सुप्रीम कोर्ट से पत्रकार बेनजीर हिना के मामले में एक बड़ी और राहत भरी खबर आई है. यह खबर न सिर्फ हिना के लिए सुकून देने वाली है, बल्कि उन हजारों महिलाओं के लिए भी एक उम्मीद की किरण है जो वैवाहिक विवादों और ‘तलाक-ए-हसन’ जैसी प्रथाओं के बीच अपने और अपने बच्चों के अधिकारों के लिए लड़ रही हैं. सुप्रीम कोर्ट ने न केवल हिना की मांग पर मुहर लगाई है, बल्कि बच्चे के भविष्य को सुरक्षित करने के लिए कड़े निर्देश भी जारी किए हैं. आखिर क्या हुआ कोर्ट में? क्या है तलाक-ए-हसन? और क्यों यह फैसला इतना अहम माना जा रहा है?
बेनजीर हिना, जो पेशे से एक पत्रकार हैं, उन्होंने ‘तलाक-ए-हसन’ की संवैधानिक वैधता को चुनौती दी थी. उनकी लड़ाई सिर्फ अपने लिए नहीं, बल्कि अपने बच्चे के अधिकारों के लिए भी थी. सुप्रीम कोर्ट ने उनकी याचिका पर सुनवाई करते हुए पति और संबंधित संस्थाओं को सख्त निर्देश दिए हैं. कोर्ट ने सबसे बड़ा फैसला बच्चे के भरण-पोषण को लेकर सुनाया है. कोर्ट ने हिना के पति को आदेश दिया है कि वह बच्चे के खर्च के लिए हर महीने 10,000 रुपये अदा करें. यह रकम बच्चे की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के लिए दी जाएगी.
स्कूल की दिक्कतें खत्म
स्कूल में दाखिले का रास्ता साफ अक्सर देखा जाता है कि माता-पिता के झगड़े में बच्चे की पढ़ाई का नुकसान होता है. हिना के केस में भी यही हो रहा था. वे अपने बच्चे का दाखिला एक अच्छे स्कूल में कराना चाहती थीं, लेकिन औपचारिकताओं (जैसे पिता की सहमति या दस्तावेजों) की वजह से दिक्कतें आ रही थीं. सुप्रीम कोर्ट ने उस स्कूल को सीधा निर्देश दिया है कि बच्चे का दाखिला तुरंत लिया जाए. कोर्ट ने साफ कर दिया कि पिता के सहयोग न करने की वजह से बच्चे की शिक्षा नहीं रुकनी चाहिए. आधार और पासपोर्ट का झंझट खत्म कोर्ट ने आधार कार्ड और पासपोर्ट से जुड़ीं बाधाओं को भी दूर करने का आदेश दिया है. अब बच्चे के दस्तावेजों के लिए पिता की मनमानी आड़े नहीं आएगी.
क्या है तलाक-ए-हसन?
अब सवाल आता है कि आखिर जिस प्रथा के खिलाफ बेनजीर हिना कोर्ट गईं, वह ‘तलाक-ए-हसन’ है क्या? और यह उस ‘तीन तलाक’ (तलाक-ए-बिद्दत) से कैसे अलग है जिस पर सरकार पहले ही रोक लगा चुकी है? आम बोलचाल की भाषा में समझें तो इस्लाम में तलाक देने के कई तरीके बताए गए हैं. इनमें से एक है तलाक-ए-हसन. इस तरीके में एक मुस्लिम पुरुष अपनी पत्नी को एक बार में तीन तलाक नहीं देता. इसके बजाय, वह तीन महीने की अवधि में तलाक देता है. पहला महीना: पति एक बार तलाक बोलता है. इसके बाद दोनों के पास एक महीने का वक्त होता है सुलह करने का. अगर इस दौरान दोनों में शारीरिक संबंध बन जाते हैं या सुलह हो जाती है, तो तलाक रद्द माना जाता है. दूसरा महीना: अगर पहले महीने में सुलह नहीं हुई, तो अगले महीने (पवित्रता की अवधि या ‘तुहर’ के दौरान) पति दूसरी बार “तलाक” बोलता है. फिर एक महीने का वक्त मिलता है. तीसरा महीना: अगर तीसरे महीने भी सुलह नहीं होती और पति तीसरी बार “तलाक” बोल देता है, तो यह तलाक पक्का (Irrevocable) हो जाता है. इसके बाद पति-पत्नी का रिश्ता खत्म माना जाता है.समस्या क्या है?
सुनने में यह प्रक्रिया ‘इंस्टेंट तीन तलाक’ से बेहतर लग सकती है क्योंकि इसमें वापसी का मौका मिलता है. लेकिन, इसका विरोध करने वालों का कहना है कि यह भी एकतरफा (Unilateral) है. यानी, तलाक देने का पूरा अधिकार सिर्फ पुरुष के पास है. अगर पत्नी रिश्ता बचाना भी चाहे और पति अड़ जाए, तो तीन महीने बाद रिश्ता खत्म हो ही जाएगा. इसमें महिला की रजामंदी शामिल नहीं होती.
सुप्रीम कोर्ट की नाराजगी: क्या सभ्य समाज में इसकी जगह है?
इस केस की पिछली सुनवाइयों के दौरान सुप्रीम कोर्ट ने बहुत तल्ख टिप्पणी की थी, जो अब चर्चा का विषय बनी हुई है. कोर्ट ने मौखिक रूप से कहा था, “क्या किसी सभ्य समाज में इसकी इजाजत दी जा सकती है? यह एक ऐसी प्रथा है जिसके तहत एक मुस्लिम पुरुष तीन महीने तक हर महीने एक बार ‘तलाक’ शब्द कहकर रिश्ता खत्म कर सकता है. कोर्ट का यह सवाल इशारा करता है कि न्यायपालिका अब उन प्रथाओं को स्वीकार करने के मूड में नहीं है जो महिलाओं को बराबरी का दर्जा नहीं देतीं, भले ही वे धार्मिक पर्सनल लॉ का हिस्सा क्यों न हों. कोर्ट ने यह भी संकेत दिया है कि इस मामले को विस्तृत सुनवाई के लिए संवैधानिक पीठ के पास भेजा जा सकता है.
क्यों महत्वपूर्ण है यह फैसला?
यह सिर्फ एक अदालती आदेश नहीं है, इसके पीछे छिपे संदेश बहुत गहरे हैं. आइए समझते हैं कि यह फैसला और सुप्रीम कोर्ट का रुख इतना महत्वपूर्ण क्यों है.
1. बच्चे के अधिकार सर्वोपरि
अक्सर तलाक के मामलों में पति-पत्नी की लड़ाई में बच्चा पिस जाता है. कई बार पिता बच्चे को परेशान करने के लिए दस्तावेज नहीं देते या स्कूल की फीस रोक देते हैं. सुप्रीम कोर्ट ने इस आदेश से एक नजीर पेश की है कि “माता-पिता के झगड़े का असर बच्चे के भविष्य और शिक्षा पर नहीं पड़ना चाहिए. स्कूल को सीधे आदेश देना बताता है कि कोर्ट के लिए बच्चे का हित सबसे ऊपर है.
2. ‘सिंगल मदर’ की राह आसान करना
भारत में अगर कोई मां अकेले अपने बच्चे को पाल रही है और पिता सहयोग नहीं कर रहा, तो स्कूल एडमिशन या पासपोर्ट बनवाने में बहुत पापड़ बेलने पड़ते हैं. कोर्ट ने आधार और पासपोर्ट को लेकर जो निर्देश दिया है, वह एक तरह से सिस्टम को संदेश है कि पिता की गैर-मौजूदगी या असहयोग की वजह से मां और बच्चे को सरकारी फाइलों में न उलझाया जाए.
3. एकतरफा तलाक पर चोट
इंस्टेंट तीन तलाक (तलाक-ए-बिद्दत) गैर-कानूनी हो चुका है. अब बारी तलाक-ए-हसन जैसी प्रथाओं की है. यह फैसला इसलिए अहम है क्योंकि यह बहस छेड़ता है कि क्या आज के दौर में, जब महिलाएं हर क्षेत्र में आगे हैं, कोई पुरुष सिर्फ अपनी मर्जी से, बिना किसी ठोस कारण या कानूनी प्रक्रिया के, तीन महीने में रिश्ता खत्म कर सकता है? कोर्ट की टिप्पणी बताती है कि न्यायपालिका इसे ‘लैंगिक समानता’ के चश्मे से देख रही है.
4. पर्सनल लॉ बनाम संविधान
यह मामला एक बार फिर उस पुरानी बहस को सामने लाता है कि क्या धार्मिक कानून संविधान द्वारा दिए गए मौलिक अधिकारों (जैसे समानता का अधिकार) से ऊपर हो सकते हैं? बेनजीर हिना की याचिका का आधार ही यही है कि यह प्रथा संविधान के अनुच्छेद 14, 15 और 21 का उल्लंघन करती है. सुप्रीम कोर्ट का रुख देखकर लगता है कि आने वाले समय में पर्सनल लॉ में सुधार की गुंजाइश बन रही है.
फैसले का असर क्या होगा?
फिलहाल बेनजीर हिना को अंतरिम राहत मिल गई है. बच्चे की पढ़ाई शुरू हो जाएगी और गुजारा भत्ता भी मिलने लगेगा. लेकिन बड़ी लड़ाई अभी बाकी है. सुप्रीम कोर्ट ने संकेत दिया है कि वह तलाक-ए-हसन की संवैधानिकता को परखेगा. क्या इसे पूरी तरह खत्म किया जाएगा? या इसमें महिलाओं की रजामंदी को अनिवार्य बनाया जाएगा? यह देखना दिलचस्प होगा. लेकिन आज के फैसले ने यह साबित कर दिया है कि कानून की नजर में एक महिला की गरिमा और एक बच्चे का भविष्य, पुरानी रूढ़ियों से कहीं ज्यादा कीमती है. यह फैसला उन तमाम महिलाओं को हौसला देता है जो मानती हैं कि अगर प्रथा गलत है, तो उसके खिलाफ आवाज उठाना जरूरी हैबिल्कुल वैसे ही जैसे बेनजीर हिना ने उठाई.

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