विपक्ष के पास नहीं है मोदी का कोई तोड़, बिहार के नतीजों से फिर हुआ ये साबित!

2 hours ago

बिहार विधानसभा की 243 सीटों में से 202 सीटें जीतकर एनडीए राज्य की बागडोर अपने हाथों में मजबूती से थामे रहने वाली है. इस जीत का श्रेय किसी एक व्यक्ति को अगर सबसे अधिक जाता है, वो हैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी. मोदी न सिर्फ बिहार में एनडीए के लिए सबसे प्रभावी और लोकप्रिय कैंपेनर रहे, बल्कि सभी घटक दलों को साथ लेकर चलने में कामयाब रहे, नीतीश कुमार को मजबूती से बैक करते रहे. यही नहीं, मोदी ने बिहार में विपक्ष को चारों खाने चित भी कर दिया, बड़बोले नेताओं के होश ठिकाने लगा दिये.

बिहार में एक बार फिर से एनडीए की सरकार बनने जा रही है. जो साफ संकेत हैं, नीतीश कुमार दसवीं बार राज्य के मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ लेंगे. बिहार में एनडीए की ये दूसरी सबसे बड़ी जीत है और आरजेडी- कांग्रेस की दूसरी सबसे बड़ी हार. बिहार में बीजेपी जहां खुद 89 सीटें जीतने में कामयाब रही, वहीं नीतीश कुमार की जेडीयू को 85 सीटें हासिल हुईं, तो चिराग पासवान की पार्टी एलजेपीआरवी को 19, जीतनराम मांझी की हम को 5 और उपेंद्र कुशवाहा की आरएलएम को चार.

भरोसा और बड़ा जनादेश

एनडीए के घटक दलों की इस भारी- भरकम जीत का श्रेय मोदी- नीतीश की जोड़ी को दिया जा रहा है, जिसे चुनाव प्रचार के दौरान खुद प्रधानमंत्री ने नरेंद्र- नीतीश की जोड़ी के तौर पर बिहार की जनता के सामने पेश किया और बिहार के विकास के लिए मतदाताओं का समर्थन मांगा. बिहार के लोगों ने उनकी बात पर कितना जबरदस्त भरोसा किया, उसी का सबूत है एनडीए के पक्ष में ये बड़ा जनादेश.

मोदी और नीतीश की महिलाओं और युवाओं के बीच जो लोकप्रियता है, उसने बिहार में एमवाई की परिभाषा ही बदल दी. आरजेडी के वोट बैंक मुस्लिम- यादव की जगह अब ये एनडीए के महिला- युवा के तौर पर ज्यादा प्रभावी हो गया है. इसमें नीतीश सरकार की उस योजना का भी बड़ा हाथ रहा, जिसमें महिलाओं के खाते में ऐन चुनाव के पहले दस हजार रुपये ट्रांसफर किये गये, उन्हें उद्यमी बनाने की दिशा में ले जाने के लिए.

दूसरी बड़ी जीत

बिहार विधानसभा चुनावों के हिसाब से एनडीए की ये दूसरी सबसे बड़ी जीत है. इससे बेहतर प्रदर्शन एनडीए 2010 में ही कर पाई थी, वो भी महज चार सीटें ज्यादा पाकर. हालांकि इन दोनों परिणामों की तुलना करना बेमानी होगी. वो नतीजे तब हासिल हुए थे, जब नीतीश कुमार की अगुआई में बिहार में एनडीए की पहली पांच साल की सरकार चली थी, और लोगों ने लालू-स राबड़ी के जंगलराज के मुकाबले सुशासन का बड़ा फर्क महसूस किया था, कानून- व्यवस्था में सुधार से लेकर सड़क, बिजली, पानी की बेहतरी तक. तब जेडीयू 141 सीटें लड़कर 115 सीटें जीती थी, जबकि बीजेपी 102 सीटें लड़कर 91 सीट. तब बिहार में नीतीश की अगुआई में जेडीयू बड़े भाई की भूमिका में होती थी और बीजेपी छोटे भाई की भूमिका में, जिसकी कमान तब सुशील मोदी संभाले हुए थे. उसके मुकाबले इस बार बीजेपी और जेडीयू दोनों 101 सीटों पर लड़कर क्रमश: 89 और 85 सीटें जीत पाने में कामयाब रही है. करीब बीस साल तक बीच के एक साल को छोड़कर. एनडीए के बिहार में सत्ता में रहने के बाद इस तरह की कामयाबी हासिल करना 2010 के उस चुनाव परिणाम के मुकाबले काफी असरदार माना जाएगा.

विकास का मॉडल

इस चुनाव में जीत के बाद प्रधानमंत्री मोदी का बीजेपी मुख्यालय से दिया गया भाषण बिहार के लिए काफी आशा जगाने वाला है. इस भाषण के दौरान न सिर्फ बिहार के विकास का एक मॉडल उन्होंने सामने रखा, बल्कि इस राज्य को निवेश के बड़े डेस्टिनेशन के तौर पर देखने के लिए भी देश- विदेश के निवेशकों से अपील की. बिहार के लोगों को बिहार में ही रोजगार मिल सके, राज्य तेजी से विकास कर सके, इसका मजबूत इरादा जाहिर किया मोदी ने. नई सरकार इस सपने को जमीन पर उतारेगी, ऐसा भरोसा मोदी ने दिलाया. बिहार की जनता इसे जमीन पर जल्दी से जल्दी उतरते हुए देखना चाहेगी, और इसी के लिए उसने जमकर एनडीए की झोली में सीटें भी सौंपी है.

90 से ज्‍यादा का स्‍ट्राइक रेट

2025 विधानसभा चुनावों के इस नतीजे में बीजेपी काफी मजबूत होकर उभरी है, नब्बे प्रतिशत से अधिक का स्ट्राइक रेट रहा है उसका, जेडीयू भी अस्सी फीसदी से अधिक के स्ट्राइक रेट के साथ इस बार सीटें जीती हैं, 2020 के मुकाबले काफी बेहतर प्रदर्शन करते हुए. चिराग पासवान, जीतनराम मांझी और उपेंद्र कुशवाहा की पार्टी को भी एनडीए गठबंधन का हिस्सा रहने का भरपूर फायदा हुआ है. इस बार सीटों का तालमेल भी अच्छा हुआ और चुनाव प्रचार के दौरान भी एनडीए के दलों में खूब एकता दिखी. इसी वजह से इतना अच्छा परिणाम सभी घटक दलों को हासिल हुआ. इस तरह की एकता एनडीए में बनी रहे, मोदी ने इसके लिए लगातार प्रयत्न किया.

एम-वाई समीकरण

इसके उलट, जो राहुल गांधी और तेजस्वी यादव वोट चोरी से लेकर एसआईआर को लेकर हंगामा काटते रहे, उनको जनता ने बता दिया है कि इससे काम नहीं चलने वाला. जब तक कोई बिहार के विकास का कोई ठोस ब्लू प्रिंट नहीं होगा, रंग- ढंग नहीं सुधरेगा, बिहार के लोग इन पार्टियों पर भरोसा नहीं कर पाएंगे, ये संदेश साफ है. वाणी पर भी संयम रखना होगा, ये भी संदेश है. चुनाव प्रचार के दौरान या इससे पहले भी जिस किस्म की भाषा का इस्तेमाल इन दोनों नेताओं की तरफ से हुआ, खास तौर पर प्रधानमंत्री मोदी को लेकर, उसे जनता ने नकारा है. यही नहीं, आरजेडी, जिस एम-वाई समीकरण को बिहार में अपना स्थाई वोट बैंक मानती रही है, वो वोट बैंक भी दरक गया है, ये साफ दिखाई दे रहा है. यही वजह है कि इस चुनाव में आरजेडी महज पचीस सीटों पर सिमट गई, जबकि कांग्रेस छह सीटों पर. ये बिहार में इन दोनों ही पार्टियों का दूसरा सबसे खराब प्रदर्शन है. तेजस्वी बस बिहार विधानसभा में विपक्ष का नेता बन पाएं, उतनी ही सीटें जुटा पाए हैं. अब उन्हें पांच साल तक सदन में एनडीए का प्रभुत्व देखते रहने के लिए बाध्य रहना होगा.

प्रशांत किशोर की दुकान पर ताला

उधर अपनी चुनावी रणनीति की बड़ी- बड़ी बातें करने वाले और नीतीश के पचीस सीट से ज्यादा पाने पर राजनीति छोड़ देने का ताल ठोकने वाले प्रशांत किशोर जैसों को भी जनता ने बताया है कि दूसरों के लिए जीत की रणनीति बनाना और उसका क्रेडिट लेना एक बात है, और खुद चुनावी दंगल में उतर कर कामयाबी हासिल करना, बिल्कुल अलग बात. जो प्रशांत किशोर 2014 की मोदी की लोकसभा चुनावों की जीत और 2015 की बिहार में नीतीश की जीत का क्रेडिट अपने माथे पर बंधाकर घुमते रहे और इसी के सहारे देश के कई राज्यों में चुनाव मैनेजमेंट की दुकान कामयाबी से चलाते रहे, पैसे और शोहरत बटोरते रहे, उस दुकान पर बिहार ने ताला लगा दिया है, उनकी पार्टी जन सुराज का खाता भी नहीं खुलने देकर. जन सुराज, जन के बीच कोई आधार नहीं बना पाई, इसका ये साफ संकेत है.

मोदी- सबसे क्रेडिबल नेता

जहां तक मोदी का सवाल है, वो अब भी इस देश के सबसे क्रेडिबल नेता हैं, जनता का उन पर अटूट भरोसा है, बिहार के चुनावों ने इसकी मजबूत पुष्टि की है. मोदी इससे पहले भी एक के बाद एक तमाम चुनावों में मिल रही जीत से ये साबित करते रहे हैं. चाहे हरियाणा हो, या ओडीशा, चाहे महाराष्ट्र हो या अब बिहार के परिणाम, जो लोग 2024 चुनावों के बाद मोदी के जलवे के थोड़े कम होने की बात कर रहे थे, उन्हें अपने विश्लेषण और ख्याल को बदलने के लिए बाध्य होना होगा. वैसे भी मोदी लगातार चुनावी पंडितों और राजनीतिक विश्लेषकों को धता बताते रहे हैं.

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