मैं न्यायिक सक्रियता का पक्षधर हूं...CJI बीआर गवई ने ऐसा क्‍यों कहा?

2 days ago

Last Updated:September 12, 2025, 13:48 IST

CJI Justice BR Gavai News: भारत के प्रधान न्‍यायाधीश जस्टिस बीआर गवई जनसरोकार से जुड़े मुद्दों पर अक्‍सर ही अपनी राय रखते रहते हैं. सीजेआई गवई ने एक बार फिर से ऐसे मसले पर पक्ष रखा है, जिसपर लंबे समय से चर्चा चली आ रही है.

मैं न्यायिक सक्रियता का पक्षधर हूं...CJI बीआर गवई ने ऐसा क्‍यों कहा?CJI जस्टिस बीआर गवई ने न्‍याय‍िक सक्रियता और न्‍यायिक आतंकवाद पर अपनी राय व्‍यक्‍त की है. (फोटो: पीटीआई)

CJI Justice BR Gavai News: भारत के प्रधान न्यायाधीश (CJI) जस्टिस बीआर गवई देश के समाज के सामने पैदा प्रमुख मसलों पर अपनी बेबाक राय रखने के लिए जाने जाते हैं. उन्‍होंने एक बार फिर से एक ऐसे मुद्दे पर अपनी राय रखी है, जिसपर दशकों से चर्चा चली आ रही है. सीजेआई गवई ने न्‍यायिक सक्रियता (Judicial Activism) पर अपनी बात रखी है. हालांकि, CJI ने न्‍यायिक आतंकवाद (Judicial Terrorism) को लेकर आगाह भी किया. उन्‍होंने कहा कि देश में न्‍यायिक सक्रियता अभी भी प्रासंगिक है. इसके साथ ही उन्‍होंने कि संविधान न केवल अधिकारों की गारंटी देता है, बल्कि ऐतिहासिक रूप से वंचित वर्गों को ऊपर उठाने का भी काम करता है.

ऑक्सफोर्ड यूनियन में ‘फ्रॉम रिप्रेज़ेंटेशन टू रियलाइज़ेशन: एम्बॉडीइंग द कॉन्स्टिट्यूशन’ विषय पर बोलते हुए CJI गवई ने ज्‍यूडिशियरी की भूमिका पर विस्तार से अपने विचार रखे. उन्होंने चेताया कि न्यायिक सक्रियता (Judicial Activism) और न्यायिक आतंकवाद (Judicial Terrorism) के बीच एक बारीक रेखा है, जिसे पार नहीं किया जाना चाहिए. उन्होंने कहा, ‘न्यायिक सक्रियता बनी रहेगी, लेकिन न्यायिक सक्रियता को न्यायिक आतंकवाद में तब्दील नहीं होना चाहिए. कई बार ऐसा होता है कि न्यायपालिका अपनी सीमाओं से आगे जाकर ऐसे क्षेत्रों में प्रवेश करने लगती है, जहां सामान्य तौर पर उसे नहीं जाना चाहिए.’

कार्यपालिका-विधायिका असफल रहे तो…

हालांकि, CJI गवई ने स्पष्ट किया कि अगर कार्यपालिका या विधायिका अपने दायित्व निभाने में असफल रहती है, तो न्यायपालिका हस्तक्षेप कर सकती है. लेकिन न्यायिक समीक्षा (Judicial Review) की शक्ति का इस्तेमाल केवल असाधारण परिस्थितियों में होना चाहिए. उनके मुताबिक, यह तभी उचित है जब कोई कानून संविधान की मूल संरचना का उल्लंघन करता हो, मौलिक अधिकारों के खिलाफ हो या स्पष्ट रूप से मनमाना और भेदभावपूर्ण वाला हो.

प्रेसिडेंशियल रेफरेंस

गौरतलब है कि इसी साल अप्रैल में सुप्रीम कोर्ट ने पहली बार यह निर्देश दिया था कि राष्ट्रपति को राज्यपाल की ओर से विचार के लिए भेजे गए विधेयकों पर तीन माह के भीतर निर्णय लेना होगा. इसके बाद राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने सुप्रीम कोर्ट से यह राय मांगी थी कि क्या राज्यपालों पर भी इसी तरह की समयसीमा लागू की जा सकती है. बता दें कि इस मामले से न्‍यायपालिका और कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र की बात एक बार फिर से चर्चा के केंद्र में आ गया.

अनुच्‍छेद 143 के तहत दिया गया अधिकार

राष्ट्रपति ने अनुच्छेद 143 के तहत सुप्रीम कोर्ट से यह भी पूछा था कि जब कोई विधेयक राज्यपाल के समक्ष प्रस्तुत होता है, तो क्या वे मंत्रिपरिषद की सलाह मानने के लिए बाध्य हैं? साथ ही यह सवाल भी उठाया गया कि क्या राज्यपाल का संवैधानिक विवेकाधिकार न्यायिक समीक्षा के दायरे में आता है, जबकि अनुच्छेद 361 कहता है कि राष्ट्रपति या राज्यपाल अपने पद के कर्तव्यों के निर्वहन के लिए किसी अदालत के प्रति उत्तरदायी नहीं होंगे. बता दें कि प्रेसिडेंशियल रेफरेंस पर सीजेआई गवई की अध्‍यक्षता वाली पीठ ने सुनवाई पूरी कर ली है. CJI जस्टिस गवई का यह बयान ऐसे समय में आया है, जब देश में न्यायपालिका की सक्रिय भूमिका और उसकी सीमाओं पर लगातार बहस जारी है.

Manish Kumar

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Location :

New Delhi,Delhi

First Published :

September 12, 2025, 13:48 IST

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