Last Updated:October 24, 2025, 15:29 IST
Rasheed Kidwai Article: आज से 25 साल पहले 24 अक्टूबर 2020 को सीताराम केसरी का निधन हो गया था. पार्टी अध्यक्ष रहे ‘खंजाची’ केसरी के बही-खाते में ऐसी कई बातें दर्ज हैं, जिनकी वजह से उन्हें हमेशा याद किया जाता रहेगा. सीताराम केसरी ने कभी कहा था, अगर नेहरू की जगह सुभाष चंद्र बोस होते तो देश की स्थिति अलग होती.
सीताराम केसरी की 25वीं पुण्यतिथि पर जानें कैसे पार्टी के ‘खंजाची’ से कांग्रेस अध्यक्ष बने केसरी को 1998 में बेआबरू तरीके से हटाया गया.Rasheed Kidwai Article: बिहार चुनाव के चलते सीताराम केसरी को राहुल गांधी द्वारा दी गई श्रद्धांजलि राजनैतिक रूप से महत्वपूर्ण है. आलोचक यह जरूर कहेंगे कि कांग्रेस ने दशकों से चाचा केसरी को याद नहीं किया लेकिन राजनैतिक रूप से बिहार चुनाव के समय में उनको याद करना राहुल गांधी के पिछड़ों को साथ जोड़ने की मुहिम के साथ देखा जा रहा है. सीताराम केसरी का कांग्रेस अध्यक्ष बनना अपने आप में किसी चमत्कार से कम नहीं था, मगर उन्हें जिस तरह जबरदस्ती पद से हटाया गया, वह भी पार्टी के इतिहास में एक ‘आश्चर्यजनक’ घटना के रूप में दर्ज हो गया. इस घटना का हवाला देते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी पार्टी नेतृत्व पर हमला करने से नहीं चूके हैं.
यह 14 मार्च 1998 का दिन था जब 24 अकबर रोड स्थित कांग्रेस मुख्यालय एक तख्तापलट का मूक गवाह बना था. इस दिन केसरी की पार्टी अध्यक्ष के पद से ‘बेआबरू’ रवानगी की गई थी. इस तरह उनका नाम ऐसे पहले कांग्रेस अध्यक्ष के तौर पर दर्ज हुआ, जिन्हें पद से ‘निष्कासित’ किया गया. और केवल पद से ही नहीं उसी दिन कांग्रेस मुख्यालय से घर लौटते समय भी वे बेअदबी का शिकार हुए. 79 वर्षीय इस नेता के साथ कतिपय कांग्रेसी कार्यकर्ताओं ने झूमाझटकी की और कुछ ने तो कपड़े फाड़ने तक की कोशिश भी की.
क्या हुआ था उस दिन?
उस दिन यानी 14 मार्च को केसरी यह जानते हुए भी कि पूरी कांग्रेस में उनके खिलाफ माहौल है. इस निश्चिंतता के साथ सीडब्ल्यूसी की बैठक में पहुंचे थे कि ‘निर्वाचित’ पार्टी अध्यक्ष को बाहर का रास्ता नहीं दिखाया जा सकता. हालांकि उन्हें यह पता नहीं था कि सुबह 11 बजे की इस बैठक से पहले ही उन्हें हटाए जाने की पटकथा लिखी जा चुकी थी. केसरी के तशरीफ रहते ही प्रणब मुखर्जी ने पार्टी के प्रति उनकी सेवाओं के लिए ‘धन्यवाद’ प्रस्ताव पढ़ना शुरू किया तो वे आपा खो बैठे. उन्होंने आठ मिनट के भीतर ही बैठक स्थगित कर दी और अपने कार्यालय में चले गए. उनका कार्यालय 24 अकबर रोड के उस हॉल के बगल में ही था, जहां सीडब्ल्यूसी की बैठक हो रही थी. डॉ. मनमोहन सिंह, प्रणब मुखर्जी, ए.के. अंटोनी और अहमद पटेल ने उन्हें हर तरह से मनाने की कोशिश की, लेकिन सब बेकार रहा. आखिरकार सुबह करीब साढ़े ग्यारह बजे मुखर्जी ने सोनिया गांधी को पार्टी अध्यक्ष बनाने का औपचारिक प्रस्ताव पेश कर दिया. कांग्रेस अध्यक्ष के दफ्तर के बाहर लगी केसरी की नाम पटि्टका को तुरंत हटाकर उसकी जगह सोनिया के नाम की एक चमचमाती काली और सफेद रंग की पट्टिका लगा दी गई.
केसरी नेताजी सुभाष चंद्र बोस से काफी प्रभावित थे.
हटाने की क्या थी वजह?
केसरी ने भले ही कई सालों तक पार्टी के कोषाध्यक्ष के पद को बड़ी कुशलता से संभाला, लेकिन पूरी पार्टी को संभालने लायक उनमें कोई करिश्मा नहीं था. उन्हें एक अस्थाई व्यवस्था के तहत पार्टी की कमान सौंपी गई थी. कांग्रेसी नेताओं में उनके प्रति बेरूखी तो शुरू से थी, लेकिन 1998 के आम चुनाव के बाद जब पार्टी को केवल 141 सीटें मिलीं तो उनकी जगह सोनिया गांधी को लाने की मुहिम तेज हो गई. सोनिया ने भी पार्टी की बागडोर अपने हाथ में लेने पर हामी भर दी. लेकिन उनकी शर्त यह थी कि केसरी खुशी-खुशी अपना पद छोड़कर उन्हें (सोनिया) इसके लिए आमंत्रित करें.
9 मार्च को अपने निष्कासन से पांच दिन पहले केसरी ने घोषित तौर पर कह भी दिया कि वो इस्तीफा देकर सोनिया गांधी के लिए रास्ता साफ कर देंगे. लेकिन जल्द ही उन्होंने अपना रुख बदल लिया. इसके बाद प्रणब मुखर्जी के घर पर उन्हें जबदस्ती हटाने की योजना बनी, जिस पर 14 मार्च को अमल किया गया. सोनिया ने भी एक पार्टी पदाधिकारी से कहा था, ‘अगर सबकुछ सौहार्दपूर्ण ढंग से होता तो कहीं बेहतर रहता.’ हालांकि उन्होंने यह भी स्वीकार किया कि केसरी कभी भी स्वेच्छा से कुर्सी नहीं छोड़ते.
आम चुनाव में प्रचार से रखा दूर
क्या किसी आम चुनाव में ऐसा हो सकता है कि कोई पार्टी अध्यक्ष एक भी चुनावी सभा न लें? यह रिकॉर्ड भी केसरी के नाम ही है. 1998 के आम चुनाव में पार्टी अध्यक्ष को चुनाव प्रचार से दूर रखा गया. किसी भी राज्य ने केसरी की सेवाएं नहीं मांगीं, यहां तक कि उनके प्रदेश बिहार ने भी कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई. केसरी ने एक चुनावी सभा के लिए जालंधर जाने की कोशिश की, लेकिन अम्बाला के ऊपर से उड़ान भरते समय विमान को वापस लौटना पड़ा, क्योंकि उन्हें सांस लेने में दिक्कत पैदा हो गई थी. उनके साथ यात्रा कर रहे गुलाम नबी आजाद ने बाद में कहा था कि विमान के पालम हवाई अड्डे पर उतरने तक वे बेहद तनाव में रहे. बकौल नबी, ‘मुझे चचा की सेहत की बहुत चिंता हो रही थी. वो बहुत दर्द में थे और उनका दम घुट रहा था.’
केसरी बस हस्ताक्षर करते थे!
साल 1997 के अंतिम दिनों में सोनिया गांधी औपचारिक तौर पर पार्टी में शामिल हुई थीं. जनवरी से मार्च 1998 बीच केसरी केवल नाममात्र के ही अध्यक्ष रह गए थे. उस दौरान विन्सेंट जॉर्ज और ऑस्कर फर्नांडीज को अक्सर केसरी के पुराना किला आवास पर फाइलों के साथ देखा जा सकता था. ये फाइलें पार्टी के महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्तियों की होती थीं. जॉर्ज और फर्नांडीज को देखते ही केसरी का मन खट्टा हो जाता था, क्योंकि वे जानते थे कि ये दोनों शख्स डॉटेड लाइनों पर उनके हस्ताक्षर करवाने के लिए फाइलें लेकर आए हैं.
‘जमाखोरी’ के आरोप में जेल में गए थे!
केसरी काफी सामान्य पृष्ठभूमि से आए थे और उनकी कोई औपचारिक शिक्षा भी नहीं हुई थी. लेकिन वे किस्से-कहानी सुनाने में माहिर थे. ‘एक बात बता देते हैं…’ से उनकी बातचीत की शुरुआत होती और फिर लंबे किस्से में बदल जाती. राजेंद्र बाबू (भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद) उन्हें कितना पसंद करते थे, यह किस्सा वे सबको सुनाते. वे बताते कि एक बार राजेंद्र बाबू दानापुर के दौरे पर थे. वहीं पर उन्हें उनमें (केसरी) एक युवा स्वतंत्रता सेनानी नजर आया. केसरी यह भी बताते कि वे कई बार जेल गए और फिर अपनी पीठ उघाड़कर उस पर लाल निशान दिखाते, जहां लाल पगड़ीवालों ने कोड़े मारे थे. ब्रिटिश राज में बिहार में लाठीचार्ज करने वाली पुलिस को ‘लाग पगड़ी’ कहा जाता था. हालांकि उनके विरोधियों के पास अलग कहानी थी. उनका दावा था कि केसरी को द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान जमाखोरी के आरोप में जेल भेजा गया था. इस पर केसरी का कहना था कि स्वतंत्रता सेनानियों को बदनाम करने के लिए अंग्रेज जानबूझकर इस तरह के आरोप लगाते थे.
सुभाष चंद्र को नेहरू से महान बताया था
केसरी नेताजी सुभाष चंद्र बोस से काफी प्रभावित थे. यहां तक कि कई निजी वार्तालापों में वे बोस को जवाहरलाल नेहरू से भी महान बताते. वे आंखें बंद कर कहते, ‘मैं कलकत्ता में फारवर्ड ब्लॉक और नेताजी की टीम का हिस्सा था.’ फिर कहते कि अगर गांधीजी ने बोस की जगह नेहरू को चुनने की गलती नहीं की होती तो आज भारत बिल्कुल अलग होता. अहिंसावादियों पर बरसते हुए केसरी कहते, ‘हमने गुलाम मानसिकता ओढ़ रखी है. खून बहाए बिना हमें आजादी नहीं मिली है. अहिंसात्मक तरीकों ने हमें नपुंसक बना दिया. अगर सुभाष चंद्र बोस होते तो देश की स्थिति बिल्कुल भिन्न होती.’
रशीद किदवई देश के जाने वाले पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं. वह ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन (ORF) के विजिटिंग फेलो भी हैं. राजनीति से लेकर हिंदी सिनेमा पर उनकी खास पकड़ है. 'सोनिया: ए बायोग्राफी', 'बैलट: टेन एपिस...और पढ़ें
रशीद किदवई देश के जाने वाले पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं. वह ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन (ORF) के विजिटिंग फेलो भी हैं. राजनीति से लेकर हिंदी सिनेमा पर उनकी खास पकड़ है. 'सोनिया: ए बायोग्राफी', 'बैलट: टेन एपिस...
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First Published :
October 24, 2025, 15:28 IST

2 hours ago
