Last Updated:October 25, 2025, 12:21 IST
Seeding Deliver: दिल्ली-एनसीआर में प्रदूषण कम करने के लिए क्लाउड सीडिंग की योजना है. जानें इसके लिए कितने विमानों की जरूरत पड़ेगी, क्या है ये तकनीक और क्या हैं इसके फायदे और नुकसान.
24 अगस्त, 2022 को संयुक्त अरब अमीरात में अल ऐन और अल हायर के बीच राष्ट्रीय मौसम विज्ञान केंद्र द्वारा संचालित क्लाउड सीडिंग उड़ान के दौरान हाइग्रोस्कोपिक फ्लेयर्स जारी किए गए. फाइल फोटो/ रॉयटर्सCan Cloud Seeding Deliver Cleaner Skies: हर साल की तरह दिल्ली फिर से घुटन से जूझ रही है. राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) में दिवाली के बाद वायु गुणवत्ता ‘गंभीर’ श्रेणी में पहुंचने के बाद शनिवार (25 अक्टूबर) को राष्ट्रीय राजधानी में वायु गुणवत्ता सुधरकर ‘खराब’ श्रेणी में पहुंच गयी. शनिवार,को केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB) के अनुसार दिल्ली का कुल वायु गुणवत्ता सूचकांक (AQI) 259 दर्ज किया गया. इसमें थोड़ा सुधार हुआ, लेकिन यह अभी भी ‘खराब’ श्रेणी में बनी हुई है.
सर्दियों की शुरुआत से पहले दिल्ली के आसमान पर एक घनी और जहरीली धुंध छा जाती है, जिससे शहरवासियों के लिए सांस लेना मुश्किल हो जाता है और उनकी आंखों में जलन होने लगती है. यह परेशानी महीनों तक बनी रहती है क्योंकि कम तापमान और कम हवा की गति प्रदूषकों को जमीन के पास फंसा लेती है. इस साल, दिल्ली सरकार ने क्लाउड सीडिंग के जरिए कृत्रिम बारिश कराकर कुछ राहत देने का फैसला किया है. लेकिन क्या यह दिल्ली के प्रदूषण संकट से निपटने का कोई कारगर तरीका है?
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क्या है क्लाउड सीडिंग
क्लाउड सीडिंग एक मौसम परिवर्तन विधि है, जिसके द्वारा बादलों की वर्षा या हिमपात उत्पन्न करने की क्षमता को बढ़ाया जाता है. इसके लिए कंडेनसेशन को सक्रिय करने के लिए आमतौर पर बादलों में सिल्वर आयोडाइड, पोटेशियम आयोडाइड या सोडियम क्लोराइड जैसे साल्ट को इंजेक्ट किया जाता है. मौसम विज्ञानी बीजारोपण के लिए ऐसे बादलों की पहचान करते हैं जिनमें पर्याप्त नमी होती है, लेकिन वे स्वयं पर्याप्त वर्षा करने में असमर्थ होते हैं. ये साल्ट, या इन्वायस फैक्टर, न्यूक्लियस का काम करते हैं जिनके चारों ओर पानी की बूंदें बन सकती हैं या बर्फ क्रिस्टलीकृत हो सकती है. इन कणों को विशेष विमानों, रॉकेटों या जमीन पर रखे गए डिफ्लेक्शन उपकरणों की मदद से बादलों में फैलाया जाता है.
जैसे-जैसे पानी की बूंदें बढ़ती हैं, वे बादल में मौजूद दूसरी बूंदों से टकराती हैं. भारी होने पर बादल भीग जाता है और बारिश होती है. क्लाउड सीडिंग, जिसे कृत्रिम वर्षा भी कहा जाता है 1940 के दशक से प्रचलन में है. इसे विभिन्न कारणों से लागू किया जाता है, जिनमें सूखा और ओलावृष्टि से होने वाले नुकसान को कम करना, जंगल की आग को कम करना, वर्षा बढ़ाना और प्रदूषकों को फैलाकर वायु की गुणवत्ता में सुधार करना शामिल है.
दिल्ली में कब दिया जाएगा अंजाम
दिल्ली अगले हफ्ते कृत्रिम बारिश कराने के लिए मौसम में बदलाव करने की योजना बना रही है. मुख्यमंत्री रेखा गुप्ता ने बताया कि बुराड़ी इलाके में क्लाउड सीडिंग तकनीक का सफल परीक्षण किया गया. उन्होंने एक्स पर एक पोस्ट में लिखा, “दिल्ली में पहली बार क्लाउड सीडिंग के जरिए कृत्रिम बारिश कराने की तैयारी पूरी हो गई है. जो राजधानी में वायु प्रदूषण के खिलाफ लड़ाई में एक महत्वपूर्ण तकनीकी उपलब्धि है. गुरुवार को विशेषज्ञों ने बुराड़ी इलाके में इसका सफल परीक्षण किया.” रेखा गुप्ता ने कहा, “मौसम विभाग के अनुसार 28, 29 और 30 अक्टूबर को बादल छाए रहने की संभावना है. अगर मौसम अनुकूल रहा तो 29 अक्टूबर को दिल्ली में पहली कृत्रिम बारिश होने की संभावना है.”
कितनी कारगर क्लाउड सीडिंग?
कृत्रिम वर्षा, या क्लाउड सीडिंग हवा से प्रदूषकों और धूल को साफ करने में मदद करती है. लंबे समय तक वर्षा होने से सूक्ष्म कण (पीएम 2.5) और पीएम 10 बह जाते हैं. हालांकि, ओजोन और सल्फर डाइऑक्साइड जैसे अन्य प्रदूषकों पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता है. इस तकनीक की प्रभावशीलता के बारे में बहस चल रही है. दिल्ली के प्रदूषण संकट का एकमात्र समाधान क्लाउड सीडिंग नहीं है. इसकी सफलता प्राकृतिक बादलों पर निर्भर करती है. आईआईटी दिल्ली के सेंटर फॉर एटमॉस्फेरिक साइंसेज में पढ़ाने वाले शहजाद गनी और कृष्णा अच्युता राव ने द हिंदू के लिए लिखा है कि बादल होने पर भी, “सीडिंग से वर्षा में विश्वसनीय वृद्धि होने के प्रमाण कमजोर और विवादास्पद बने हुए हैं.” उन्होंने आगे कहा, “और जब बारिश होती है और प्रदूषण कम होता है, तो यह राहत ज्यादा से ज्यादा अस्थायी होती है. प्रमाण बताते हैं कि प्रदूषण का स्तर एक-दो दिन में फिर से बढ़ जाता है.”
जोखिम भी कम नहीं हैं इसके
क्लाउड सीडिंग के लिए कंडेनसेशन या संघनन को प्रेरित करने के लिए सिल्वर आयोडाइड या सोडियम क्लोराइड को बादलों में फैलाया जाता है. कम मात्रा में करने पर इस तकनीक से जुड़ा जोखिम कम होता है. हालांकि, यदि ये यौगिक बड़ी मात्रा में मिट्टी और पानी में जमा हो जाएं तो बार-बार उपयोग से पर्यावरण पर असर पड़ सकता है. द हिंदू के लेख में विशेषज्ञों ने पूछा, “इन पर्यावरणीय जोखिमों से परे, जवाबदेही का सवाल भी है. अगर क्लाउड सीडिंग के साथ-साथ भारी बारिश हो जाए जिससे बाढ़ आ जाए, बुनियादी ढांचे, फसलों और आजीविका को नुकसान हो, या जान-माल का नुकसान हो, तो इसके लिए कौन जिम्मेदार होगा?”
दिल्ली-एनसीआर में चाहिए कितने विमान
दिल्ली-एनसीआर क्लाउड सीडिंग प्रोजेक्ट के लिए पांच संशोधित सेसना (Cessna) विमान का उपयोग करने की योजना है. हाल के ट्रायल के लिए आईआईटी कानपुर का एक सेसना 206-एच विमान इस्तेमाल किया गया, जो क्लाउड सीडिंग उपकरण से लैस है. प्रत्येक विमान लगभग 90 मिनट की उड़ान भरेगा. जानकारी के अनुसार एक विमान की उड़ान लगभग 100 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र को कवर करेगी. दिल्ली-एनसीआर का कुल क्षेत्रफल बहुत बड़ा है (लगभग 55,000 वर्ग किलोमीटर). क्लाउड सीडिंग का लक्ष्य पूरे एनसीआर को कवर करना नहीं है, बल्कि उत्तर-पश्चिमी दिल्ली जैसे सबसे अधिक प्रदूषित क्षेत्रों पर केंद्रित प्रायोगिक ट्रायल करना है. क्लाउड सीडिंग का असर लगभग 100 किलोमीटर की रेंज में महसूस होने की संभावना है, जिससे दिल्ली और आस-पास के एनसीआर क्षेत्रों को प्रदूषण से राहत मिल सकती है.
भारत के लिए ये नया नहीं
भारत में क्लाउड सीडिंग कोई नई बात नहीं है. महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, गुजरात और तमिलनाडु जैसे राज्यों ने सूखे के दौरान खासकर कृषि के लिए, बारिश लाने के लिए क्लाउड सीडिंग का प्रयास किया है. भारतीय उष्णकटिबंधीय मौसम विज्ञान संस्थान ने 1972 में सबसे पहले एक प्रयोग किया था और हाल ही में कर्नाटक और महाराष्ट्र ने सूखाग्रस्त जिलों में इस तकनीक को लागू किया है. हालांकि इसकी सफलता का वैज्ञानिक मूल्यांकन अभी तक अनिर्णायक रहा है. भारतीय वैज्ञानिकों द्वारा संचालित CAIPEEX (क्लाउड एरोसोल इंटरेक्शन एंड प्रीसिपिटेशन एन्हांसमेंट एक्सपेरिमेंट) कार्यक्रम किसी भी परिस्थितियों में औसतन 15-20 प्रतिशत वर्षा वृद्धि का सुझाव देता है. लेकिन दिल्ली जैसे घने शहरी क्षेत्र में खासकर शुष्क सर्दियों के दौरान इसे दोहराना अभी तक संभव नहीं है.
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Location :
New Delhi,Delhi
First Published :
October 25, 2025, 12:20 IST

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