Karnataka Hate Speech Bill: कर्नाटक भारत का पहला राज्य है जिसने विशेष रूप से नफरत फैलाने वाली भाषा पर अंकुश लगाने के लिए एक बिल (विधेयक) पेश किया है. कर्नाटक सरकार जल्द ही आगामी विधानसभा सत्र में ‘हेट स्पीच और हेट क्राइम (रोकथाम) बिल, 2025’ पेश करने जा रही है. इस प्रस्तावित कानून में नफरत फैलाने वालों के लिए दो साल से लेकर दस साल तक की जेल की सजा का प्रावधान है. साथ ही यह कानून संगठनों के लिए सामूहिक दायित्व (Collective Responsibility) की अवधारणा भी पेश करता है. कर्नाटक के कानून और संसदीय मामलों के मंत्री एचके पाटिल ने इस कानून की जरूरत पर जोर देते हुए कहा कि कोई भी मौजूदा कानून नफरत भरे भाषण की समस्या से स्पष्ट रूप से नहीं निपटता. यह टिप्पणी भारत की पुरानी कानूनी कमी को उजागर करती है. हालांकि ‘नफरत भरे भाषण’ (Hate Speech) शब्द का इस्तेमाल लोग अक्सर करते हैं, लेकिन भारत के आपराधिक कानूनों में इसे अभी तक औपचारिक रूप से परिभाषित नहीं किया गया है.
क्या प्रस्ताव हैं कर्नाटक के बिल में
कर्नाटक का प्रस्तावित बिल विधि आयोग की सिफारिशों और 2022 के निजी सदस्य विधेयक में दी गई कुछ अवधारणाओं को प्रतिबिंबित करता प्रतीत होता है. कर्नाटक मंत्रिमंडल के अनुसार नए विधेयक में घृणास्पद भाषण को धर्म, नस्ल, जाति, लिंग, सेक्सुअल ओरिएंटेशन, जन्मस्थान या विकलांगता के आधार पर किसी व्यक्ति या समूह के विरुद्ध चोट पहुंचाने या वैमनस्य पैदा करने वाली अभिव्यक्ति के रूप में परिभाषित किया गया है. ‘सेक्सुअल ओरिएंटेशन’ और ‘जेंडर’ को शामिल करने से पारंपरिक रूप से आईपीसी और अब बीएनएस के तहत संरक्षित श्रेणियों के अलावा संरक्षित श्रेणियों का विस्तार होता है. बिल की एक विशिष्ट विशेषता सामूहिक दायित्व है. यदि हेट स्पीच किसी संगठन से जुड़ा है, तो उस संगठन में जिम्मेदार पदों पर बैठे व्यक्तियों को दोषी माना जा सकता है. यह विधेयक राज्य को इंटरनेट पर घृणास्पद सामग्री को ब्लॉक करने या हटाने का अधिकार भी देता है.
हेट स्पीच के लिए वर्तमान कानूनी ढांचा
किसी खास कानून के अभाव में भारतीय लॉ एनफोर्समेंट एजेंसियां नफरत फैलाने वाले भाषणों से जुड़े मामलों से निपटने के लिए भारतीय न्याय संहिता के कई प्रावधानों का इस्तेमाल करती हैं. ये धाराएं मुख्य रूप से सार्वजनिक व्यवस्था बनाए रखने के लिए हैं, न कि नफरत फैलाने वाले भाषणों को एक अलग श्रेणी में दंडित करने के लिए. सबसे ज्यादा इस्तेमाल किया जाने वाला प्रावधान धारा 196 है, जो भारतीय दंड संहिता की धारा 153A का उत्तराधिकारी है. यह ‘धर्म, नस्ल, जन्म स्थान, निवास, भाषा आदि के आधार पर विभिन्न समूहों के बीच शत्रुता को बढ़ावा देने और सद्भावना बनाए रखने के लिए हानिकारक कार्य करने’ के लिए दंड का प्रावधान करता है. हालांकि, आंकड़े बताते हैं कि गिरफ्तारियां तो आम हैं, लेकिन दोषसिद्धि दुर्लभ है. पिछली रिपोर्टों में बताए गए राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार 2020 में धारा 153A के तहत दोषसिद्धि दर मात्र 20.2 फीसदी थी.
क्या कहती है बीएनएस की धारा 299
हेट स्पीच से निपटने के लिए अक्सर इस्तेमाल किया जाने वाला दूसरा बीएनएस प्रावधान धारा 299 है, जो ‘किसी भी वर्ग के धर्म या धार्मिक विश्वासों का अपमान करके उसकी धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाने के इरादे से जानबूझकर और दुर्भावनापूर्ण कार्यों’ को दंडित करता है. यह आईपीसी की धारा 295ए के समान है. इसके अलावा बीएनएस की धारा 353 ऐसे बयानों या झूठी सूचना को दंडित करती है जो किसी व्यक्ति को राज्य या समुदाय के विरुद्ध अपराध करने या सार्वजनिक व्यवस्था को बिगाड़ने के लिए प्रेरित या उकसा सकती है. इनमें से प्रत्येक अपराध काग्नीजेबल या संज्ञेय है. यानी पुलिस बिना वारंट के गिरफ्तारी कर सकती है और इसके लिए तीन साल तक की सजा का प्रावधान है. सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम की धारा 66ए का प्रयोग अक्सर ऑनलाइन हेट स्पीच के लिए किया जाता था, जब तक कि 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने इसे असंवैधानिक रूप से अस्पष्ट होने के कारण रद्द नहीं कर दिया.
सुप्रीम कोर्ट का दखल
पिछले कुछ सालों में सुप्रीम कोर्ट ने इस मुद्दे पर सक्रिय रुख अपनाया है, हालांकि इसमें बदलाव आया है. अक्टूबर 2022 में न्यायमूर्ति केएम जोसेफ और न्यायमूर्ति हृषिकेश रॉय की पीठ ने कहा कि देश में ‘घृणा का माहौल व्याप्त है.’ उन्होंने दिल्ली , उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड के पुलिस प्रमुखों को निर्देश दिया कि वे औपचारिक शिकायतों का इंतजार किए बिना अभद्र भाषा के मामलों में स्वतः संज्ञान लेकर कार्रवाई करें. अदालत ने चेतावनी दी कि किसी भी तरह की हिचकिचाहट को अवमानना माना जाएगा. बाद में अप्रैल 2023 में इस निर्देश को सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों पर भी लागू कर दिया गया. हालांकि, इसका व्यावहारिक क्रियान्वयन चुनौतीपूर्ण साबित हुआ है. अगस्त 2023 में न्यायमूर्ति संजीव खन्ना और न्यायमूर्ति एसवीएन भट्टी की पीठ ने एक मामले की सुनवाई के दौरान माना कि अभद्र भाषा को परिभाषित करना जटिल है, लेकिन इससे निपटने में असली समस्या कानून और न्यायिक निर्णयों के क्रियान्वयन में निहित है.
इस साल 25 नवंबर को जस्टिस विक्रम नाथ और संदीप मेहता की एक अन्य पीठ ने फैसला सुनाया कि शीर्ष अदालत ‘नफरत फैलाने वाले भाषण की हर घटना की निगरानी करने के लिए इच्छुक नहीं है.’ पीठ ने शीर्ष अदालत के 2018 के तहसीन पूनावाला फैसले में दिए गए दिशानिर्देशों का हवाला देते हुए कहा कि पुलिस स्टेशन और हाई कोर्ट ऐसे मामलों से निपटने में सक्षम हैं, जिसमें भीड़ हिंसा और लिंचिंग को रोकने के लिए नोडल अधिकारियों की नियुक्ति अनिवार्य थी.
हेट स्पीच को परिभाषित करने की कोशिश
मार्च 2017 में अपनी 267वीं रिपोर्ट में भारतीय विधि आयोग ने घृणा भड़काने और हिंसा भड़काने को विशेष रूप से आपराधिक बनाने के लिए आईपीसी में नई धाराएं – 153सी और 505ए – जोड़ने की सिफारिश की थी. 2022 में भारत राष्ट्र समिति के सांसद के.आर. सुरेश रेड्डी ने राज्यसभा में ‘घृणास्पद भाषण और घृणा अपराध (रोकथाम) विधेयक’ नामक एक निजी विधेयक पेश किया. इस विधेयक में हेट स्पीच को ऐसी किसी भी अभिव्यक्ति के रूप में परिभाषित करने का प्रयास किया गया जो ‘किसी व्यक्ति या समूह के विरुद्ध भेदभाव, घृणा, शत्रुता या हिंसा को उकसाती, उचित ठहराती, बढ़ावा देती या फैलाती है.’ इसमें ‘हेट क्राइम’को पीड़ित की वास्तविक या आरोपित स्थिति, जिसमें धर्म, जाति, लिंग पहचान या सेक्सुअल ओरिएंटेशनशामिल है, के विरुद्ध पूर्वाग्रह से प्रेरित अपराध के रूप में परिभाषित करने का भी प्रस्ताव किया गया है. इसमें इन अधिक विशिष्ट प्रावधानों के पक्ष में भारतीय दंड संहिता की धारा 153ए और 295ए को हटाने का प्रस्ताव किया गया था, लेकिन इसे पारित नहीं किया गया.

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