ऐसे समय में जब पड़ोसी देश नेपाल अंदरूनी असंतोष के चलते सुलग रहा है, भारत में कुछ नेता और सोशल मीडिया के 'सिकंदर' पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को कोसने लगे हैं. उनका दावा है कि नेपाल को भारत का एक प्रांत बनाने का सुनहरा ऑफर नेहरू ने ठुकरा दिया था और ऐसा कर उन्होंने अदूरदर्शिता का परिचय दिया. कई लोग इसे एजेंडा बता रहे हैं तो कुछ लोग कन्फ्यूज हैं कि यह सच्चाई कौन बताएगा कि उस समय असल में क्या हुआ था? उस समय का कोई भी शख्स जीवित तो नहीं है लेकिन एक-एक कर इतिहास और सरकारी रिकॉर्ड के साथ-साथ पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के किताब की एक लाइन पढ़कर चीजें स्पष्ट हो जाती हैं. शुरू से शुरू करते हैं.
भाजपा नेता, पूर्व कैबिनेट मंत्री, पूर्व प्रोफेसर सुब्रमण्यम स्वामी ने 4 जून 2020 को एक ट्वीट किया था. इसमें वह लिखते हैं कि नेपाल के राणा (शासक) ने 1950 में भारत में मर्ज होने का ऑफर दिया था लेकिन नेहरू ने ठुकरा दिया. उनके ट्वीट पर डीएनए की एक न्यूज रिपोर्ट शेयर की गई है जिसमें आरएसएस के तत्कालीन प्रमुख केएस सुदर्शन का बयान छपा है. पूर्व संघ प्रमुख ने भी नेहरू पर यही आरोप लगाए थे.
Today another folly of Nehru emerges from historical records: When the Ranas ruled Nepal, and Nepal royalty was in India. the Rana rulers like other rajas in India offered to merge in India in 1950. Nehru declined!! A genetic flaw runs in one family--so banish family rule
— Subramanian Swamy (@Swamy39) June 4, 2020प्रणब मुखर्जी ने क्या लिखा है?
253 पन्ने की प्रणब दा की किताब द प्रेसिडेंशियल ईयर्स के 11वें चैप्टर के पेज नंबर 136 पर लिखा है कि नेपाल के राजा त्रिभुवन बीर बिक्रम शाह ने नेहरू को सुझाव दिया था कि नेपाल भारत का एक प्रांत बन सकता है लेकिन नेहरू इस आधार पर प्रस्ताव ठुकरा दिया कि नेपाल एक स्वतंत्र देश है और इसे बने रहना चाहिए.
अब ब्रिटिश काल में लौटते हैं
भारत और नेपाल के संबंध और खासतौर से 1950 की संधि के संदर्भ में काशी हिंदू विश्वविद्यालय की शोध छात्रा स्नेहा पटेल ने पीएचडी की है. उन्होंने 1950 के समय का बारीक विश्लेषण किया है. उनके शोध के मुताबिक ब्रिटिश सरकार ने भारत में अपने राज के समय यह कभी नहीं चाहा कि चीन के साथ उनकी साझा सीमा हो. यह एक बड़ी वजह थी कि ब्रिटिश सरकार ने नेपाल को अपने साम्राज्य में नहीं मिलाया. इस कारण नेपाल, चीन और ब्रिटिश भारत के बीच बफर स्टेट के रूप में भूमिका निभाता था. 1950 की संधि होने से पहले तक भारत ने अंग्रेजों की नीतियों का ही अनुसरण किया. ब्रिटिशों ने 1923 की संधि की थी जिसे स्टैंडस्टिल समझौते के तहत भारत ने जारी रखा. 1950 के आसपास का दौर नेपाल की आतंरिक राजनीति के लिए काफी उथल-पुथल भरा रहा. नेपाल में उस समय राणाशाही थी जिसे जनता हटाना चाहती थी.
भारत के स्वतंत्रता आंदोलन से प्रेरित होकर नेपाली जनता राणा सरकार के खिलाफ क्रांति की योजना बनाने लगी. राणा सरकार को अपनी सत्ता बचाने के लिए भारत के समर्थन की जरूरत थी क्योंकि यह एक तथ्य रहा है कि नेपाल में सरकार निर्माण में भारत का प्रभाव रहता है. नेपाल के लोगों में यह भावना रही है कि भारत ने इस स्थिति का लाभ उठाते हुए नेपाल पर यह संधि थोप दी.
— Mohit Chauhan (@mohitlaws) September 10, 20251950 की शांति एवं मैत्री संधि जुलाई 1950 में हुई और इसमें 10 अनुच्छेद हैं. यहां पहले और दूसरे अनुच्छेद से ही काफी चीजें साफ हो जाती है. अनुच्छेद 1 के मुताबिक, 'भारत और नेपाल सरकार के बीच शांति एवं मैत्री बनी रहेगी. दोनों देश एक दूसरे के पूर्ण संप्रभुता, क्षेत्रीय अखंडता और स्वतंत्रता का आदर करेंगे.' खास बात यह है कि ब्रिटिश भारत और नेपाल के बीच 1816 की सुगौली संधि और 1923 की संधि में भी शामिल थी.
दूसरे अनुच्छेद में कहा गया है कि अगर किसी भी पड़ोसी राज्य के साथ कोई गंभीर मतभेद होते हैं जो भारत और नेपाल के संबंधों को हानि पहुंचाए तो दोनों देश एक दूसरे को सूचित करेंगे. इस संधि पर नेपाल के तत्कालीन प्रधानमंत्री मोहन शमशेर राणा ने हस्ताक्षर किया था और भारत की तरफ से राजदूत चंद्रेश्वर नारायण सिंह ने. उस समय ही सवाल उठे थे कि भारत, नेपाल को एक संपूर्ण संप्रभु देश के रूप में नहीं देखता इसीलिए उसने राजदूत को संधि पर हस्ताक्षर करने के लिए चुना. आगे कहा गया कि अगर नेपाली सरकार के प्रमुख ने हस्ताक्षर किया तो क्या भारत की ओर से नेहरू को इस पर हस्ताक्षर नहीं करना चाहिए था? क्या यह स्पष्ट संकेत नहीं है कि भारत नेपाल को पूर्ण रूप से संप्रभु देश नहीं मानता? आगे चलकर माओवादियों ने भी इस बात को जोरशोर से उठाया.
नेपाल में शुरू से ही इस संधि में संशोधन की मांग की जाती रही है. मुख्य कारण यह है कि जिस राणा सरकार ने संधि पर साइन किया वह एक साल के भीतर ही सत्ता से बेदखल हो गए. राणाशाही एक निरंकुश सरकार थी, जिसने अपनी सत्ता को बचाए रखने के लिए 1950 की संधि पर हस्ताक्षर किए थे.
विदेश मंत्रालय पर संधि का ब्यौरा पढ़िए
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नेहरू वाला एंगल कहां से आया?
1951 में राजा त्रिभुवन नेपाल लौटते हैं और राणा शासकों को हटाकर नेपाल में संवैधानिक राजतंत्र प्रणाली के तहत लोकतंत्र आता है. एक रिपोर्ट में जेएनयू के पूर्व प्रोफेसर एसडी मुनि का बयान छपा है. वह कहते हैं कि राणा नहीं, राजा त्रिभुवन ने एक संघ बनाने का प्रस्ताव रखा था लेकिन भारत और नेपाल के विलय जैसी बात होने के कोई प्रमाण नहीं मिलते हैं. प्रोफेसर मुनि कहते हैं कि भारतीय विदेश मंत्रालय के पास भी इस बात को साबित करने के लिए कोई दस्तावेज नहीं है. जो चीजें मुंहजबानी कही जा रही हैं उसका कोई प्रमाण नहीं है.
प्रोफेसर मुनि कहते हैं कि यह सच है कि राजा त्रिभुवन भारत के साथ बेहद करीबी संबंध चाहते थे लेकिन नेहरू का मत था कि नेपाल इंडिपेंडेट रहे नहीं तो ब्रिटिश और अमेरिकियों का दखल बढ़ेगा और परेशानियां पैदा होने लगेंगी. एक शोध में त्रिभुवन के प्रस्ताव पर जब पूछा गया तो प्रोफेसर मुनि ने कहा कि यह कोई औपचारिक प्रस्ताव नहीं था हो सकता है ऐसी सोच रही हो. इससे इतर, दावा किया जाता है कि एक लेटर नेपाल से नेहरू के पास आया था. भारत में नेपाल के पूर्व राजदूत डॉ. लोक राज बराल इस तरह के प्रस्ताव को अफवाह मानते हैं.
आखिर में यह समझ में आता है कि चीजें काफी अस्पष्ट हैं. 1950 में राणा का शासन था. दावा किया जाता है कि तब विलय का प्रस्ताव आया था. जबकि नेपाली लोग राणा को भारत से संधि करने के लिए कोसते हैं. एक्सपर्ट इसे अफवाह मानते हैं फिर यह भी कहते हैं कि राणा नहीं, राजा त्रिभुवन ने शायद ऐसा सोचा हो, औपचारिक प्रस्ताव के प्रमाण बिल्कुल नहीं मिलते.
Written By Anurag Mishra|Last Updated: Sep 10, 2025, 08:36 PM IST