जिन्होंने आतंकी हिंसा में अपनों को खोया, उनके जख्म पर मलहम लगाने की बड़ी कवायद

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बारामूला: रविवार, तेरह जुलाई, दिन के साढे ग्यारह बजे. कश्मीर यूनिवर्सिटी का बारामूला स्थित नॉर्थ कैंपस. इसके ऑडिटोरियम में लोग खचाखच भरे हुए हें. महिलाएं, युवक, बुजुर्ग, बच्चे सभी. सामने मंच पर हैं जम्मू- कश्मीर के उपराज्यपाल मनोज सिन्हा, वरिष्ठ अधिकारियों के साथ, चीफ सेक्रेटरी से लेकर डीजीपी तक. मंच से उद्घोषणा होती है, वजाहत स्वागत भाषण देंगे.

वजाहत किसी अधिकारी का नाम नहीं है, बल्कि ये एक युवा है. कश्मीरी युवा, बारामूला का ही रहने वाला. युवाओं को अपने साथ जोड़कर एक स्वयंसेवी संगठन चलाता है, उन लोगों से संपर्क साधने के लिए, उनकी समस्याएं अधिकारियों, प्रशासन तक ले जाने के लिए, जिन्होंने अपनों को खोया है, घाटी में 1989 से शुरू हुए आतंकवाद के कारण.

वो बताता है कि कश्मीर में ‘कन्फ्लिक्ट इकोनॉमी’ से फायदा उठाने और इसके लिए आतंकवाद को भड़काने वाले नेताओं और अलगाववादियों के गठजोड़ ने आतंक की भेंट चढ़े लोगों के परिवार का क्या हाल किया. कई मामलों में न तो एफआईआर लिखी गई, और न ही कोई मुआवजा दिया गया, सरकारी नौकरी तो दूर की बात रही. दहशतगर्दी के ये कारोबारी पीड़ित परिवारों के आंसू पोछने में यकीन नहीं रखते थे.

इसकी वजह से हुआ ये कि जिन आतंकवादियों ने निर्दोष कश्मीरियों को मारा, उन्हें तो नौकरी मिल गई, लेकिन उनका शिकार हुए लोगों के परिवार वालों को नहीं. वो भी तब जबकि जम्मू- कश्मीर में जो विशेष कानून बनाया गया था, उसका उद्देश्य था आतंकवाद का शिकार हुए लोगों के परिवार वालों की सहायता के लिए उन्हें सरकारी नौकरी देने का, ताकि उनका घऱ आराम से चल सके.

वजाहत बड़ी हिम्मत के साथ बता रहा है कि किस तरह आतंकवादियों को कश्मीर घाटी में मुजाहिद और शहीद करार दिया गया, वही जिन लोगों ने आतंकवाद के सामने लड़ते हुए, आतंकवादियों के सामने न झुकते हुए शहादत दी, उनकी शहादत को तो भुला ही दिया गया, उनके परिवार को भी ऊपर वाले के भरोसे छोड़ दिया गया. हद तो ये हुई कि आतंकवादी हिंसा के शिकार हुए लोगों के परिवार वालों को धमकी दी जाती रही, उन्हें चुप कराया जाता रहा, उन्हें अन्याय के खिलाफ आवाज उठाने की भी हिम्मत नहीं थी.

लेकिन 2019 में आर्टिकल 370 की समाप्ति के बाद जो परिस्थितियां बनीं, उसमें ऐसे परिवारों के लिए दिन बदलने की शुरुआत हुई. पहली बात तो ये थी कि प्रशासन का रुख बदलने लगा था, कश्मीर की सियासत पर दशकों से जिनका राज था, और आतंकवाद- अलगाववाद को भड़काने में जिनकी अहम भूमिका थी, सत्ता उनके हाथ से जा चुकी थी. सत्ता की बागडोर नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली उस केंद्र सरकार के हाथ आ चुकी थी, जो केंद्र शासित प्रदेश के तौर पर जम्मू- कश्मीर की तस्वीर बदलने में लगी थी.

एलजी मनोज सिन्हा की अगुवाई में शुरू हुआ कार्यक्रम

हालांकि इस सरकार को भी आतंकवाद के शिकार हुए ऐसे लोगों की तरफ ध्यान जाने में समय लग गया. सिस्टम इतना सड़ चुका था कि ऐसे सभी लोग भूला दिये गये थे. सरकारी फाइलों और कोर्ट के केस पेपर का हिस्सा बन चुके थे आतंकवाद के शिकार लोग और उनसे जुड़े परिवार, उन पर सरकारी उपेक्षा के तौर पर धूल की लंबी- चौड़ी परत जम चुकी थी.

पहलगाम में हुए आतंकी हमले के बाद के दौर में ऐसे परिवारों की तरफ अचानक ही जम्मू- कश्मीर के उप राज्यपाल मनोज सिन्हा का ध्यान गया. पहलगाम जिस जिले अनंतनाग जिले में पड़ता है, उसी अनंतनाग में पिछले महीने जब वो कुछ लोगों से मिल रहे थे, उन्ही में एक लड़की भी थी, जिसके ‘एसपीओ’ पिता को वर्षों पहले आतंकवादियों ने अपना शिकार बनाया था. प्रदेश के संवैधानिक प्रमुख को अपने सामने पाकर वो अपनी पीड़ा नहीं रोक पाई और रोते- रोते उसने अपने घर की दुर्दशा की कहानी सुनाई, जिसे सुनकर सिन्हा भी भाव विह्वल हो उठे.

लड़की बता रही थी किस तरह से उसके पिता को मार दिया गया और उसकी मां ने दूसरे के घरों में बर्तन मांजकर, कपड़े सिलकर अपने बच्चों की परवरिश की, परिवार के किसी भी सदस्य को न तो नौकरी मिली और न ही कोई आर्थिक सहायता. उल्टे उस आतंकवादी को सरकारी नौकरी मिल गई, जिसने उसके पिता को मारा था. सिन्हा ये जानकर सन्न रह गये.

सिन्हा के लिए इस लड़की के परिवार की कहानी इस बात की गवाही थी कि कैसे आतंकवादियों या फिर उनके समर्थकों को यहां की सरकारों ने सरकारी नौकरी का तोहफा दिया, सिस्टम में बना कर रखा, आतंकी पूरी ताकत से सिस्टम को खोखला करने में लगे रहे और कहां वो परिवार, जिन्होंने अपनों को खोया था, उन्हें कोई मदद नहीं मिल पाई, नौकरी तो दूर की बात.

लड़की की आपबीती सुनने के बाद सिन्हा ने इस पर युद्ध स्तर से काम करने की शुरुआत की. तत्काल उच्च अधिकारियों की बैठक बुलाई और ये निर्देश दिया कि उन सभी पीड़ित परिवारों की पहचान की जाए, जिन्होंने अपनों को खोया है आतंकवाद में. ऐसे लोगों की न सिर्फ पहचान करनी थी, बल्कि उन्हें जरूरत के मुताबिक हर किस्म की सहायता करनी थी.

सिन्हा की पांच स्तरीय योजना के मुताबिक, जरूरतमंदों को सरकारी नौकरी, व्यवसाय करना चाहें, तो सस्ते ब्याज पर कर्ज की व्यवस्था, आतंकवादी हिंसा वाले मामलों की तेजी से सुनवाई, अगर जमीन पर कब्जा हो गया हो, तो उस जमीन को छुड़ाना और इन सभी कामों के लिए पीड़ित परिवार आसानी से प्रशासन तक पहुंच सकें, उसके लिए खास हेल्पलाइन और सहायता प्रकोष्ठ की व्यवस्था.

सिन्हा के इस मिशन में हाथ बंटाने के लिए ही वजाहत जैसे लोग सामने आए, जिन्हें अब आतंकवादियों का कोई डर नहीं लगता. उन्होंने पिछले पांच- छह वर्षों में ये देख लिया है कि अब कानून- व्यवस्था से जुड़े लोगों की आतंकियों से कोई सांठ- गांठ नहीं, बल्कि वो उनका मजबूती से खात्मा करने में लगे हैं. ये ऐसी व्यवस्था है, जिसमें आतंकवादियों और उनके समर्थकों को खुरेच- खुरेच कर बाहर निकाला जा रहा है, सरकारी नौकरियों से उन्हें बर्खास्त किया जा रहा है. अभी तक अस्सी से अधिक ऐसे लोगों को बर्खास्त किया जा चुका है, जिसका आतंक से रिश्ता रहा है.

इस बदले हुए माहौल का ही असर रहा कि महज कुछ हफ्तों के अंदर ही ऐसे ढेरों परिवार सामने आ गये, जिन्होंने अपनों को खोया था, लेकिन आतंकवादियों के खौफ के कारण अपनी पीड़ा बयान करने से भी डर रहे थे, सरकारी मदद की उम्मीद करना तो दूर की बात.

वजाहत के स्वागत भाषण के बाद ऐसे ही लोगों ने एक के बाद एक अपनी पीड़ा बयान करनी शुरु कर दी. कुपवाड़ा के एक गांव से आए आदिल युसूफ शेख बता रहे थे कैसे अप्रैल 2003 में उनके घर में घुसे आतंकियों ने बिना कोई कारण बताए उनके पिता, मां, नाबालिग बहन को गोली मार दी. मां उस समय गर्भवती भी थीं. अपने परिवार के इन सभी सदस्यों को एक साथ खोना पड़ा युसूफ को, लेकिन कोई राहत नहीं, कोई मदद नहीं.

कुपवाड़ा से ही आई राजा बेगम बता रही थीं कैसे 1992 में उनके घर में घुसे आतंकियों ने तब उनके पति गुलाम हसन, दो बेटों इरशाद और जावेद के साथ बेटी दिलशादा को भी गोली मार दी, जब इस परिवार ने अपने घर में उन्हें शरण देने से मना कर दिया. राजा बेगम का पूरा परिवार उजड़ गया, लेकिन सिस्टम का ध्यान इनकी तरफ नहीं गया.

इसी तरह की कहानी सुहैल युसूफ शाह की रही, अक्टूबर 2002 से जुड़ी हुई, जब उनकी मां हसीना और चाचा गुलाम अहमद शाह को सौगाम इलाके में आतंकियों ने तब गोली मार दी, जब उन्होंने गुलाम अहमद को अपनी तरह ही आतंकी बन जाने के लिए कहा और उन्होंने मना कर दिया. पहले आतंकियों ने गुलाम अहमद को गोली मारी और उनके लिए पानी का ग्लास लिये हसीना जब सामने आईं, तो उन पर भी गोलियों की बौछार कर दी. आतंकी आराम से चले गये, केस तो दर्ज हुआ, लेकिन न तो कोई गिरफ्तारी हुई और न ही कोई मदद मिली.

सबकी कहानी, एक से बढ़कर एक, दर्दनाक. कोई ये बता रहा था कि उसने अपने पिता को खोया, लेकिन आज तक न तो सरकारी नौकरी मिली और न ही पिता के हत्यारों को सजा मिली. कोई ये बता रहा था कि कैसे पहले एक भाई को मारा गया, फिर दो भाई और मारे गये. कोई ये बता रहा था कि कैसे मृतकों के परिवारवालों को उत्तराधिकार का प्रमाण पत्र हासिल करने में भी नाकों चने चबाने पड़े.

कोई युवक हिंदी- उर्दू में अपनी कहानी बयान कर रहा था, तो कोई महिला कश्मीरी में अपनी पीड़ा बयान कर रही थी, तो फर्राटेदार अंग्रेजी में एक लड़की ये बता रही थी कि कैसे उसके पिता, नाबालिग रहते हुए ही बालिग जैसे गंभीर हो गये, क्योंकि पिता की हत्या के बाद परिवार को कोई संभालने वाला कोई बचा नहीं था, और ये पूरा दौर कितना कष्टपूर्ण था. एक बूढ़ी महिला ये बता रही थी कि कैसे उसके बेटे की हत्या हुई और बेटे की हत्या के बाद अपने पोते- पोतियों का पेट भरने के लिए उसे बर्तन मांजकर घर चलाना पड़ा, दो जून की रोटी की व्यवस्था करनी पड़ी.

ये सारी कहानियां ऐसी थीं, जिसे सुनकर हॉल में बैठा हुआ कोई भी आदमी ऐसा नहीं था, जिसकी आंखें नम नहीं हो गई, उदासीन नहीं हो गईं. कुछ लोग तो फफक- फफक कर रो पड़े. ऐसी ही दर्दनाक कहानियों को सुन रहे थे मंच पर बैठे उपराज्यपाल मनोज सिन्हा भी.

पीड़ित परिवारों को सांत्वना देते हुए सिन्हा ने चालीस ऐसे लोगों को सरकारी नौकरी मंच पर बुलाकर दी, जिन्होंने अपने पिता, पुत्र या भाई को पिछले चार दशकों के आतंकवाद में खोया है. सबको मंच पर बुलाकर नियुक्ति प्रमाण पत्र दिया गया, उनकी भावनाओं को सहलाया गया.

ये शुरुआत महत्वपूर्ण है. बड़े संकेत हैं इसके. ये इस बात का इशारा है कि अब आतंकियों और उनके पैरोकारों की नहीं चलेगी, बल्कि चलेगी उन लोगों की, जो तिरंगे के साथ खड़े हैं, जो आतंकवादियों के सरपरस्त नहीं, उनके सामने सीना तानकर खड़े होने वाले हैं.

यही स्वर सिन्हा के भाषण में भी दिखाई दिये, जिसमें इशारा किया गया कि केंद्र शासित प्रदेश का ये प्रशासन ऐसे सभी लोगों तक पहुंचेगा, जिन्होंने अपनों को खोया है आतंकवादी हिंसा में, उनकी भरपूर सहायता की जाएगी. अगर परिवार में एक से ज्यादा नौकरियों की जरूरत है, तो वो भी दी जाएगीं. आतंकवादी हिंसा के शिकार लोगों से संबंधित केस जो वर्षों से धूल खा रहे हैं, वो अदालत में तेजी से चलाए जाएंगे, इंसाफ मिलेगा. जिन मामलों में एफआईआर तक नहीं दर्ज हुई, उसमें एफआईआर होगी.

जम्मू- कश्मीर के लिए ये बड़ा बदलाव है. यहां के लोगों ने वो दौर देखा है, जब आतंकवादी दामाद की तरह सिस्टम के जरिये पाले- पोसे जाते थे और उनका शिकार हुए लोग शासन की उपेक्षा और उत्पीड़न का शिकार होते थे. यही वजह थी कि आतंकवादियों की गोलियों का शिकार होने वाले लोगों के परिवार वाले जब थाने पहुंचते थे, तो उन्हें थानों से भगा दिया जाता था, केस दर्ज करना तो दूर की बात. कारण ये था कि आतंकवाद को वही नेता और मंत्री शह दे रहे थे, जिन पर जनता की रक्षा की जिम्मेदारी थी. उनका आतंकवाद को बढ़ावा देने में अपना फायदा दिखता था, क्योंकि केंद्र से आतंकवाद रोकने के नाम पर बड़ा फंड हासिल किया जा रहा था, गुलछर्रे उड़ाये जा रहे थे, पैसों की बंदरबांट की जा रही थी. कंफ्लिक्ट इकोनॉमी कश्मीर में ऐसे ही चार दशक से चल रही थी.

लेकिन इस पर ब्रेक 2019 से लगना शुरु हुआ है. बारामूला के हॉल में रविवार को बैठे लोगों को भी इसका अहसास हुआ, जहां जमकर आतंकवादियों को कोसा जा रहा था, उनके सरपरस्तों की कलई खोली जा रही थी, असली पीड़ितों के दुख- दर्द बांटे जा रहे थे और ये सब कुछ हो रहा था प्रदेश के संवैधानिक प्रमुख और बरिष्ठ अधिकारियों की मौजूदगी में, जिन्होंने तय किया है कि युद्ध स्तर पर सभी पीड़ितों की पहचान करके उनकी सहायता की जाएगी, उनके जख्म पर हर तरह से मलहम लगाया जाएगा. यही बदलता कश्मीर है, नया कश्मीर है, जिस पर देश- दुनिया की निगाहें टिकी हैं, परेशानी है तो सिर्फ उनको, जो आतंकवाद की अर्थव्यवस्था का दशकों से दोहन करते आए हैं, फायदा उठाते आए हैं, दहशतगर्दी के सौदागर के तौर पर.

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