नई दिल्ली: कांग्रेस संसदीय दल की अध्यक्ष सोनिया गांधी से जुड़े एक पुराने मामले ने एक बार फिर कानूनी बहस को तेज कर दिया है. सवाल यह है कि जब सोनिया गांधी ने 30 अप्रैल 1983 को भारतीय नागरिकता हासिल की, तो उनका नाम 1980 में नई दिल्ली लोकसभा क्षेत्र की मतदाता सूची में कैसे शामिल हुआ? इसी मुद्दे पर अब दिल्ली की राऊज एवेन्यू कोर्ट में रिवीजन पिटीशन दाखिल की गई है. 9 दिसंबर को सुनवाई से पहले इस केस को लेकर राजनीतिक और कानूनी हलकों में चर्चा तेज हो गई है.
याचिका दाखिल करने वाला विकास त्रिपाठी का दावा है कि वोटर लिस्ट में नाम शामिल होने की तारीखें और नागरिकता प्राप्ति की तारीख मिलती नहीं हैं. उनका कहना है कि अगर 1980 की वोटर लिस्ट में नाम दर्ज था, तो यह पता लगाना जरूरी है कि तब किन डाक्यूमेंट के आधार पर नाम शामिल किया गया. कोर्ट अब यह तय करेगी कि क्या इस मामले में FIR दर्ज करने के आदेश दिए जाएं या नहीं.
क्या है मामला?
रिवीजन पिटीशन में कहा गया है कि सोनिया गांधी का नाम पहली बार 1980 की वोटर लिस्ट में दर्ज हुआ था. जबकि उन्हें भारतीय नागरिकता 1983 में मिली. याचिकाकर्ता का दावा है कि यह अंतर जांच की मांग करता है. याचिका के अनुसार 1982 में उनका नाम वोटर लिस्ट से हटाया गया और 1983 में दोबारा शामिल किया गया.
याचिका दाखिल करने वाले का तर्क है कि यदि 1980 में नाम शामिल किया गया, तो यह पता लगाना जरूरी है कि किन दस्तावेजों के आधार पर यह प्रक्रिया पूरी हुई. उनकी दलील है कि यह जांच यह समझने के लिए महत्वपूर्ण है कि कहीं किसी स्तर पर गलत जानकारी या गलत दस्तावेज़ों का उपयोग तो नहीं हुआ.
सोनिया गांधी लंबे समय से भारतीय राजनीति के केंद्र में रही हैं. (File Photo)
मजिस्ट्रेट कोर्ट ने क्यों खारिज की थी याचिका?
सितंबर 2025 में मजिस्ट्रेट कोर्ट ने इस याचिका को खारिज कर दिया था. कोर्ट ने कहा था कि मतदाता सूची और चुनाव से जुड़े मामलों में हस्तक्षेप करना संविधान के अनुच्छेद 329 का उल्लंघन होगा, क्योंकि यह क्षेत्र चुनाव आयोग और संवैधानिक संस्थाओं के अधिकार क्षेत्र में आता है.
कोर्ट का साफ कहना था कि ऐसी जांच शुरू करना मतलब उन क्षेत्रों में प्रवेश करना है, जहाँ कोर्ट को दखल नहीं देना चाहिए. इसी आदेश को चुनौती देते हुए अब रिवीजन पिटीशन दायर की गई है.
क्यों उठी फिर से जांच की मांग?
रिवीजन पिटीशन में कहा गया है कि मामला सिर्फ वोटर लिस्ट की तकनीकी प्रक्रिया का नहीं, बल्कि रिकॉर्ड की स्पष्टता का भी है. याचिकाकर्ता का कहना है कि-
1980 में नाम कैसे जुड़ा? जब नागरिकता 1983 में मिली, तो कौन से दस्तावेज़ लगाए गए थे? 1982 में नाम हटाने के पीछे क्या कारण थे? क्या पूरी प्रक्रिया की जांच आवश्यक है?इन सवालों पर कोर्ट से जांच की निगरानी और FIR दर्ज करने की गुजारिश की गई है.
कानूनी विशेषज्ञ क्या कहते हैं?
कई कानूनी जानकारों का मानना है कि यह मामला तकनीकी और संवैधानिक दोनों पहलुओं से जुड़ा है.
मतदाता सूची एक संवैधानिक प्रक्रिया है और इसमें नाम जोड़ना या हटाना चुनाव आयोग के अधिकार क्षेत्र में आता है. ऐसे मामलों में कोर्ट आमतौर पर तभी दखल देती है जब कोई सीधा आपराधिक पहलू सामने आए या भारी विसंगति दिखाई दे.
9 दिसंबर की सुनवाई इसलिए अहम मानी जा रही है क्योंकि कोर्ट को यह तय करना है कि यह मामला वास्तव में आपराधिक जांच योग्य है या यह चुनाव आयोग के अधिकार क्षेत्र का विषय है.
रिवीजन पिटीशन में कहा गया है कि सोनिया गांधी का नाम पहली बार 1980 की वोटर लिस्ट में दर्ज हुआ था. (फाइल फोटो)
राजनीतिक हलकों में चर्चा क्यों बढ़ी?
सोनिया गांधी लंबे समय से भारतीय राजनीति के केंद्र में रही हैं. ऐसे में उनसे जुड़ा कोई भी कानूनी मामला बड़ी राजनीतिक बहस का कारण बन जाता है. जहां याचिकाकर्ता इसे पारदर्शिता का सवाल बता रहे हैं, वहीं कांग्रेस इसे अनावश्यक विवाद करार दे सकती है. 9 दिसंबर की सुनवाई से पहले मामला फिर से सुर्खियों में आने लगा है.
आगे क्या? 9 दिसंबर की सुनवाई पर नजर
राऊज एवेन्यू कोर्ट अब यह देखेगी कि क्या मजिस्ट्रेट कोर्ट का आदेश सही था या जांच की जरूरत है. अगर कोर्ट FIR दर्ज करने का आदेश देती है, तो मामला आगे बढ़ेगा; अगर नहीं, तो यह विवाद यहीं खत्म हो सकता है. कानूनी हलकों की नजर इस बात पर है कि कोर्ट इसे कानूनी विसंगति मानती है या संवैधानिक प्रक्रिया का विषय.

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