गंगा की धार से घिरा है राघोपुर और यहां चौतरफा घिर गए तेजस्वी…दिलचस्प है लड़ाई

3 hours ago

पटना. राघोपुर को लंबे समय तक ‘लालू परिवार का गढ़’ कहा जाता रहा है. 1995 से लेकर 2020 तक लालू यादव, राबड़ी देवी और तेजस्वी यादव ने यहां से चुनाव जीता है. मगर इस बार समीकरण पुराने नहीं हैं. बीजेपी-जेडीयू गठबंधन ने पिछली बार के मुकाबले अपना संगठन बूथ स्तर तक मजबूत किया है. कहा तो जा रहा है कि तेजस्वी यादव बनाम सतीश कुमार के बीच जातीय समर्थन और बंटवारा निर्णायक होगा. वहीं, जन सुराज का उम्मीदवार वोट विभाजन का कारण बन सकता है जो तेजस्वी यादव के लिए टेंशन की वजह हो सकती है. ऐसे में कहा जा रहा है कि राघोपुर विधानसभा सीट पर इस बार भी लड़ाई बेहद दिलचस्प होने वाली है.

खास बात यह है कि राघोपुर में तीन यादव और एक राजपूत उम्मीदवार के बीच मुख्य मुकाबला है. 30 प्रतिशत यादव मतदाताओं के बाद सबसे ज्यादा वोटर राजपूत हैं. दूसरी ओर सियासी तौर पर राघोपुर के रण में तेजस्वी यादव की तगड़ी घेराबंदी की गई है. आरजेडी नेता तेजस्वी प्रसाद यादव यहां से तीसरी बार चुनाव लड़ रहे हैं और चुनाव में मुख्य टक्कर महागठबंधन (आरजेडी) बनाम एनडीए (बीजेपी) के बीच है, लेकिन प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी के उम्मीदवार के कारण समीकरण जटिल हो गए हैं. जबकि एक कोण तेज प्रताप यादव का भी है जिनके जनशक्ति जनता दल के प्रत्याशी भी चुनावी मैदान में हैं.

गंगा की गोद में सियासी धार, घिरा हुआ मैदान!

भौगोलिक दृष्टि से राघोपुर चारों तरफ से गंगा और उसकी सहायक नदियों से घिरा है, जिससे यह क्षेत्र प्राकृतिक रूप से लगभग एक ‘द्वीप’ बन जाता है. अब यही तस्वीर राजनीतिक अर्थ में भी देखने को मिल रही है. दरअसल, इस बार बिहार चुनाव में तेजस्वी यादव का किला तीन ओर से विरोधी लहरों से घिरा हुआ है. एक ओर एनडीए का यादव–कुर्मी वोट जोड़ने का प्रयास है तो दूसरी ओर अल्पसंख्यक वोट में एआईएमआईएम की दावेदारी. वहीं, तीसरी ओर जनसुराज पार्टी जैसी नई ताकतें पारंपरिक वोट बैंक को तोड़ने में लगी हैं.

गंगा के पार जातिगत सियासत की लहर जोरदार

राघोपुर विधानसभा क्षेत्र सामान्य सीट है और यहां लगभग 30% तक यादव समुदाय का वोट बैंक है. यादवों का पारंपरिक रूप से समर्थन राजद (RJD) के लिए रहता आया है. इसके अतिरिक्त क्षेत्र में सबसे अधिक राजपूत हैं, जबकि भूमिहार और पासवान और अन्य दलित समूहों की भी पर्याप्त मौजूदगी है. भूमिहार समुदाय आमतौर पर भाजपा-जेडीयू के मतदाता माने जाते रहे हैं, जबकि पासवानऔर अन्य दलित किसी न किसी स्तर पर अन्य विकल्पों की ओर देखे जाते रहे हैं. खास बात यह है कि यादव बहुल इस क्षेत्र में यादवों का समर्थन सबसे बड़ी राजनीतिक ताकत है.

बीजेपी उम्मीदवार सतीश यादव को जानिए

बता दें कि राघोपुर से बीजेपी ने सतीश कुमार यादव को उम्मीदवार बनाया है. श्यामचंद रामपुर गांव के रहने वाले सतीश यादव ‘यदुवंशी’ समुदाय से आते हैं और 2005 में आरजेडी छोड़कर जेडीयू में शामिल हुए थे. उन्होंने 2010 में राबड़ी देवी को 13,000 से अधिक वोटों से हराकर बड़ा उलटफेर किया था. हालांकि, 2015 में तेजस्वी यादव से हार गए. उसी चुनाव के बाद सतीश यादव ने बीजेपी का दामन थाम लिया. 2020 में भी बीजेपी ने उन्हें मौका दिया था, लेकिन जीत नहीं मिली. इस बार वह तेजस्वी के खिलाफ यादव मतदाताओं के एक हिस्से को साधने की रणनीति पर काम कर रहे हैं.

तेज प्रताप के उम्मीदवार प्रेम कुमार को जानिए

तेजस्वी यादव की घेराबंदी करने वालों में उनके बड़े भाई तेज प्रताप यादव भी शामिल हैं. तेज प्रताप की जनशक्ति जनता दल पार्टी से प्रेम कुमार मैदान में हैं जो पहले आरजेडी के सक्रिय सदस्य रह चुके हैं. राघोपुर के चकसिकंदर गांव के रहने वाले प्रेम कुमार ने दिल्ली विश्वविद्यालय में छात्र राजनीति से पहचान बनाई और रामविलास पासवान के समय छात्र लोजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे. 2015 में लालू यादव के कहने पर उन्होंने आरजेडी जॉइन की और तेजस्वी की जीत में अहम भूमिका निभाई. लेकिन, पार्टी में अपेक्षित सम्मान न मिलने से उन्होंने अलग राह पकड़ी और अब तेज प्रताप की टीम से तेजस्वी के खिलाफ चुनावी मैदान में हैं.

जन सुराज प्रत्याशी चंचल सिंह को जानिए

जन सुराज पार्टी ने इस बार राघोपुर से 37 वर्षीय चंचल सिंह को उम्मीदवार बनाया है जो राजपूत समुदाय से आते हैं. वह जेडीयू के व्यापारिक प्रकोष्ठ के प्रदेश महासचिव रह चुके हैं और पेशे से व्यवसायी हैं. होटल और रियल एस्टेट सेक्टर में सक्रिय चंचल सिंह का हाजीपुर, विदुपुर और नई दिल्ली में व्यवसाय फैला हुआ है. उन्होंने ‘नमामी गंगे’ प्रोजेक्ट के तहत सोनपुर और सिमरिया घाट के विकास में भूमिका निभाई थी. प्रशांत किशोर की रणनीति में उन्हें राजपूत चेहरे के रूप में उतारा गया है, ताकि अगड़ा वोट बैंक को जोड़ा जा सके और राघोपुर में तेजस्वी के यादव समीकरण को चुनौती दी जा सके.

लालू यादव का गढ़, पर बदले हुए हैं समीकरण!

बता दें कि वर्ष 2010 में तेजस्वी यादव के पिता लालू यादव की हार के बाद 2015 में तेजस्वी ने 13,000 वोटों के अंतर से जीत हासिल की थी. 2020 में यह अंतर बढ़कर 38,174 वोट तक पहुंच गया. मगर 2025 में मतदाताओं की प्राथमिकताएं स्पष्ट नहीं दिख रहीं. युवा मतदाता विकास और बेरोजगारी को लेकर अधिक मुखर हैं, जबकि महिला वोटरों की संख्या भी निर्णायक भूमिका में है. (2010 में महिला मतदाता 1.6 लाख से ऊपर थीं और अब 2 लाख से ज्यादा अनुमानित हैं).

गंगा की धार के बीच सियासी बहाव में तेजस्वी की परीक्षा

राजनीति के जानकार राघोपुर विधानसभा सीट इस बार बेहद दिलचस्प मुकाबला देख रहे हैं. यहां तीन यादव और एक राजपूत उम्मीदवार मैदान में होने से मुकाबला रोचक है क्योंकि यादवों की आबादी करीब 30 प्रतिशत है, जबकि दूसरे नंबर पर राजपूत वोटर हैं. अगर राजपूत मतदाता एकजुट हो गए तो जनसुराज पार्टी के उम्मीदवार को भी फायदा मिल सकता है. वहीं, अगर यादव वोटों में बीजेपी के पक्ष में थोड़ा भी झुकाव आया और राजपूत, ब्राह्मण और दलित समुदाय साथ आए तो खेल उलट-पुलट हो सकता है. दूसरी ओर, तेजस्वी यादव के खिलाफ तेज प्रताप यादव के उम्मीदवार (यादव प्रत्याशी) की मौजूदगी ने मुकाबले को और पेचीदा बना दिया है.

राघोपुर को घेरती है गंगा और अब घिरे हैं तेजस्वी

राजनीति के जानकार कहते हैं कि राघोपुर सीट पर जातीय समीकरण इस तरह काम करता है कि यादवों की संख्या और उनके समर्थन की धारणा निर्णायक है, लेकिन केवल यादव समर्थन पर्याप्त नहीं, बल्कि दलित-ओबीसी-मुस्लिम समूहों का समन्वय के साथ ही राजपूत, भूमिहार और अन्य अगड़ी जातियों के बिखराव और गोलबंदी से सियासी समीकरण उलट-पलट होने की स्थिति भी रहती है. इसलिए इस सीट पर ‘यादव मतों की बहुलता’ का मतलब ही जीत की गारंटी नहीं, बल्कि जातीय समीकरणों के समन्वय और तालमेल का सियासी खेल भी असरदार होता है.

राघोपुर सीट पर इस बार तीन मोर्चों से घेराबंदी

जानकार कहते हैं कि गंगा की धार के बीच राघोपुर की धरती हर चुनाव में एक नई कहानी लिखती है. इस बार गंगा की धार से घिरा इलाका सियासी धाराओं (तीन यादव उम्मीदवार अलग-अलग दल से हैं और एक राजपूत प्रत्याशी मुख्य मुकाबले में हैं) से भी भरा हुआ है. दरअसल, तेजस्वी यादव के लिए यह लड़ाई सिर्फ एक सीट की नहीं, बल्कि ‘लालू विरासत बनाम नई चुनौती’ की है. अगर उन्होंने यह किला बरकरार रखा तो यह उनकी नेतृत्व क्षमता की पुष्टि होगी, लेकिन अगर लहर उलटी पड़ी तो यह 2025 के बिहार चुनाव का सबसे बड़ा सियासी झटका साबित हो सकता है.

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