कमलिका सेनगुप्ता
सुबह के 4 बजे, अलार्म तो कब बजा-उन्हें याद भी नहीं. अंधेरे में टॉर्च की रोशनी जलाकर बैग उठाया और दरवाजा खट् से बंद कर दिया. बंगाल के इस BLO का दिन शुरू हो चुका था. सड़क अभी खाली थी, हवा में हल्की ठंड, लेकिन दिमाग में सिर्फ एक बात, आज कितने फॉर्म, कितनी कॉल और कितनी अपलोडिंग? घर से दफ्तर कहने भर के उस छोटे कमरे में बैठते ही फोन की घंटी शुरू.
सर, मेरा फॉर्म अपलोड हुआ?
दादा, दो बार आया… फिर से क्या भरना है?
मेरा नाम अभी तक लिस्ट में क्यों नहीं?
एक कॉल खत्म होती, दूसरी बज जाती.
कागज, मोबाइल, ऐप, फॉर्म-16, फॉर्म-6, नेटवर्क… सब मिलकर जैसे एक साथ सिर पर चढ़ जाते हैं.
लेकिन दिन अभी शुरू ही हुआ है.
यही है बंगाल के BLO का असली दिन, SIR विवाद और बढ़ती सियासी टकराहट के बीच, जहां 4 बजे सुबह की शुरुआत होती है और रात तक किसी कॉल का जवाब देना बाकी रह ही जाता है.
कोलकाता के कसबा के बीएलओ चिरंजीब कुमार नाथ के साथ एक दिन बिताकर मैनें यही देखा. हमारा कैमरा ब्लॉक 150 के अंदर एक शांत गली में पहुंचता है. सुबह का समय है, मगर घर के बाहर पहले से लोग खड़े हैं.
दरवाजे की घंटी बजाते ही चिरंजीब नाथ बाहर आते हैं.
उनका घर किसी मिनी-इलेक्शन ऑफिस की तरह दिख रहा है. टेबल पर फॉर्म, फोटोकॉपी, पहचान पत्र और एक मोबाइल फोन जो लगातार बज रहा है.
नाथ की पत्नी बताती हैं, इनका दिन 4 बजे से शुरू हो जाता है. लोग सुबह-सुबह भी फॉर्म जमा करने आ जाते हैं. फोन तो 24 घंटे चलता ही रहता है.
सुबह 7 बजे-फॉर्म भरवाना, दस्तावेज चेक करना, ऐप में अपलोड
हम चिरंजीब के साथ इलाके के अंदर निकलते हैं.
पहला पड़ाव-एक बुजुर्ग महिला, जिनके दस्तावेज कल अपलोड नहीं हो पाए थे, क्योंकि ऐप बार-बार हैंग हो रहा था. चिरंजीब कहते हैं, काम ज्यादा है, लेकिन हम जैसे-तैसे कर लेते हैं. नेटवर्क और ऐप की दिक्कतें सबसे बड़ी परेशानी हैं.
News18 का कैमरा दिखाता है कि कैसे BLO बार-बार कोशिश करता है. पहले फोटो क्लिक, फिर आधार अपलोड, फिर रेसिडेंट प्रूफ, और फिर सबमिट. तीन बार नेटवर्क फेल होता है.
रास्ते में रुक-रुककर सवाल पूछते लोग
जैसे ही हम आगे बढ़ते हैं, दो युवक रोक लेते हैं. दादा, मेरा नाम लिस्ट में अपलोड हुआ क्या? एक बुजुर्ग शख्स अपने बैग से फॉर्म निकालकर कहते हैं, बार दो बार आ चुका, आज ले लीजिए… चिरंजीब समझाते हैं, फॉर्म लेते हैं, तुरंत नोट कर लेते हैं. उनका फोन लगातार बजता रहता है. ऐसा लगता है मानो वे सिर्फ BLO नहीं, बल्कि एक कॉल सेंटर एक्ज़िक्यूटिव हों.
दोपहर 1 बजे-घर लौटते ही बाहर भीड़
जब हम वापस उनके घर आते हैं, दरवाजे पर पहले ही 7-8 लोग खड़े मिलते हैं. कुछ महिलाएं कहती हैं, दादा, हम दो दिन से आ रहे हैं. आपने बोला था आज अपलोड हो जाएगा. चिरंजीब उन्हें अंदर बैठाते हैं और फॉर्म चेक करके समझाते हैं कि क्या कमी है और क्या करना होगा. उधर फोन पर एक कॉल, दादा, मेरा आईडी घूम गया है, क्या करूं?
ये चल ही रहा था कि तभी टीएमसी बूथ लेवल एजेंट और उसकी पत्नी आ जाते हैं. वे कहते हैं, BLO का काम बहुत मुश्किल है. 24 घंटे मैदान में रहते हैं. राजनीतिक दबाव वाली बात गलत है, लेकिन काम का बोझ बहुत है. उनकी पत्नी एक और दिलचस्प बात कहती हैं. हम देखते हैं, चिरंजीब दादा रात-रात भर मोबाइल में अपलोड करते रहते हैं. हर समय कुछ न कुछ काम होता है. इस पर बीएलओ चिरंजीव कहते हैं, काम बहुत है, लेकिन ऐसा भी नहीं कि हम टूट जाएं. हां, कभी-कभी ऐप की दिक्कत और लगातार फील्ड वर्क थका देता है. तभी उनकी पत्नी जोड़ती हैं, लोग कहते हैं कि BLO डर में हैं… पर हमारा अनुभव ऐसा नहीं. बस काम बहुत ज्यादा है, रुकता नहीं है.
शाम 6 बजे-दोबारा फील्ड, डॉक्यूमेंट कलेक्शन और कॉल की बारिश
शाम होते-होते भीड़ कम नहीं होती. मनपसंद खाना ठंडा पड़ा रहता है, पर दस्तावेज़ जमा करने वालों की लाइन गर्म रहती है. एक बुजुर्ग महिला सड़क पर ही दस्तावेज़ पकड़ा देती हैं, दादा, घर आना मुश्किल है, आप ही ले लीजिए. चिरंजीब मुस्कुराकर ले लेते हैं.
रात 9 बजे- अधूरा काम, रात की अपलोडिंग का दबाव
दिन खत्म नहीं होता. रात को डिजिटल अपलोडिंग शुरू होती है. कमजोर नेटवर्क, बड़ी फाइलें, ऐप का स्लोडाउन… और मोबाइल की बैटरी लगातार गिरती हुई. उनकी पत्नी गहरी सांस लेकर कहती हैं, काम ही काम है. लेकिन लोग जो कह रहे हैं कि BLO डर से मर रहे हैं, हम ऐसा नहीं मानते.
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1 hour ago
