हम देखेंगे… फैज ने किसके खिलाफ गाई थी कविता? नागपुर में गुनगुनाने पर केस दर्ज

7 hours ago

Last Updated:May 21, 2025, 17:33 IST

Nagpur News in Hindi: नागपुर में फैज अहमद फैज की कविता "हम देखेंगे" गाने पर वीरा साथीदार की पत्नी पुष्पा सहित तीन लोगों पर मामला दर्ज हुआ. एफआईआर में भारत की संप्रभुता को खतरे में डालने का आरोप लगाया गया. पाकिस...और पढ़ें

हम देखेंगे… फैज ने किसके खिलाफ गाई थी कविता? नागपुर में गुनगुनाने पर केस दर्ज

फैज अहमद फैज की कविता पर खूब विवाद हो चुका है. (News18)

हाइलाइट्स

नागपुर में फैज अहमद फैज की कविता गाने पर केस दर्ज.भारत की संप्रभुता को खतरे में डालने का आरोप.फैज ने यह कविता जनरल जिया-उल-हक के खिलाफ लिखी थी.

नई दिल्‍ली. महाराष्‍ट्र के नागपुर में एक कार्यक्रम के दौरान मशहूर पाकिस्‍तानी शायर फैज अहमद फैज की कविता हम देखेंगे की कुछ पक्तियां गाए जाने पर नागपुर में दिवंगत अभिनेता वीरा साथीदार की पत्नी पुष्पा सहित तीन लोगों के खिलाफ मामला दर्ज किया गया. भारत की संप्रभुता, एकता और अखंडता को खतरे में डालने जैसे संगीन आरोप एफआईआर में लगाए गए. अब बड़ा सवाल यह है कि आखिर इस कविता में ऐसा क्‍या है जिसे गाए जाने पर महाराष्‍ट्र सरकार ने इतना कड़ा एक्‍शन लिया? यह कविता पाकस्तिानी शायर ने कब और किसके खिलाफ लिखी थी? चलिए हम आपको इसके बारे में विस्‍तार में बताते हैं.
फैज अहमद फैज की नज्‍म “हम देखेंगे” साल 1979 में लिखी गई थी. यह वो दौर था जब जनरल ज़िया-उल-हक़ का कट्टर इस्लामी सैन्य शासन पाकिस्तान पर छाया हुआ था. लोग जिया-उल-हक से बहुत ज्‍यादा त्रस्‍त थे. हिन्‍दू सहित अन्‍य धर्म के लोगों का तब पाकिस्‍तान में जीना बेहद मुश्किल हो गया था. इस कविता में धार्मिक प्रतीकों का इस्तेमाल करके तानाशाही के खिलाफ आवाज उठाई गई थी. और यही वजह बनी इसकी लोकप्रियता और विवाद दोनों की.

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की नज़्म “हम देखेंगे” जनरल ज़िया-उल-हक़ के शासन के खिलाफ प्रतिरोध का प्रतीक बनी, लेकिन इस कविता के कारण फ़ैज़ पर सीधे कोई सरकारी कार्रवाई (जैसे गिरफ्तारी या प्रतिबंध) नहीं की गई थी. हालांकि, उनका लेखन पहले से ही सत्ता को खटकता था.
ज़िया के दौर में पाकिस्तान में सेंसरशिप बेहद सख़्त थी और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को दबाने की कोशिशें काफी ज्‍यादा की जाती थी. ऐसे माहौल में “हम देखेंगे” जैसे शेर लोगों में उम्मीद और विरोध की भावना जगाते थे, इसलिए यह कविता सत्ता विरोधी माहौल में लोकप्रियता के बावजूद अक्सर दबाई जाती थी या मंच से हटाई जाती थी.
1986 में जब मशहूर गायिका इकबाल बानो ने यह नज़्म लाहौर के एक सरकारी आयोजन में जिया शासन के प्रतिबंध के बावजूद साड़ी पहनकर गाई, तो वो एक ऐतिहासिक सांस्कृतिक प्रतिरोध बन गया. इसके बाद जरूर कलाकारों और आयोजकों को परेशान किया गया, लेकिन फैज उस समय तक बुज़ुर्ग और वैश्विक ख्यातिप्राप्त कवि बन चुके थे. लिहाजा उन पर सीधा एक्शन लेने से सरकार बचती रही. फैज पर खुद कोई कानूनी कार्रवाई नहीं हुई, लेकिन उनकी कविता को दबाने और उससे जुड़ी आवाजों को रोकने की कोशिश जरूर हुई.

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Sandeep Gupta

पत्रकारिता में 14 साल से भी लंबे वक्‍त से सक्रिय हूं. साल 2010 में दैनिक भास्‍कर अखबार से करियर की शुरुआत करने के बाद नई दुनिया, दैनिक जागरण और पंजाब केसरी में एक रिपोर्टर के तौर पर काम किया. इस दौरान क्राइम और...और पढ़ें

पत्रकारिता में 14 साल से भी लंबे वक्‍त से सक्रिय हूं. साल 2010 में दैनिक भास्‍कर अखबार से करियर की शुरुआत करने के बाद नई दुनिया, दैनिक जागरण और पंजाब केसरी में एक रिपोर्टर के तौर पर काम किया. इस दौरान क्राइम और...

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