फूड डिप्लोमेसी से अकबर ने जोड़ा तो औरंगजेब ने दूर किया, शाहजहां ने दिखाई ताकत

1 hour ago

मुगल बादशाहों के लिए खाना सिर्फ़ स्वाद या शौक नहीं था, बल्कि सत्ता, संस्कृति और कूटनीति का भी अहम औज़ार था. फूड डिप्लोमेसी को वो बखूबी इस्तेमाल करते थे. मुगल दरबार में दी जाने वाली दावतें राजनीतिक भाषा बोलती थीं. फूड डिप्लोमेसी के जरिए ना केवल वो दोस्ती बनाते थे. नए संबंध विकसित करते थे. साथ ही लोगों की हैसियत भी तय करते थे.

मुगलों की फूड डिप्लोमेसी कई तरह से होती थी. अगर किसी को बादशाह के करीब बैठाकर ,सोने – चांदी के बर्तन में खास व्यंजन परोसे गए तो ये संकेत था कि वह सत्ता के भीतर है. कुल मिलाकर मुगल फूड डिप्लोमेसी आधुनिक “गैस्ट्रो डिप्लोमेसी” की पूर्ववर्ती रूप थी, जहां भोजन से न सिर्फ पेट भरा जाता था, बल्कि दिल और राज्य भी जीते जाते थे.

दावतें उनका कूटनीतिक मंच थीं

मुगल बादशाह जमीन पर दस्तरख्वान बिछाकर भोजन करते थे, जो फारसी-भारतीय शैली का मिश्रण था. दावत में बैठने की जगह, परोसने का तरीका और भोजन की मात्रा से रैंक और सम्मान दिखाया जाता था. ऊंचे मेहमानों को बेहतरीन व्यंजन और जगह मिलती थी.

मुगलों के लिए शाही दावतें कूटनीतिक मंच थीं. दावत में शामिल होने वालों को खाने के ज़रिये सत्ता-क्रम यानि हाइयार्की समझायी जाती थी. यानि एक तरह के प्रोटोकॉल को इसके जरिए जाहिर करते थे. ये पहले से तय होता था कि इसमें कौन कहां बैठेगा और क्या खाएगा. अकबर के दरबार में एक औसत शाही दावत में 40–50 प्रकार के व्यंजन होते थे.

मुगल बादशाह विदेशी दूतों, राजपूत सरदारों, अमीरों और पड़ोसी राज्यों के प्रतिनिधियों को आलीशान दावतें देते थे. ये दावतें धन-दौलत, शक्ति और उदारता का प्रदर्शन करती थीं. दावत में मल्टी-कोर्स भोजन, विदेशी मसाले, मीट और फल परोसे जाते थे. इसके जरिए एक अलग तरह के संंबंध बनते थे.

अगर किसी को दावत से बाहर कर दिया जाता था तो इसके जरिए भी उसको राजनीतिक संदेश दिया जाता था. मुगल बादशाह जानते थे कि “जिसके साथ आप खाते हैं, वही आपकी सत्ता के घेरे में आता है.”

अकबर की फूड डिप्लोमेसी सबसे अलग

अकबर ने भोजन को धार्मिक और जातीय विभाजन तोड़ने के लिए इस्तेमाल किया. मुगल बादशाह विदेशी दूतों के सामने अपनी वैश्विक हैसियत दिखाने के लिए भी भोज समारोहों और खाने का इस्तेमाल करते थे. उनके भोज समारोहों में फारसी, तुर्की और मध्य एशियाई व्यंजन परोसे जाते थे. फिर इन व्यंजनों का भारतीय खाने के साथ फ्यूजन होने लगा. उन खानों में केसर, सूखे मेवे, सुगंधित चावल के साथ उस जमाने के दुर्लभ मसालों मसलन इलायची, दालचीनी और जायफल का मिश्रण होता था. इसके जरिए वो साफ संदेश देते थे कि हम केवल हिंदुस्तान के नहीं, दुनिया के बादशाह हैं.

अकबर ने जानबूझकर स्थानीय भोजन को शाही रसोई में जगह दी. उसके शाही किचन में घी, दाल और चावल के आगमन ने राजपूत प्रभाव को जाहिर किया तो जैन प्रभाव ये जाहिर करता था कि रसोई में अक्सर मांस नहीं बनता था. फारसी और भारतीय प्रभाव ने मिलकर मुगलई भोजन की आधारशिला रखी. अकबर ने अक्सर राजपूत सरदारों को शाही दावतों में विशेष स्थान दिया. इसमें शाकाहारी और मांसाहारी दोनों व्यंजन होते थे ताकि सभी राजपूत और मुगल स्वाद को संतुष्ट किया जा सके.

अकबर की कुछ दावतों में मांस को बिल्कुल निषिद्ध रखा जाता था. खास अवसरों पर शुद्ध शाकाहारी व्यंजन परोसे जाते थे. इसके जरिए वो सांस्कृतिक और धार्मिक सम्मान का संकेत देता था, जो विश्वास और गठबंधन को मजबूत करता था.

जहांगीर से औरंगजेब तक क्या हुआ

जहांगीर के समय फूड डिप्लोमेसी व्यक्तिगत नेटवर्किंग में बदली. हर कोई दावत में नहीं बुलाया जाता था. शाही शराब और व्यंजन सिर्फ़ खास लोगों को मिलता था. तब जो बादशाह के भोज समारोह में शामिल किया जाता था, उसे सत्ता के करीब माना जाता था. जहांगीर ने खुद लिखा है कि वह किसे दावत में बुलाता था और किसे नहीं.

शाहजहां भव्य भोज समारोहों के जरिए राजनीतिक प्रदर्शन करता था. मेगा दावतें देता था. जिसमें सैकड़ों व्यंजन, सोने-चांदी के बर्तन होते थे. विदेशी मेहमानों के लिए ये चकाचौंध वाला आयोजन होता था. ये संदेश दिया जाता था कि मुगल साम्राज्य अजेय और अपार समृद्ध है. यूरोपीय यात्रियों ने इन दावतों को “राजसी ओवरडोज़” कहा. राजपूत सम्मान बना रहा लेकिन भावनात्मक साझेदारी घट गई.

औरंगजेब के समय में खाना धार्मिक और नैतिक सीमा का प्रतीक माना गया. दरबार की दावतें सीमित और सादगी वाली होती थीं. संगीत, शराब और भव्य भोज से दूरी हो गई थी. वह खुद भी निजी जीवन में सादा भोजन करता था. औरंगज़ेब ने शाही खर्चों में कटौती की. शाकाहारी दावतें अब राजनीतिक रणनीति नहीं रहीं थीं. इस वजह से राजपूत-मुगल रिश्तों में ठंडापन आने लगा.

जब शाही रसोई से किसी को खाना भेजा जाता था

इसी तरह बादशाह की रसोई से लोगों को भेजा जाने वाला खाना भी एक तरह से डिप्लोमेसी का प्रदर्शन होता था. किसी अमीर को शाही रसोई से खाना भेजने का मतलब होता था कि उन पर मुगल बादशाहों की खास कृपा है. मुगल भोजन को उपहार के रूप में भेजकर मित्रता, शक्ति और सद्भाव का संदेश देते थे, जो कूटनीतिक शिष्टाचार का हिस्सा था. अकबर के समय में खाने यानि फूड डिप्लोमेसी ने पड़ोसी राज्यों और यूरोपीय शक्तियों से संबंध मजबूत करने का काम किया.

मुगल बादशाह अपने शाही किचन से भोजन को व्यवस्थित रूप से वितरित करते थे, जिसमें दरबारियों, सैनिकों और आम जनता तक पहुंच शामिल थी. राजकीय रसोई रोज करीब 20,000 लोगों को भोजन उपलब्ध कराती थी, जो सामाजिक सद्भाव का प्रतीक भी था.​ ये वितरण आगरा किले या लाल किले से किया जाता था.

फल और पकवानों के तोहफे

फल खासकर आम, तरबूज, अंगूर और मीठे पकवान गिफ्ट के रूप में दिए जाते थे, जो दोस्ती, शांति या गठबंधन का प्रतीक होते थे. फलों को राजनैतिक प्रोटोकॉल का हिस्सा माना जाता था. आम को तो “मैंगो डिप्लोमेसी” कहा जाता है – हुमायूं और जहांगीर आम के बहुत शौकीन थे. इसे गिफ्ट करके राजनीतिक लाभ लेते थे. बाबर को फल गिफ्ट मिलने पर खुशी होती थी, क्योंकि यह उनकी मध्य एशियाई जड़ों की याद दिलाता था.

खाने पीने की चीजों का राजनीतिक उपहार की तरह इस्तेमाल होता था. मसलन मुगलों के पास ईरान से शराब आती थी तो काबुल से सूखे मेवे और फल. इसी तरह कश्मीर से केसर. वो इन्हें मेहमानों या सहयोगियों को देते थे. ये फूड गिफ्ट डिप्लोमेसी का हिस्सा था.

सांस्कृतिक और राजनीतिक संदेश

भोजन के जरिए कई संस्कृतियों के मेलजोल को दिखाया जाता था – फारसी, तुर्की, अफगान और भारतीय व्यंजनों का फ्यूजन. अकबर ने राजपूत गठबंधनों से शाकाहारी व्यंजन अपनाए, जो हिंदू-मुस्लिम एकता का प्रतीक था. दावतें और गिफ्ट्स से दुश्मनी को दोस्ती में बदला जाता था, जैसे शाह हुसैन मिर्जा ने हुमायूं को फल और चीनी भेजकर समझौते और दोस्ती का प्रस्ताव रखा.

कौन कैसी दावत पसंद करता था

बाबर फलों और ग्रिल्ड मीट की दावतें पसंद करता था, जो उसकी मध्य एशियाईआ जड़ों से जुड़ी थी. हुमांयू ईरान में शरण लेते समय फारसी दावतों से प्रभावित हुआ था, जब वह भारत लौटा और उसने गद्दी संभाली तो उसने उसी शैली की दावतों को अपनाया. अकबर ने फूड डिप्लोमेसी का सबसे ज्यादा इस्तेमाल किया. राजपूतों से शादियां कीं. उनके साथ दावतें करके साम्राज्य को मजबूत किया.जहांगीर और शाहजहां ने आम और विदेशी फलों को उपहार ले-देकर राजनीतिक लाभ लिया.

अकबर ने भोजन से साम्राज्य बनाया. जहांगीर ने भोजन से दरबार चलाया. शाहजहां ने भोजन से साम्राज्य दिखाया. औरंगज़ेब ने भोजन से सीमाएं तय कीं.यही वजह है कि अकबर का दौर “सबसे स्थिर” माना जाता है. औरंगज़ेब के बाद गठबंधन राजनीति कमजोर पड़ती है.

मुगलों और ब्रिटिशर्स दोनों ने फूड डिप्लोमेसी की लेकिन मुगलों ने अगर भोजन से लोगों को सत्ता के भीतर खींचा, ब्रिटिशों ने भोजन से लोगों को सत्ता से दूर रखा. मुगलई खाना अब भारतीय संस्कृति का हिस्सा बन चुका है.

सोर्स
1. बाबरनामा – बाबर की आत्मकथा
2. आइन-ए-अकबरी – अबुल फजल द्वारा
3. तुजुक-ए-जहांगीरी – जहांगीर के संस्मरण वाली किताब
4. “A History of Mughal Cuisine through Cookbooks” (The Heritage Lab)
5. Food in the Domain of Politics” (Enroute Indian History)
6. “Mughal Conquests and Diplomacy Wrapped in a Love of Mangoes” (Dhaara Magazine) – मैंगो डिप्लोमेसी के ऐतिहासिक उदाहरण।
7. “The History of Mughal Cuisine” (Tastepak.com)
8. Curry: A Tale of Cooks and Conquerors
9.और के.टी. आचाया की किताबें
10. Satish Chandra, Medieval India
11. Ruby Lal, Domesticity and Power in the Early Mughal World
12. François Bernier, Travels in the Mughal Empire
13. Niccolao Manucci, Storia do Mogor

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