सरदार पटेल को महसूस हो गया कि मृत्यु करीब है, आखिरी बार नेहरू के लिए क्या बोला

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वर्ष 1950 के अक्टूबर तक सब ठीक था लेकिन नवंबर आते ही सरदार वल्लभभाई पटेल की तबीयत ऐसी बिगड़ी कि बिगड़ती ही चली गई. वह थक रहे थे. याददाश्त जवाब देने लगी. शरीर निढाल हो गया. ज्यादा बोल भी नहीं पा रहे थे. इस दौरान वह जो बातें करने लगे, उससे जाहिर हो रहा था कि उन्हें महसूस होने लगा कि अब उनके पास ज्यादा दिन नहीं बचे हैं. इस बीच कई बार नेहरू उनसे मिलने आए. जाते जाते वह कांग्रेस के सीनियर नेता और अपने साथी नरहर विष्णु गाडगिल से खासतौर पर कहा कि नेहरू का साथ किसी हालत में मत छोड़ना. जानते हैं कि कैसे थे सरदार पटेल के आखिरी दिन. उन दिनों में वह क्या बोल रहे थे और क्या कर रहे थे.

सरदार वल्लभ भाई पटेल का निधन 15 दिसंबर को सुबह 09.37 मिनट पर मुंबई में हुआ था. जीवन के आखिरी एक महीने में उनकी तबीयत अचानक काफी खराब होती चली गई. दिल्ली की आबोहवा और ठंड का मौसम उन्हें रास नहीं आ रहा था. उनके निजी डॉक्टरों ने उन्हें मुंबई में ही रहकर इलाज का सुझाव दिया. उन्हें चार – पांच दिन पहले ही एयरलिफ्ट करके दिल्ली से मुंबई लाया गया.

इस संबंध में राजमोहन गांधी ने अपनी किताब “पटेल ए लाइफ” में विस्तार से लिखा है. किताब में लिखा गया, दरअसल अक्टूबर के आखिरी सप्ताह में सरदार पटेल अहमदाबाद में थे. वो वहां पूरे 05 दिन रहे. वहीं अपना 75वां जन्मदिन मनाया. इस मौके पर कई प्रोग्राम भी थे. 02 नवंबर को वो दिल्ली लौट आए. आते ही तिब्बत के सवाल पर जूझने लगे. दरअसल तिब्बत ने 30 अक्टूबर 1950 को भारत से राजनयिक मदद की अपील की थी. चीन उनके देश में घुस आया था. 04 नवंबर को अखबारों का यही कहना था कि चीन ने तिब्बत पर कब्जा कर लिया.

माना जा रहा था कि विदेश नीति पर नेहरू से भिड़ंत होगी

तीन दिन बाद पटेल ने नेहरू को एक पत्र भेजा. उन्होंने इस बारे में पुरुषोत्तम दास से टंडन से कहा, “मुझे उम्मीद है कि विदेश नीति को लेकर नेहरू से भिड़ंत होगी.” वो इस पर आक्रमक लग रहे थे.

09 नवंबर को उन्होंने दिल्ली स्वामी दयानंद पर एक किताब जारी करते हुए कहा, “उन्होंने हिंदू धर्म पर मंडरा रहे संदेह के बादलों को छांट दिया और सूर्य जैसा प्रकाशवान बना दिया.” पटेल ने तिब्बत को लेकर खास बात कही, “एक शांतिपूर्ण देश पर कब्जा कर लिया गया और अब वो शायद ही बचा रहे. हम नहीं सोचा था कि ऐसा होगा…लेकिन चीन ने हमारी बात नहीं मानी…तिब्बत धार्मिक रुझान वाला देश था. तिब्बत की ओर से तो कोई आक्रामकता कभी नहीं दिखाई गई. लेकिन जब किसी पर ताकत का नशा चढ़ चुका हो तो वो महसूस ही नहीं करता कि क्या कर रहा है.”

नेहरू के साथ टकराव के कयास थम गए

इसके बाद ही अचानक पटेल की स्वास्थ्य गिरने लगा. फिर विदेश नीति पर उनके और नेहरू के बीच जिस टकराव के कयास लगाए जा रहे थे, वो वहीं के वही थम गए. उनके सचिव शंकर को महसूस हुआ कि वो चीजों को भूलने लगे थे. उनके साथ ही रहने वाली बेटी मणिबेन ने नोटिस किया, वो अब हल्की आवाज के साथ कही गई बातें नहीं सुन पा रहे हैं. उन्हें नींद में दिक्कत हो रही है. नब्ज तेज हो गई है. दिल कमजोर और आंतों में ज्यादा दर्द.

वो जरा सा भी काम का बोझ बर्दाश्त नहीं कर पा रहे थे. ज्यादातर बिस्तर पर ही रहते थे. भाषण देना तो दूर की बात अब वो किसी को कोई संदेश देने से भी बचने लगे थे. उन्होंने सुबह की अपनी वॉक बंद कर दी.

तभी ये चर्चा होने लगी कि शायद नेहरू एक कैबिनेट पैनल चाहते हैं, जो विदेशी मामलों की कमेटी के समतुल्य हो और जो प्रिंसले स्टेट को लेकर उभर रहे कुछ सवालों पर विचार करे. इससे पटेल दुखी हुए. इसके बाद एक और रिपोर्ट आई कि सेक्रेटरीज की अदलाबदली हो सकती है, इसने भी पटेल को चिंतित किया कि अब मेनन और शंकर का भविष्य क्या होगा. हालांकि उनका ये संदेह ना तो आधारहीन ही था और ना ही पूरी तरह से सही भी.

तब नेहरू ने कहा, मैं भी आत्मविश्वास खो रहा हूं

बीमारी और उससे उपजी कमजोर के बावजूद पटेल ने 14 नवंबर को खुद नेहरू को हाथ से लिखा जन्मदिन का बधाई पत्र भेजा. 23 नवंबर को जब नेहरू उनके दिल्ली के 01, औरंगजेब रोड स्थित आवास पर आए तो पटेल ने बेधड़क उनसे कहा, मैं आपसे अकेले बात करना चाहता था कि जब भी मुझे हल्की सी ताकत मिली और मैं दबावों को झेलने में सक्षम था, तब आप मुझमे विश्वास खो रहे थे.

नेहरु मुस्कुराए और कहा, मैं तो खुद में ही आत्मविश्वास खो रहा हूं. नेहरू ने ये टिप्पणी विनम्रता के साथ की. नेहरू जानते थे कि उनका टूटना कमजोर करने वाला है.

बिस्तर पर नजर आए खून के धब्बे

21 नवंबर को मणिबेन ने पटेल के बिस्तर पर खून के धब्बे देखे. तुरंत रात और दिन की सेवा के लिए नर्स की व्यवस्था की गई. कुछ रातों में पटेल को ऑक्सीजन पर रखने की नौबत आ गई. डॉक्टरों की मदद करने के लिए सुशीला नैयर भी आ गईं. हालांकि सुशीला और मणिबेन के बीच तनाव रहता था, जिससे पटेल वाकिफ थे, उन्होंने एक दोपहर सुशीला से पूछा, क्या तुम दोनों महिलाओं में खटपट हो रही है या नहीं.

मणिबेन ने ये सुन लिया और उनकी आंखें गीली हो गईं. लेकिन वो पटेल से मिलने वालों के प्रति कठोर थीं. उन्होंने उस पर रोक लगा दी थी या उनका आना सीमित कर दिया था. हालांकि राजेंद्र प्रसाद, राजगोपालाचारी, नेहरू और आजाद हल्की फुल्की सलाह के लिए जरूर आते रहे.

1950 की इस आखिरी तिमाही में मौलाना आजाद से पटेल की कटुता कुछ हद तक खत्म हो गई थी. उनके बीच बेहतर सदभाव दिखने लगा था. दरअसल टंडन के अध्यक्ष पद के चुनाव में जो कुछ हुआ था, उसके पीछे पटेल मौलाना को ही जिम्मेवार मानते थे, उसी के चलते नेहरू उस लड़ाई में कूदे थे.

बार-बार बुदबुदा रहे थे – जिंदगी क्या ये तमाशा चंद रोज

05 दिसंबर को उन्हें महसूस होने लगा कि उनका अंत अब करीब है. उस रात मणिबेन ने उन्हें बार बार नज़ीर का ये शेर बुदबुदाते हुए सुना, “जिंदगी क्या ये तमाशा चंद रोज”. 06 दिसंबर को राष्ट्रपति प्रसाद 10 मिनट तक उनके पास बैठे. लेकिन पटेल इतने बीमार थे कि कुछ कहने की स्थिति में नहीं थे. 08 दिसंबर को बंगाल के मुख्यमंत्री बीसी राय उन्हें देखने आए तो पटेल ने उनसे पूछा, “रहना है कि जाना है”. राय खुद एक जाने माने डॉक्टर थे. उन्होंने तुरंत पटेल से कहा, “अगर केस जाने का ही होता तो मैं आपको देखने क्यों आता.” लेकिन उनकी भरोसे वाली बातें पटेल को आश्वस्त नहीं कर पाईं.

इसके बाद उस दिन और फिर अगले दिन वो नजीर की वही पंक्तियां बुदबुदाते रहे. साथ ही कबीर की ये पंक्ति भी उनकी जुबान पर आ जाती, “मन लागो मेरो यार फकीरी में”. मणिबेन ये सुनकर बिखर ही गईं लेकिन उन्होंने कोई प्रतिक्रिया नहीं दी.

फिर जब घनश्याम बिड़ला उनके पास आए तो उन्हें ये कहते सुना, “मंगल मंदिर खोलो दयामय”. मणिबेन ने उनसे कहा, “मुझे जिस बात का डर था, लगता है वही दिन आने वाला है”. उनकी आंखों से कुछ बूंदें गिर पड़ीं.

अब मैं लंबा नहीं जीने वाला…

10 दिसंबर को जब उनके निजी चिकित्सक डॉक्टर नाथुभाई पटेल ने उनको इंजेक्शन देने की तैयारी की तो पटेल ने तुरंत मना कर दिया, इससे मेरा पेट खराब हो जाता है. नाथुभाई और डॉक्टर गिल्डर मुंबई से आ गए थे. उनके साथ दिल्ली में पटेल को देखने वाले डॉक्टर भी थे. उनकी हालत लगातार बिगड़ती हुई लग रही थी. तब डॉक्टरों ने उन्हें मुंबई के बेहतर मौसम के चलते वहां ले जाने का फैसला किया.

जाने से एक रात पहले नेहरू को ये बताया गया. उन्होंने वल्लभभाई से कहा, हमें बहुत सी बातें करनी हैं लेकिन आपको चिंता करने की कोई जरूरत नहीं है. आप केवल अपना ध्यान रखिए और जल्दी ही ठीक होकर लौटिए. इससे पहले पटेल ने गाडगिल से कहा, अब मैं लंबा नहीं जीने वाला, मुझसे एक वादा करो, जब गाडगिल ने हां कहा, तब उन्होंने अपने दोस्त का हाथ पकड़ा औऱ कहा, चाहे कोई भी स्थिति और मतभेद हों लेकिन पंडित के साथ रहना, उन्हें छोड़ना मत.

कौन उन्हें दिल्ली एयरपोर्ट पर छोड़ने आए

12 दिसंबर को जब एयरफोर्स के विमान से ले जाने के लिए ले जाया जा रहा था तब वो व्हीलचेयर पर थे. उन्हें नेहरू, प्रसाद, गोपालाचारी, गाडगिल, घनश्याम दास और मेनन छोड़ने आए थे. जब हवाई जहाज में उनकी चेयर ऊपर पहुंची तो उन्होंने घूमकर सबको हाथ हिलाया. चेहरे पर उदास मुस्कुराहट थी. दोनों डॉक्टर और मणिबेन जहाज में उनके साथ गए.

वह विदा होते हुए निढाल थे

इस बार पटेल को छोड़ते हुए नेहरू और उनके सभी साथी भावुक थे. हवाई यात्रा लंबी थी. इसमे पटेल निढाल पड़ गए. मुंबई में एय़रपोर्ट पर उनकी आगवानी के लिए मोरारजी देसाई और अन्य नेता आए थे लेकिन पटेल के अंदर इतनी ताकत ही नहीं बची थी कि वो उनसे मिल पाएं या हाथ हिला पाएं. उन्हें बिरला हाउस ले जाया गया. जहां उन्हें ऑक्सीजन पर रखा गया. नर्स पहले से मौजूद थीं. उनकी हालत नहीं सुधर रही थी. वो लगातार कराह रहे थे और कष्ट में थे.

मणिबेन से उनका कष्ट देखा नहीं जा रहा था. वो भगवान से प्रार्थना कर रही थीं, “उनकी हालत सुधार दो लेकिन अगर तुम्हारी ये इच्छा नहीं हो तो कृपया उन्हें जल्दी अपनी शरण में ले लो.”

और उनके आखिरी घंटे 

15 दिसंबर को उनकी जिंदगी का आखिरी दिन था. सुबह 03.00 बजे उन्हें हार्ट अटैक पड़ा. चेतना चली गई. चार घंटे बाद उ्न्हें होश आया. उन्होंने पानी मांगा. मणिबेन ने एक चम्मच से पिलाया. उन्होंने कहा, ये मीठा लग रहा है. मणिबेन ने उन्हें शहद में मिलाकर गंगाजल दिया था. इसके बाद फिर उनकी चेतना चली गई.

सुबह 09.37 बजे उन्होंने आखिरी सांसें लीं. तब उनके बिस्तर के पास बेटे दाहयाभाई, बहू भानुमती, पोता बिपिन मौजूद थे. साथ ही सेक्रेट्री शंकर के साथ बिरला परिवार के कुछ लोग. इस तरह सरदार पटेल की जीवन यात्रा यहीं थम गई.

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