Last Updated:July 05, 2025, 04:31 IST
Ram Vilas Paswan News: रामविलास पासवान हवा का रुख भांपकर अपनी सियासी नैया की पाल को उसी दिशा में मोड़ने का हुनर रखते थे. इसी कौशल के चलते वे विभिन्न राजनीतिक पृष्ठभूमियों वाले 6 प्रधानमंत्रियों की कैबिनेट में मं...और पढ़ें

रामविलास पासवान 6 बार केंद्र में कैबिनेट मिनिस्टर रहे. (फाइल फोटो)
हाइलाइट्स
2002 में रामविलास पासवान ने अटल बिहारी वाजपेयी सरकार से इस्तीफा दे दिया था.दो साल बाद ही रामविलास पासवान 2004 में मनमोहन सिंह की सरकार में मंत्री बन गए.जहां वह पूरे पांच साल मंत्री पद पर बने रहे.यह 1968 के आसपास की बात है. रामविलास पासवान उस समय बमुश्किल 22 साल के रहे होंगे. पुलिस विभाग में एक शानदार कॅरियर उनकी बाट जोह रहा था. उन्हें पुलिस उपाधीक्षक (डीएसपी) की नौकरी का ऑफर मिला था. कोई भी साधारण व्यक्ति होता तो एक पल की भी देरी किए बिना उसे जॉइन कर लेता. लेकिन पासवान ने अपने मित्र लक्ष्मी नारायण आर्य से कथित तौर पर पूछा, ‘मुझे सरकार बनना चाहिए या उसका नौकर?’ आर्य उस समय इस सवाल से चौंक जरूर गए थे, लेकिन वे पासवान की विलक्षण क्षमताओं से वाकिफ थे. लिहाजा, आर्य ने गेंद पासवान के ही पाले में डालते हुए कहा था, ‘यह तो तुम्हारे ऊपर निर्भर करता है कि तुम सरकार बनना चाहते हो या उसका नौकर.’
और बताने की जरूरत नहीं, पासवान पुलिस-प्रशासन का हिस्सा नहीं बने. नियति ने तो उनके लिए सरकार का हिस्सा बनना लिख रखा था. इसलिए उन्होंने डीएसपी बनने के बजाय राजनीति की राह पर चलना शुरू किया. सियासत का ‘मौसम वैज्ञानिक’ बनने का तमगा भी शायद उनकी प्रतीक्षा कर रहा था, जो राजनीतिक हवा को भापने की उनकी खूबी के मद्देनजर उन्हीं के साथी रहे लालू यादव ने कभी व्यंग्यात्मक रूप से दिया था. हवा का रुख भापकर अपनी सियासत की नैया की पाल को उसी दिशा में मोड़ने के उनके हुनर का अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि वे विभिन्न सियासी पृष्ठभूमियों वाले 6 प्रधानमंत्रियों की कैबिनेट में मंत्री रहे.
अनेक ‘वाद’ के पैरोकार, अवसरवाद सबसे प्रिय!
1970 के दशक के अंत और 1980 के दशक की शुरुआत तक पासवान एक दलित आइकॉन माने जाते थे. वे खुद को एक विद्रोही व समाज सुधारक मानते थे और गर्व से भारतीय संविधान के निर्माता बाबासाहेब भीमराव आंबेडकर का अनुयायी बताते नहीं थकते थे. शुरुआती सालों में तो पासवान ने खुद को ‘माओवादी’ भी करार दिया था और हिंदू धर्म की आंबेडकरवादी आलोचना के पैरोकार थे. उन्होंने 1983 में दलित सेना गठित की थी जिसका उद्देश्य वंचित-उत्पीड़ित जातियों के कल्याण के लिए काम करना था. आंबेडकर को मरणोपरांत भारत के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ वी.पी. सिंह सरकार के दौरान प्रदान किया गया था, जिसका श्रेय पासवान को ही दिया जाता है. 1990 में मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू कराने में भी उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही थी.
हालांकि बाद में राजनीतिक अवसरवाद पासवान के बाकी तमाम ‘वाद’ पर हावी हो गई. उनकी जीवनी लिखने वाली शोभना नायर उन्हें ऐसे व्यक्ति के तौर पर याद करती हैं, जिन्होंने एक साथ कई भूमिकाएं निभाईं- एक दलित नेता, एक समाजवादी, एक उदारवादी. और साथ ही एक राजनीतिक अवसरवादी भी. उन्होंने जिस तरह से समझौते किए, उसने दलित मसीहा के तौर पर उनकी भूमिका और कद दोनों को घटा दिया.
यूं ही सियासत के मौसम वैज्ञानिक नहीं कहलाए…
विनम्र व्यक्तित्व के धनी पासवान इतनी सहजता से पाला बदल लेते थे कि उनके साथियों तक को एहसास नहीं होता था कि कल तक तो वे हमारे साथ थे. ऐसे कई प्रकरण गिनाए जा सकते हैं. जैसे अप्रैल 1999 में वोट ऑफ कॉन्फिडेंस का सामना करते हुए तेरह माह की वाजपेयी सरकार गिर गई. पासवान ने भी संसद के निचले सदन में वाजपेयी सरकार के खिलाफ मतदान किया था. लेकिन करीब छह माह बाद ही जब फिर से वाजपेयी की सरकार बनी तो वे उसमें शामिल हो गए.
दिसंबर 2001 का मामला तो और भी दिलचस्प है. 11 दिसंबर 2001 को कांग्रेस दफ्तर 24 अकबर रोड मुख्यालय में इफ्तार पार्टी आयोजित हुई थी. इसमें जिन दो मेहमानों ने सबको हैरत में डाल दिया था, वे पासवान और शरद यादव थे. दोनों उस समय वाजपेयी सरकार में मंत्री थे. एक दक्षिणपंथी पार्टी की अगुवाई वाली सरकार में मंत्री बनने के बावजूद पासवान ने अपने मुस्लिम वोट बैंक पर नजरें गढ़ाए रखीं. इसलिए 2002 में जब नरेंद्र मोदी शासित गुजरात में सांप्रदायिक दंगे भड़क उठे, तब पासवान ने केंद्र की अटल बिहारी वाजपेयी सरकार से इस्तीफा दे दिया. दो साल बाद ही 2004 में मनमोहन सिंह की सरकार में मंत्री बन गए. पूरे पांच साल मंत्री रहे.
फिर 2014 में नरेंद्र मोदी की अगुवाई में जब भाजपा ने केंद्र में सरकार बनाई तो पासवान ने मंत्री बनने का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया, जबकि 2002 के गुजरात दंगों को लेकर मोदी की आलोचना करने में वे सबसे मुखर रहे थे. इससे काफी पहले वे 1996 से 1998 तक देवेगौड़ा और गुजराल सरकार में तथा 1989-90 में वीपी सिंह सरकार में मंत्री रहे थे.
जब सोनिया और पासवान ने एक-दूसरे को ‘बचाया’!
माना जाता है कि सोनिया गांधी ने पासवान को एक अप्रिय हिंसक घटना से तो पासवान ने सोनिया को ‘राजनीतिक अवसान’ से बचाया था. दोनों 1990 के दशक की शुरुआत से ही पड़ोसी थे. 21 मई 1991 को जब राजीव गांधी की हत्या हुई तो वी.पी. सिंह के खिलाफ नारे लगाते हुए एक बड़ी भीड़ पासवान के घर के पास जनपथ चौराहे पर जमा हो गई. दरअसल, वी.पी. सिंह ने ही राजीव की सुरक्षा वापस ली थी और पासवान भी सिंह सरकार में मंत्री रहे थे. गुस्साई भीड़ ने पासवान के आवास 12 जनपथ पर भी हमला कर दिया. उस समय एक निजी त्रासदी झेल रही सोनिया ने अपने पुराने सहयोगी आर.के. धवन तथा राजीव के फ्लाइंग क्लब वाले मित्रों में शामिल रहे कैप्टन सतीश शर्मा को बुलाया और यह सुनिश्चित करने को कहा कि कुछ अप्रिय न घट जाए. पासवान ने इसका प्रतिसाद बाद में सोनिया को तब दिया, जब 1999 में वाजपेयी सरकार की पहली कैबिनेट बैठक में विदेशी मूल के लोगों के उच्च पदों पर आसीन होने पर रोक का प्रस्ताव रखा गया था. पासवान ने इस प्रस्ताव का विरोध किया था.
एक अनूठा रिकॉर्ड रहा इनके नाम…
1977 में जब देशभर में आपातकाल विरोधी लहर थी, उस समय पासवान ने हाजीपुर लोकसभा सीट से रिकॉर्ड 4 लाख से अधिक मतों के अंतर से जीत हासिल की थी. वर्षों यह रिकॉर्ड उनके नाम पर रहा. उस चुनाव में डाले गए प्रत्येक 10 में से करीब 9 वोट उन्हें ही मिले थे.
रशीद किदवई देश के जाने वाले पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं. वह ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन (ORF) के विजिटिंग फेलो भी हैं. राजनीति से लेकर हिंदी सिनेमा पर उनकी खास पकड़ है. 'सोनिया: ए बायोग्राफी', 'बैलट: टेन एपिस...और पढ़ें
रशीद किदवई देश के जाने वाले पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं. वह ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन (ORF) के विजिटिंग फेलो भी हैं. राजनीति से लेकर हिंदी सिनेमा पर उनकी खास पकड़ है. 'सोनिया: ए बायोग्राफी', 'बैलट: टेन एपिस...
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