'टाइमलाइन बनाना संविधान के खिलाफ', SC ने सरकारों को स्पष्ट संदेश दे दिए!

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Last Updated:November 20, 2025, 16:28 IST

Supreme Court: सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राज्यपाल और राष्ट्रपति पर बिल मंजूरी के लिए तय टाइमलाइन लगाना संविधान के खिलाफ है. अदालत ने स्पष्ट किया कि “deemed assent” जैसी कोई व्यवस्था नहीं हो सकती. हालांकि, अगर राज्यपाल बिना वजह लंबे समय तक चुप रहें, तो अदालत सिर्फ इतना कह सकती है कि वे उचित समय में फैसला करें.

'टाइमलाइन बनाना संविधान के खिलाफ', SC ने सरकारों को स्पष्ट संदेश दे दिए!सुप्रीम कोर्ट.

सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को उस मुद्दे पर अपनी सलाह दी, जिस पर कई महीनों से राजनीतिक बहस चल रही थी, क्या राज्य के बिलों पर राज्यपाल और राष्ट्रपति द्वारा होने वाली देरी के लिए तय सीमा लगाई जा सकती है? कोर्ट का जवाब साफ रहा, ऐसी किसी भी फिक्स टाइमलाइन की इजाजत संविधान नहीं देता. इस सलाह को पांच जजों की संविधान पीठ ने दिया, जिसकी अगुवाई चीफ जस्टिस बी आर गवई कर रहे थे.

कोर्ट ने क्यों कहा कि टाइमलाइन लगाना गलत है
पीठ ने कहा कि अप्रैल में दिए गए फैसले में जिस तरह से राज्यपाल और राष्ट्रपति पर समय सीमा तय की गई थी, वह असल में अदालत के अधिकार क्षेत्र से बाहर जाती है.

अगर कोर्ट ऐसा करने लगे तो इसका मतलब होगा कि वह राज्यपाल और राष्ट्रपति की भूमिका को अपने हाथ में ले रही है. संविधान ने जानबूझकर इस प्रक्रिया को लचीला बनाया है, ताकि सरकार, राज्यपाल और राष्ट्रपति अपने हिसाब से स्थिति को समझकर फैसला ले सकें.

अदालत ने साफ कहा कि “deemed assent” यानि यह मान लेना कि अगर समय बीत गया तो बिल अपने आप मंजूर हो गया, ऐसी व्यवस्था संविधान में कहीं नहीं है और अदालत इसे नहीं बना सकती.

आर्टिकल 142 भी नहीं बदल सकता राज्यपाल और राष्ट्रपति की भूमिका
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी बताया कि उसका विशेष अधिकार, जो Article 142 में दिया गया है, वह भी राष्ट्रपति और राज्यपाल की संवैधानिक शक्तियों को प्रभावित नहीं कर सकता. हर संस्था का एक अपना दायरा है और अदालत का काम यह नहीं कि वह दूसरे की जगह बैठ जाए.

देरी ज्यादा हो जाए तो अदालत कर सकती है सीमित दखल
कोर्ट ने टाइमलाइन लगाने से मना तो कर दिया, लेकिन इतना जरूर बताया कि अगर राज्यपाल बेवजह लंबे समय तक चुप रहें, और इससे सरकार का काम रुक जाए, तो अदालत “सीमित दखल” दे सकती है.

यह दखल सिर्फ इतना होगा कि अदालत राज्यपाल से कह सकती है कि वे “उचित समय” में फैसला करें. पर अदालत यह नहीं बता सकती कि फैसला क्या होना चाहिए. न ही वह राज्यपाल की मर्जी या विवेक (डिस्क्रेशन) में दखल दे सकती है.

राज्यपाल के पास तीन ही विकल्प
सुप्रीम कोर्ट ने फिर से दोहराया कि संविधान के मुताबिक राज्यपाल के पास तीन ही रास्ते हैं

बिल पर मंजूरी दें बिल को राष्ट्रपति के पास भेजें बिल को वापस भेजकर विधानसभा से दोबारा विचार करने को कहें

इन तीन विकल्पों के अलावा कोई चौथा रास्ता अदालत नहीं बना सकती. कोर्ट ने यह भी कहा कि राज्यपाल “सुपर चीफ मिनिस्टर” नहीं बन सकते. राज्य में एक ही कार्यपालिका (एक्सिक्यूटिव) होती है, दो नहीं.

बिल कानून बनने से पहले अदालत में चुनौती नहीं
पीठ ने एक अहम बात कही, जब तक कोई बिल कानून न बन जाए, अदालत उस पर दखल नहीं दे सकती. राज्यपाल या राष्ट्रपति बिल के स्तर पर जो काम करते हैं, वह अदालत की समीक्षा के दायरे में नहीं आता. इसे “pre-enactment scrutiny” कहा जाता है, और यह संविधान में अनुमति नहीं पाता.

संस्थाएं एक-दूसरे पर टिकी हैं, लेकिन रुकावट बर्दाश्त नहीं
कोर्ट ने कहा कि भारत का लोकतांत्रिक ढांचा तभी चलता है जब हर संस्था दूसरी को संतुलन में रखे. एक की कार्रवाई दूसरी को पंगु नहीं बना सकती. साथ ही यह भी कहा कि संविधान “ठहराव वाली स्थिति” पसंद नहीं करता. यानि अगर राज्यपाल महीने भर या साल भर चुप बैठ जाएं, तो यह भी ठीक नहीं. लेकिन इसका हल यह नहीं कि अदालत टाइमलाइन बना दे, हल सिर्फ इतना है कि कोर्ट कह सकती है, “कृपया निर्णय लें.”

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Location :

New Delhi,Delhi

First Published :

November 20, 2025, 16:28 IST

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