Last Updated:December 29, 2025, 10:05 IST
राशन चावल की जगह अगर सीधे पैसे मिलें… तो खाते में कितनी रकम आएगी, जानिए. इसके फायदे और नुकसान भी समझिए.

राशन चावल को लेकर कोई न कोई खबर अक्सर चर्चा में रहती है. कई बार राशन चावल की क्वालिटी को लेकर भी सवाल उठते हैं. सरकार राशन व्यवस्था के तहत एक किलो चावल खरीदने, उसे गोदाम में रखने और वहां से लोगों तक पहुंचाने में करीब ₹40 खर्च करती है. जो चावल मुफ्त में दिया जाता है, उसके पीछे आम लोगों के टैक्स का बड़ा पैसा लगा होता है. रिपोर्टों के अनुसार, 2025 के अप्रैल से अक्टूबर के बीच ढुलाई और स्टोरेज में कमी के कारण 53,000 टन अनाज खराब हो गया. इससे सरकार पर भारी आर्थिक बोझ पड़ रहा है.

इस बड़े नुकसान और गलत तरीके से राशन बाहर जाने को रोकने के लिए लोगों के बैंक खाते में सीधे पैसे डालने की डायरेक्ट बेनिफिट ट्रांसफर (DBT) व्यवस्था को अच्छा विकल्प माना जा रहा है. सरकार जो ₹40 खर्च करती है, वही पैसा अगर गरीबों के खाते में डाल दिया जाए, तो वे बाजार से अपनी पसंद का अच्छा चावल खरीद सकते हैं. इससे राशन सिस्टम में बड़ा बदलाव आ सकता है. अभी यह योजना देश के 80 करोड़ से ज्यादा लोगों का पेट भर रही है.

अनाज खरीदने, रखने, ढोने और उस पर लगने वाले ब्याज जैसे खर्च जोड़ें, तो एक किलो अनाज राशन दुकान तक पहुंचाने में ₹28 से ₹40 तक खर्च आता है. साल 2024-25 में एफसीआई के अनुमान के मुताबिक चावल पर ₹39.75 और गेहूं पर ₹27.74 प्रति किलो खर्च हो रहा है. कुल मिलाकर सरकार का खाने-पीने की सब्सिडी पर खर्च ₹2.05 लाख करोड़ तक पहुंच गया है.
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कई तरह की आलोचनाएं भी हो रही हैं कि इतना खर्च करने के बाद भी पूरा फायदा जरूरतमंद लोगों तक नहीं पहुंच पा रहा. विभिन्न रिपोर्टों के मुताबिक करीब 28 प्रतिशत सस्ता अनाज सही लोगों तक नहीं पहुंचता. यानी लगभग 20 मिलियन टन अनाज या तो गलत हाथों में चला जाता है या खराब हो जाता है. इससे हर साल सरकार को करीब ₹69,108 करोड़ का नुकसान होता है. एफसीआई के आंकड़े बताते हैं कि ढुलाई में 40,000 टन और गोदामों में 13,000 टन अनाज खराब हो गया, जो चिंता की बात है.<br /><!--EndFragment -->

राशन पहुंचाने की पूरी प्रक्रिया में जो कमियां हैं, उन्हें दूर करने के लिए सीधे पैसे देने की व्यवस्था को विशेषज्ञ बेहतर विकल्प मानते हैं. अगर सरकार अनाज बांटने में होने वाला खर्च सीधे आधार से जुड़े बैंक खातों में डाल दे, तो कई फायदे हो सकते हैं. इससे बीच के लोगों का दखल कम होगा और गड़बड़ियां रुकेंगी. लोग अपने आसपास के बाजार से अपनी जरूरत का खाना खरीद सकेंगे, जिससे खाने की क्वालिटी भी सुधरेगी.

कर्नाटक की ‘अन्न भाग्य’ योजना इसका अच्छा उदाहरण है. इस योजना से लोग बेहतर और पौष्टिक खाना खरीद पा रहे हैं और नए बैंक खाते खुलने से वे बैंकिंग सिस्टम से भी जुड़ गए हैं. सीधे पैसे देने से सरकार को ट्रकों, गोदामों और उनके रखरखाव पर खर्च नहीं करना पड़ता. गांवों में पैसा आने से वहां का कारोबार भी तेज होता है.

हालांकि पूरी राशन व्यवस्था को एकदम से पैसे वाली योजना में बदलना आसान नहीं है. इसके लिए सरकार को धीरे-धीरे कदम उठाने होंगे. लोगों को 12 से 18 महीने तक यह चुनने का मौका देना चाहिए कि वे राशन लें या पैसे. महंगाई और बाजार के दाम के हिसाब से मिलने वाली रकम को समय-समय पर बढ़ाना भी जरूरी है. जहां बैंक की सुविधा कम है, वहां पैसे की जगह खाने के कूपन दिए जा सकते हैं. अगर एक किलो पर ₹40 खर्च मानें, तो 25 किलो चावल लेने वाले पांच लोगों के परिवार को हर महीने करीब ₹1,000 मिल सकते हैं.

खाने की सुरक्षा का मतलब सिर्फ पेट भरना नहीं है, बल्कि इज्जत के साथ अच्छा खाना मिलना भी जरूरी है. अगर डिजिटल तकनीक का सही इस्तेमाल करके साफ-सुथरी व्यवस्था बनाई जाए, तो गरीबों को सही मायनों में फायदा मिल सकता है. आगे चलकर इस योजना को मजबूत बनाकर फिजूल खर्च रोका जा सकता है और कुपोषण भी कम किया जा सकता है. जब सब्सिडी का पैसा सीधे गरीब के हाथ पहुंचेगा, तभी सही इंसाफ होगा.

अगर राशन की जगह सीधे पैसे देने की व्यवस्था आती है, तो सिस्टम ज्यादा साफ और पारदर्शी होगा. राशन की चोरी और फर्जी कार्ड से होने वाली गड़बड़ियां काफी हद तक रुक सकती हैं. ढुलाई और गोदामों का खर्च घटने से सरकार का बहुत पैसा बचेगा. लोग बाजार से अपनी पसंद का अच्छा अनाज खरीद सकेंगे, जिससे उनके खाने-पीने की आदतों में सुधार आएगा.

हालांकि इस व्यवस्था में कुछ दिक्कतें भी हो सकती हैं. दूरदराज इलाकों में जहां बैंक नहीं हैं, वहां पैसे निकालना गरीबों के लिए मुश्किल हो सकता है. अगर बाजार में खाने-पीने की चीजों के दाम अचानक बढ़ जाएं, तो मिलने वाली रकम कम पड़ सकती है. साथ ही यह खतरा भी है कि कुछ लोग पैसे का इस्तेमाल खाने की बजाय दूसरी जरूरतों में कर दें.
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1 hour ago
