सैकड़ों साल पहले ईरान से कौन सा धर्म भारत आया, फिर यहीं का हो गया,बनाया खुशहाल

3 hours ago

पारसी धर्म (Zoroastrianism) सैकड़ों साल पहले ईरान से भारत आया. जोरास्ट्रियन या पारसी धर्म विश्व के सबसे पुराने एकेश्वरवादी धर्मों में से एक है. इसकी स्थापना पैगंबर जरथुस्त्र ने प्राचीन फारस में लगभग छठी शताब्दी ईसा पूर्व में की थी. प्राचीन समय में ईरान को फारस या पर्शिया कहा जाता था. इसीलिए भारत आने के बाद फारस (पर्शिया) से आए इन लोगों को पारसी कहा जाने लगा.

अपनी स्थापना के बाद से पारसी धर्म को मध्य एशिया में स्वीकृति और शाही संरक्षण हासिल था. तीसरी शताब्दी में ससैनियन साम्राज्य के राज्य धर्म के रूप में स्थापित होने पर यह अपने चरम पर पहुंच गया. जब 652 ई. में अरब मुसलमानों के हाथों ससैनियन साम्राज्य का पतन हुआ तो हालात बदल गए. ज्यादातर पारसियों ने इस्लाम स्वीकार कर लिया, दूसरे चुपचाप अपने धर्म का पालन करते रहे और उन्हें अक्सर सताया गया. 7वीं शताब्दी में ईरान पर हुए इस्लामी आक्रमण के बाद जब नए मुस्लिम शासकों ने पारसियों पर जजिया कर लगाया और धार्मिक प्रतिबंध लागू करना शुरू कर दिया. 

भारत की ओर किया पलायन
तो कई पारसी धार्मिक उत्पीड़न से बचने के लिए अपने देश से पलायन करने लगे. फारस से कई जहाज भरकर पारसियों ने भारत की ओर पलायन किया. इन शरणार्थियों को बाद में पारसी के नाम से जाना गया. इनका पहला जत्था 936 ईं में सबसे पहले भारतीय उपमहाद्वीप के गुजरात के संजान में पहुंचा. इस तरह पारसियों के दो अलग-अलग समुदायों का समानांतर विकास शुरू हुआ, ईरानी और पारसी. भारत आने वाले पारसियों ने ईरानी पारसियों से अलग एक सांस्कृतिक पहचान बनाई.

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भारत आगमन से जुड़ी लोककथा
आधुनिक समय के पारसी भारत में जोरास्ट्रियन धर्म के आगमन की एक लोककथा सुनाते हैं. फारस से उनका जहाज जब  संजान पहुंचता है तो उनके पूर्वज स्थानीय राजा से मिलते हैं. दोनों लोगों की भाषा अलग थी, इसलिए बातचीत तो संभव नहीं थी.   लेकिन राजा ने शरणार्थियों को दूध का पूरा भरा गिलास दिया. यह दर्शाता था कि उनके लिए कोई जगह नहीं थी. पारसी लोगों ने दूध में एक चम्मच चीनी डालकर जवाब दिया. यह दिखाते हुए कि वे यहां के माहौल में घुलमिल जाएंगे और दूध के गिलास को बिना छलके मीठा कर देंगे. अंततः कुछ शर्तों के साथ पारसियों को भारत में बसने की अनुमति दी गई. सबसे पहले उनके पुजारियों ने राजा को अपना धर्म समझाया. राजा के अनुरोध पर सूर्यास्त के बाद विवाह किए जाने थे. साथ ही अप्रवासियों को स्थानीय भाषा बोलनी थी और महिलाओं को साड़ी पहननी थी.

ब्रिटिश शासन में की तरक्की
जब फारस में ईरानी अग्नि मंदिरों को मस्जिदों में बदला जा रहा था, तब पारसियों ने भारतीय उपमहाद्वीप में अग्नि मंदिर या  आगियारी स्थापित करना शुरू कर दिया था. अंतरजातीय विवाह का चलन ना होने और कम जन्म दर ने इस समुदाय को छोटा रखा. लेकिन जहां वे बसे उस क्षेत्र में उनका काफी योगदान था. इस छोटे धार्मिक समुदाय ने बड़ी आर्थिक सफलता का आनंद लिया. ब्रिटिश शासन के तहत पारसी समुदाय का विकास हुआ. 1800 के दशक की शुरुआत में बॉम्बे (अब मुंबई) में 10,000 से भी कम पारसी रहते थे. लेकिन उनके पास हिंदुओं या यूरोपीय लोगों की तुलना में अधिक कंपनियां थीं. वे शिक्षा और दान पर जोर देने के लिए भी जाने जाते थे. जिसमें लड़कियों के लिए स्कूलों की स्थापना भी शामिल थी.

ईरान में हुआ धार्मिक उत्पीड़न
जहां भारत आए पारसी समृद्ध हुए, वहीं ईरानी पारसी लोगों को काफी विपत्ति और धार्मिक उत्पीड़न का सामना करना पड़ा. जो विभिन्न राजवंशों के तहत अलग-अलग था. उमय्यद राजवंश में गैर-मुसलमानों के लिए पारसी लोगों को जजिया देना पड़ता था. तभी उनके व्यक्तिगत अधिकार बन रह सकते थे. जबकि काजर राजवंश के दौरान पारसी धर्म को मानने वालों का क्रूर और हिंसक तरीके से दमन किया गया. ईरान में पारसियों का जीवन अक्सर अपमान से भरा हुआ था.उनके लिए ऐसे नियम थे जो उन्हें घोड़े पर सवार होने, पूजा स्थल बनाने, विरासत प्राप्त करने, यहां तक कि छाता ले जाने या चश्मा पहनने से भी रोकते थे. फिर भी पारसी लोग सदियों की गरीबी, विपत्ति और क्रूरता का सामना करते हुए जीवित रहे. यह उनके अपने धर्म पर विश्वास की दृढ़ता का प्रमाण है.

सदियों तक दोनों देशों में सीमित संपर्क
सदियों से भारत और ईरान के पारसी समुदायों के बीच सीमित संपर्क था. धार्मिक मामलों में आदान-प्रदान 14वीं सदी के अंत से 17वीं सदी के अंत तक होता रहा. 19वीं सदी में भारत के पारसियों ने ईरानी पारसियों की मदद के लिए प्रयास शुरू किए. इसके लिए ‘सोसाइटी फॉर द एमिलियोरेशन ऑफ द कंडीशन्स ऑफ द जोरास्ट्रियन’ का निर्माण मुख्य था. 19वीं सदी के अंत से लेकर वर्तमान तक कुछ ईरानी भारत आकर बसने लगे. हालांकि ऐसे लोगों की संख्या काफी कम है. उनका मकसद अपने सह-धर्मियों के साथ ज्यादा मेहमाननवाज माहौल में रहना था. हालांकि, ज्यादातर समय तक दोनों समुदाय – जो सदियों से भौगोलिक, सांस्कृतिक और भाषाई रूप से अलग-अलग थे – ने अलग-अलग अनुष्ठान प्रथाओं का विकास किया और अलग-अलग धार्मिक कैलेंडर का पालन करना शुरू किया.

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आजादी के बाद हुआ पलायन
पिछले 60-70 सालों में पारसी समुदाय वैश्विक हो गया है. 1947 में भारतीय उपमहाद्वीप की स्वतंत्रता और बंटवारे के बाद नए बने राष्ट्रों में अवसरों में गिरावट आई. इसकी वजह से पारसियों का पलायन शुरू हुआ. आर्थिक और शैक्षिक अवसरों की तलाश में काफी पारसी ग्रेट ब्रिटेन में बस गए. सीमित संख्या में पारसियों ने अमेरिका और दुनिया के अन्य हिस्सों में पलायन करना शुरू कर दिया. 1979 में इस्लामी क्रांति के बाद ईरानी पारसी लोगों ने पलायन करना शुरू कर दिया, जिनमें से अधिकांश अमेरिका चले गए. आज हालांकि उनकी संख्या 200,000 से कम है. लेकिन पारसी दुनिया भर में फैले हुए हैं. ईरान और भारत में ये समुदाय अभी भी जीवित है. दुनिया भर में प्रवासी पारसी लोग नए घरों में अपनी खास धार्मिक पहचान स्थापित करने में सक्रिय रूप से लगे हुए हैं. आज दुनिया भर में मौजूद पारसियों का एक बड़ा हिस्सा भारत में विशेषकर मुंबई और गुजरात में रहता है. 

भारत की तरक्की में योगदान
भारत में पारसी समुदाय ने देश के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया है .पारसी समुदाय को भारत में औद्योगिक क्रांति का श्रेय दिया जाता है. उन्होंने 19वीं और 20वीं शताब्दी में कई महत्वपूर्ण उद्योगों की नींव रखी, जिनमें कपड़ा मिलें, स्टील मिलें, बिजली संयंत्र और बैंक शामिल हैं. उन्होंने आधुनिक तकनीकों को अपनाया और भारत को एक औद्योगिक राष्ट्र बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. पारसियों को व्यवसाय में महारत हासिल है. उन्होंने दुनियाभर के देशों के साथ व्यापारिक संबंध बनाए और भारतीय अर्थव्यवस्था को मजबूत किया. पारसी समुदाय ने शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल और ग्रामीण विकास जैसे कई सामाजिक कार्यों के लिए अपना समय और संसाधन समर्पित किए हैं. उनके दानशील प्रयासों ने लाखों लोगों के जीवन को संवारा है.

विकास में योगदान देने वाली कुछ प्रमुख पारसी हस्तियां इस प्रकार हैं…

जमशेदजी टाटा: इन्हें भारतीय उद्योग का जनक माना जाता है. उन्होंने टाटा समूह की नींव रखी, जिसने भारतीय अर्थव्यवस्था को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. 

रतन नवल टाटा: टाटा समूह के पूर्व अध्यक्ष, जिन्होंने अपने नेतृत्व में समूह को नई ऊंचाइयों पर पहुंचाया और भारत के व्यावसायिक परिदृश्य को बदल दिया. 

दादाभाई नौरोजी: ओल्डमैन ऑफ इंडिया के रूप में जाने जाते हैं. वह एक प्रमुख राजनीतिक कार्यकर्ता, शिक्षाविद् और अर्थशास्त्री थे. वह ब्रिटिश संसद के सदस्य बनने वाले पहले भारतीय थे और उन्होंने भारत की गरीबी और ब्रिटिश शासन के आर्थिक शोषण पर महत्वपूर्ण प्रकाश डाला.

होमी जे. भाभा: इन्हें भारत के परमाणु कार्यक्रम का जनक माना जाता है. उन्होंने भारत को परमाणु ऊर्जा के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया.

अर्देशिर गोदरेज: गोदरेज समूह के संस्थापक, जिन्होंने भारतीय ताला उद्योग में अग्रणी भूमिका निभाई और विभिन्न उत्पाद श्रेणियों में अपने व्यापार साम्राज्य का विस्तार किया.

रुस्तमजी होरमुसजी मोदी (आर.एच. मोदी): टाटा स्टील के अध्यक्ष और प्रबंध निदेशक रहे. इन्होंने भारतीय इस्पात उद्योग में महत्वपूर्ण योगदान दिया.

साइरस पूनावाला: सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया के संस्थापक. इस इंस्टीट्यूट ने कोविड-19 महामारी के दौरान वैक्सीन उत्पादन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और देश की अर्थव्यवस्था को सहारा दिया.

फाली एस. नरिमन: एक प्रख्यात कानूनी विद्वान और न्यायविद. उन्होंने भारतीय न्याय प्रणाली में महत्वपूर्ण योगदान दिया.

रुस्तमजी बहरीरामजी बिलिमोरिया (आर. बी. बिलिमोरिया): समाजसेवी और मशहूर उद्यमी.

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