत सिद्धांतवादी थे. उन्होंने अपने बेटे शिवशंकर सिंह को विधानसभा का टिकट लेने नहीं दिया था. पुत्र के चुनावी मैदान में उतरने पर खुद इलेक्शन नहीं लड़ने की बात तक कह दी थी. वाकया कुछ इस तरह है. चंपारण के कुछ कांग्रेसी 1957 में श्री बाबू से मिले और कहा कि शिवशंकर सिंह को विधान सभा चुनाव लड़ने की अनुमति दीजिए. श्री बाबू ने कहा कि मेरी अनुमति है, लेकिन तब मैं चुनाव नहीं लड़ूंगा क्योंकि एक परिवार से एक ही व्यक्ति को चुनाव लड़ना चाहिए. श्रीकृष्ण सिंह के निधन के बाद ही उनके बेटे शिवशंकर विधायक बन सके थे.
गांधी से मिलने के बाद बदला जीवन
श्रीकृष्ण सिंह का जन्म 21 अक्टूबर, 1887 को बिहार के मुंगेर जिले में हुआ था. बिहार के लोग उन्हें स्नेहपूर्वक ‘श्री बाबू’ और ‘बिहार केसरी’ उपनामों से जानते थे. उनका नाम कई स्थानों पर श्रीकृष्ण सिंह के रूप में भी दर्ज मिलता है. उन्होंने अपनी स्कूली शिक्षा मुंगेर से पूरी की और बाद में पटना कॉलेज से कानून की डिग्री हासिल की. साल 1915 में वह पटना से वापस मुंगेर आकर वकालत के पेशे से जुड़ गए. उनकी जीवन दिशा तब बदल गई जब उनकी मुलाकात 1916 में बनारस के सेंट्रल हिंदू कॉलेज में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी से हुई.
स्वतंत्रता संग्राम में योगदान
महात्मा गांधी से भेंट के उपरांत श्रीकृष्ण सिंह तुरंत देश की स्वतंत्रता की लड़ाई में सक्रिय हो गए. उन्हें पहली बार 1922 में जेल जाना पड़ा. बाद में अंग्रेजों ने नमक सत्याग्रह के दौरान भी उन्हें गिरफ्तार कर लिया था. उस समय श्रीकृष्ण सिंह कांग्रेस सेवा दल के सदस्य थे, जिसे ब्रिटिश सरकार ने अवैध संगठन घोषित कर दिया था. श्रीकृष्ण सिंह बिहार के पहले मुख्यमंत्री थे, उन्होंने 2 अगस्त 1947 को पदभार ग्रहण किया था. वह 31 जनवरी 1961 में अपनी मृत्यु तक लगातार मुख्यमंत्री पद पर रहे. उन्होंने 14 साल और 314 दिन तक लगातार मुख्यमंत्री का पद संभाला था. मुख्यमंत्री के तौर पर उन्होंने कई महत्वपूर्ण कार्य किए. वह जमींदारी प्रथा को समाप्त करने वाले देश के पहले मुख्यमंत्री थे. उन्होंने कोसी, अघौर और सकरी नदी पर नदी-घाटी परियोजनाओं का काम किया और बिहार में कई भारी उद्योगों की नींव रखी.
जातिवाद से दूरी
श्रीकृष्ण सिंह 1952 में मुंगेर जिले के खड़गपुर क्षेत्र से विधानसभा सदस्य चुने गए थे। मुख्यमंत्री बनने के बाद भी, जब भी वह अपने गांव जाते थे तो अपने सुरक्षाकर्मियों को गांव की सीमा पर ही रोक देते थे. उनका दृढ़ विश्वास था कि यह उनका अपना गांव है, और उन्हें यहां किसी भी प्रकार का खतरा नहीं है. जातिवाद के प्रति उनके परहेज को उनके सचिवालय की संरचना से समझा जा सकता है. उनके मुख्यमंत्रित्व काल में एल.पी. सिंह, जो राजपूत जाति से थे, राज्य सरकार के मुख्य सचिव थे. यहां तक कि उनके निजी अंगरक्षक (बॉडीगार्ड) भी राजपूत ही थे. उनके निजी सचिव रामचंद्र सिन्हा कायस्थ थे. आश्चर्यजनक रूप से, मुख्यमंत्री सचिवालय में कोई भी अधिकारी या सहायक उनकी अपनी भूमिहार जाति से नहीं था.
परिवार के प्रति सख्त रवैया
श्री बाबू के परिवार के एक अत्यंत नजदीकी सदस्य ने जब पटना में अपना घर बनवाया, तो मुख्यमंत्री उनके गृह-प्रवेश भोज में शामिल नहीं हुए. श्री बाबू का मत था कि उन्हें इस बात पर संदेह है कि उस सदस्य ने वह मकान अपनी वास्तविक और निजी आय से ही बनाया होगा. एक रिपोर्ट के मुताबिक वरिष्ठ पत्रकार सुरेंद्र किशोर बताते हैं कि गलतियां करना मनुष्य का स्वाभाविक गुण है और संभव है कि श्री बाबू ने भी अपने जीवनकाल में कुछ त्रुटियां की होंगी. हालांकि, उनमें जितनी खूबियां थीं उनमें से कोई दो गुण भी आज के किसी नेता में मौजूद हों तो हमें उसकी सराहना करनी चाहिए. आज के समय में ऐसे इक्के-दुक्के नेता मौजूद भी हैं, लेकिन वे नेता आज की मौजूदा राजनीति में सही तरह से समायोजित नहीं हो पाते हैं.
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First Published :
October 17, 2025, 11:24 IST