Last Updated:December 10, 2025, 18:20 IST
Konark Sun Temple: कोणार्क सूर्य मंदिर का हॉल 122 साल एएसआई द्वारा खोला जा रहा है. एएसआई इसकी रेत हटाकर मरम्मत का काम करेगा. बाद में इसमें पर्यटक तो अंदर जा सकेंगे, लेकिन पूजा की इजाजत नहीं होगी.
अब भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) द्वारा इसे खोलने और नवीनीकरण की प्रक्रिया चल रही है. कोणार्क सूर्य मंदिर (Konark Sun Temple) ओडिशा के पुरी के पास स्थित 13वीं शताब्दी का प्रसिद्ध हिंदू मंदिर है. इस मंदिर का विशाल पत्थर की छत वाला मुख्य हॉल यानी मंडप लगभग 122 सालों से बंद है. 19वीं सदी के अंत में मंदिर की दीवारों और छत में दरारें आ गई थीं और अंग्रेजों को डर था कि यह ढह सकता है. मंदिर के अधिकारियों और ब्रिटिश शासन ने यह माना कि अंदर रेत भरने से मंदिर के ऊपरी हिस्से का भार अंदर से संतुलित हो जाएगा और यह सुरक्षित रहेगा. इसलिए उन्होंने चारों प्रवेश द्वारों को बंद करके रेत भर दी. ताकि अंदर के स्ट्रक्चर पर दबाव न पड़े और वह स्थिर रहे. बिना सीमेंट के बने इस प्राचीन स्ट्रक्चर को बचाना जरूरी था. यह एक अस्थायी उपाय था जिसे कभी हटाया नहीं गया. अब भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (ASI) द्वारा इसे खोलने और नवीनीकरण की प्रक्रिया चल रही है.
क्या है इस हॉल का नाम
कोणार्क सूर्य मंदिर ओडिशा के पुरी जिले में बंगाल की खाड़ी के किनारे स्थित है. मंदिर का बंद भाग नाट्यशाला (नृत्य मंडप या जगमोहन) कहलाता है. यह मुख्य मंदिर का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है. यह मंडप 128 फीट ऊंचा है और मूल रूप से नाट्य प्रदर्शन के लिए बनाया गया था. कभी-कभी इसे मुख्य मंडप या गर्भगृह से जुड़ा भाग भी कहा जाता है, लेकिन प्रमुखतः नाट्यशाला ही इसका नाम है. यहां सूर्य देव की मूर्ति स्थापित थी. यह मंदिर कभी अनुष्ठान, खगोल विज्ञान और राजसी शक्ति का केंद्र हुआ करता था. सदियों से चक्रवातों, नमक से भरी हवाओं, रेत के बहाव और जलवायु परिवर्तन से जुड़ी तटीय नमी ने इसको कमजोर कर दिया है. इसलिए अंग्रेजों ने 1903 में स्ट्रक्चर को क्षतिग्रस्त होने से बचाने के लिए इसे रेत और पत्थरों से भरकर बंद कर दिया था.
पश्चिमी दीवार में किया पहला छेद
टीओआई की एक रिपोर्ट के मुताबिक एएसआई ने इस सप्ताहांत भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के इंजीनियरों ने मंडप यानी जगमोहन की पश्चिमी दीवार में एक संकरा छेद करना शुरू कर दिया है. यह ड्रिलिंग रेत को हटाने और यह उजागर करने की लंबे समय से चली आ रही योजना में एक निर्णायक कदम है कि सालों से छिपी नमी और दबाव ने भारत के सबसे प्रसिद्ध पवित्र वास्तुकला कृतियों में से एक को कितना नुकसान पहुंचाया होगा. सबसे पहले पश्चिमी दीवार में छेद किया जा रहा है. यह वही स्थान है जहां कभी ब्रिटिश शासनकाल के इंजीनियरों ने बंगाल के तत्कालीन लेफ्टिनेंट गवर्नर सर जॉन वुडबर्न के आदेश पर ढहते हुए हॉल में रेत डाली थी.
किसको है इस पहल का श्रेय
इस पहल का श्रेय तत्कालीन केंद्रीय संस्कृति मंत्री प्रह्लाद सिंह पटेल को जाता है. उनके निर्देश पर ही एक एजेंसी को आंतरिक क्षति का आकलन करने का जिम्मा सौंपा गया था. उस अवधि के दौरान एएसआई ने एक विशेष प्लेटफॉर्म बनाया, जिसे विशेषज्ञों द्वारा स्मारक को अस्थिर किए बिना रेत निकालने के लिए डिजाइन किया गया था. टीओआई के मुताबिक एएसआई के एक अधिकारी ने बताया कि मौजूदा चरण में बड़े पैमाने पर खुदाई शुरू करने से पहले दीवार की छिपी हुई मजबूती का परीक्षण करने के लिए कोर ड्रिलिंग की जा रही है. अधिकारी ने कहा, “अगला चरण एक पॉकेट या ढांचा बनाना होगा जिसके माध्यम से रेत निकालने के लिए एक सुरंग खोदी जाएगी. यह दीवार का शुरुआती आकलन है क्योंकि इसकी स्थिति और स्थिरता के बारे में कोई रिकॉर्ड उपलब्ध नहीं है.”
70 साल पहले भी हुई थी कोशिश
यह अभियान लगभग 70 साल पहले पहली बार उभरे डर को फिर से जगाता है. टीओआई के मुताबिक 1950 के दशक के मध्य में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण की पूर्व महानिदेशक डॉ. देबाला मित्रा ने सीलबंद हॉल के अंदर जांच का काम किया था. उनके अध्ययनों से पता चला कि बंद हॉल के अंदरूनी हिस्से में रिसने वाले बारिश के पानी से लगातार नमी के कारण काई लग गयी थी. उन्होंने कहा था कि यह नमी स्मारक की रीढ़ बने खोंडालाइट पत्थर के डिकंपोजिशन को तेज कर रही थी. 2019 में रुड़की स्थित सेंट्रल बिल्डिंग रिसर्च इंस्टीट्यूट द्वारा स्ट्रक्चर की जांच करने पर उन चेतावनियों की पुष्टि हुई.
स्ट्रक्चर मजबूत करने पर जोर
उनकी रिपोर्ट में पाया गया कि हॉल के अंदर की रेत लगभग 12 फीट नीचे धंस गई थी और हॉल के ऊपरी हिस्से से पत्थर के ब्लॉक पहले ही उखड़ कर गिरने लगे थे. रेत और मलबे को हटाने के बाद स्ट्रक्चर को स्टेनलेस स्टील, लोहे की छड़ों और रासायनिक इंजेक्शन से मजबूत किया जाएगा. ताकि 128 फीट ऊंचा स्ट्रक्चर स्थिर रहे. यह काम 2026 तक चलेगा, जिसमें लेजर स्कैनिंग और 3D मैपिंग से नुकसान का आकलन किया गया.
अंदर जा सकेंगे, लेकिन पूजा की इजाजत नहीं
काम पूरा होने पर दरवाजे खोले जाएंगे, पर्यटक अंदर प्रवेश कर सकेंगे. लेकिन पूजा नहीं होगी क्योंकि यह अब स्मारक है. कुछ लोगों का मानना है कि मंदिर में कभी पूजा नहीं हुई, लेकिन यह गलत है. इस मंदिर में लगभग 300 सालों तक पूजा हुई और यह 1628 के आसपास बंद हुई जब सूर्य देव की मूर्ति को जगन्नाथ मंदिर ले जाया गया. एएसआई और ओडिशा सरकार की निगरानी में यह सुनिश्चित हो रहा है कि प्राचीन वास्तुकला सुरक्षित रहे.
Location :
New Delhi,Delhi
First Published :
December 10, 2025, 18:20 IST

5 hours ago
