IIM में एडमिशन का शॉर्टकट, बिना इंजीनियरिंग बैकग्राउंड के जीत लें MBA की जंग

2 hours ago

नई दिल्ली (MBA Course, IIM Admission). इन दिनों एक ऐसी गजब रेस चल रही है, जिसमें एक तरफ ‘कोडिंग’ के उस्ताद और ‘कैलकुलेशन’ के जादूगर इंजीनियर खड़े हैं तो दूसरी तरफ ‘क्रिएटिविटी’ के धनी और ‘बिजनेस सेंस’ में माहिर नॉन-इंजीनियर. सालों से एमबीए की दुनिया में यह धारणा रही है कि अगर आपके पास इंजीनियरिंग की डिग्री नहीं है तो आईआईएम का गेट आपके लिए भारी पड़ेगा. लेकिन रुकिए! हवा का रुख बदल चुका है. अब क्लासरूम में सिर्फ ‘X’ और ‘Y’ के फॉर्मूले नहीं गूंजते, बल्कि वहां शेक्सपियर की फिलॉसफी, इकोनॉमिक्स की पेचीदगियां और कॉमर्स के बारीक हिसाब-किताब की भी उतनी ही धमक है.

आज का दौर ‘मोनोटोनी’ का नहीं, बल्कि ‘डायवर्सिटी’ का है. आईआईएम अहमदाबाद से लेकर बेंगलुरु तक, टॉप बी-स्कूलों ने अपने दरवाजे उन लोगों के लिए भी चौड़े कर दिए हैं जिन्होंने लैब में सर्किट जोड़ने के बजाय आर्ट्स की गैलरी में वक्त बिताया है या बैलेंस शीट के पन्ने पलटे हैं. कंपनियों को अब केवल ऐसे रोबोटिक मैनेजर्स नहीं चाहिए जो डेटा क्रंच कर सकें, बल्कि उन्हें ऐसे लीडर्स की तलाश है, जो इंसानी व्यवहार को समझ सकें. तो सवाल वही है- क्या इस कॉर्पोरेट जंग में इंजीनियर का ‘लॉजिक’ जीतेगा या नॉन-इंजीनियर का ‘मैजिक’? आइए, लेटेस्ट आंकड़ों के आईने में देखते हैं कि किसका पलड़ा वाकई भारी है.

नॉन-इंजीनियर या इंजीनियर: एमबीए की रेस में कौन आगे?

कैट रिजल्ट में अक्सर इंजीनियर आगे निकलते हुए नजर आ रहे हैं. लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि आर्ट्स और कॉमर्स वालों का इसमें कोई स्कोप ही नहीं है. एमबीए इतना डायवर्स विषय है कि इसमें तीनों स्ट्रीम की जरूरत पड़ती है और तीनों ही स्ट्रीम वाले इसमें अपना सिक्का चला सकते हैं.

आईआईएम (IIMs) का बदला मिजाज: आंकड़ों की जुबानी

हालिया आंकड़ों ने पुरानी धारणाओं को काफी हद तक खत्म कर दिया है. आईआईएम कोझिकोड के लेटेस्ट बैच में लगभग 45% छात्र नॉन-इंजीनियरिंग बैकग्राउंड से हैं. वहीं, आईआईएम अहमदाबाद (IIM-A) के 2024-26 बैच में नॉन-इंजीनियर की संख्या 39% तक पहुंच गई है, जो पिछले कई सालों में सबसे अधिक है. बी-स्कूल अब जानबूझकर ऐसी ‘मिक्स’ क्लास बना रहे हैं, जहां एक डॉक्टर, एक वकील और एक इंजीनियर साथ बैठकर केस स्टडी हल करें.

‘डायवर्सिटी पॉइंट्स’: नॉन-इंजीनियर के लिए रेड कार्पेट

अगर आप नॉन-इंजीनियर हैं यानी बीटेक की टेक्निकल डिग्री नहीं है तो आपके पास एक ‘सीक्रेट वेपन’ है- एकेडमिक डायवर्सिटी पॉइंट्स. कैट (CAT) के स्कोर के बाद जब आईआईएम शॉर्टलिस्ट तैयार करते हैं तो आर्ट्स, कॉमर्स और ह्यूमैनिटीज के स्टूडेंट्स को उनके अलग बैकग्राउंड के लिए 2 से 5 अंक तक का बोनस मिलता है. इस सिस्टम से इंजीनियरिंग स्टूडेंट्स के’क्वांट’ (गणित) वाले स्वाभाविक फायदे को थोड़ा बैलेंस करने में मदद मिलती है.

स्किल्स का मुकाबला: लॉजिक बनाम क्रिएटिविटी

इंजीनियर्स की ताकत: इनका विश्लेषणात्मक दिमाग (Analytical Mind) डेटा इंटरप्रिटेशन और कॉम्प्लेक्स समस्याओं को सुलझाने में बेजोड़ होता है. ऑपरेशंस और सप्लाई चेन मैनेजमेंट में ये आज भी इनका कोई तोड़ नहीं है.

नॉन-इंजीनियरों की ताकत: कॉमर्स और आर्ट्स के छात्र अक्सर कम्युनिकेशन, प्रेजेंटेशन और ‘आउट ऑफ द बॉक्स’ सोचने में माहिर होते हैं, मार्केटिंग, एचआर और कंज्यूमर बिहेवियर जैसे विषयों में इनका प्रदर्शन अक्सर इंजीनियरों से बेहतर पाया गया है.

प्लेसमेंट का नया ट्रेंड: कौन मार रहा है बाजी?

जब बात सैलरी पैकेज की आती है तो फर्क मिट जाता है. गोल्डमैन सैक्स (Goldman Sachs) जैसी फाइनेंस कंपनियां अब सीए और इकोनॉमिक्स ग्रेजुएट्स को हाथों-हाथ ले रही हैं, जबकि गूगल (Google) और मेटा (Meta) जैसी टेक दिग्गज कंपनियां इंजीनियर-एमबीए का कॉम्बिनेशन पसंद करती हैं. हालांकि, टॉप कंसल्टिंग फर्म्स अब ‘इंजीनियर माइंड’ के साथ ‘आर्ट्स के नजरिए’ को ज्यादा महत्व दे रही हैं, जिससे वेतन के मामले में अब दोनों बराबर के खिलाड़ी हैं.

कॉर्पोरेट वर्ल्ड की मांग: हाइब्रिड लीडर्स

आज की कंपनियां किसी एक फील्ड के विशेषज्ञ के बजाय ‘हाइब्रिड लीडर’ चाहती हैं यानी वह ऐसे शख्स को हायर करना चाहती हैं, जो मल्टी टैलेंटेड हो. एक इंजीनियर जो कविता समझ सके और एक आर्ट्स ग्रेजुएट जो एक्सेल शीट पर डेटा को एनालाइज कर सके.. इसमें कोई दोराय नहीं है कि आज के जॉब मार्केट की असली जरूरत यही है. यही कारण है कि अब लड़ाई ‘इंजीनियर बनाम नॉन-इंजीनियर’ की नहीं, बल्कि ‘लर्निंग एप्टीट्यूड’ की रह गई है.

Read Full Article at Source