Last Updated:September 23, 2025, 11:11 IST
Congress CWC meeting in Patna : बिहार की राजनीति में कांग्रेस का इतिहास उतना ही पुराना है जितनी आजादी की कहानी. लेकिन, वर्ष 1990 के बाद लालू प्रसाद यादव के उभार के साथ कांग्रेस का आधार लगातार खिसकता गया. कभी पूर्ण बहुमत के साथ एकछत्र राज करने वाली पार्टी विधानसभा में सिमटती चली गई और अब उसकी स्थिति बेहद कमजोर हो गई है. ऐसे समय में वर्ष 1940 के बाद दूसरी बार पटना में हो रही कांग्रेस वर्किंग कमिटी की बैठक को पार्टी पुनर्जीवन की कोशिश के रूप में देखा जा रहा है. मगर सवाल यह है कि- क्या कांग्रेस फिर से खड़ी हो पाएगी?

पटना. वर्ष 1940 के बाद दूसरी बार कांग्रेस वर्किंग कमिटी की बैठक बिहार की राजधानी पटना होने की बात सामने आई तो कांग्रेस कार्यकर्ताओं की आंखों में चमक आ गई. आजादी के बाद दूसरी बार हो रही कांग्रेस की सबसे बड़ी बैठक में मल्लिकार्जुन खरगे, राहुल गांधी और सोनिया गांधी और के वुणुगोपाल समेत कई दिग्गज नेताओं की मौजूदगी रहने की खबर है. राजनीति के जानकार कह रहे हैं कि बिहार चुनाव से पहले कांग्रेस का यह बहुत बड़ा फैसला है, क्योंकि बिहार में लगभग खत्म हो चुकी कांग्रेस को नई ऊर्जा मिल सकती है.
भारत की स्वतंत्रता के पश्चात बिहार में कभी सत्ता पर कांग्रेस ही कांग्रेस काबिज रहती थी. जेपी आंदोलन के बाद भी सत्ता की सबसे बड़ी दावेदार कांग्रेस ही थी. लेकिन, मंडल आंदोलन के बाद वर्ष 1990 के बाद से बिहार की राजनीति का परिदृश्य बदला और उसकीजमीन कमजोर होती गई. बात इतनी दूर तक पहुंच गई कि कांग्रेस के अस्तित्व पर खतरा मंडराने लगा है. दरअसल, लालू यादव के उदय और राजद के मजबूत सामाजिक आधार ने कांग्रेस का वोट बैंक छीन लिया. सवर्ण और दलित वोट एनडीए की ओर चले गए तो मुस्लिम वोटरों ने राजद में अपना स्थाई ठिकाना बना लिया. स्थिति ऐसी आ गई कि चुनाव दर चुनाव कांग्रेस का ग्राफ नीचे जाता गया. अब पटना में हो रही कांग्रेस वर्किंग कमिटी की बैठक को बदलाव की उम्मीद से जोड़ा जा रहा है, लेकिन चुनौती बेहद बड़ी है.
1990 से पहले कांग्रेस का सुनहरा दौर
आजादी के बाद से लेकर वर्ष 1980 के दशक तक बिहार की राजनीति पर कांग्रेस का दबदबा रहा. वर्ष 1952, 1962 और 1972 के चुनावों में कांग्रेस ने स्पष्ट बहुमत पाकर सरकार बनाई. पार्टी का मजबूत जनाधार सवर्ण, दलित और मुस्लिम समुदाय पर आधारित था. उस दौर में कांग्रेस ही बिहार की मुख्य धारा की राजनीति थी और केंद्रीय सोच यानी सर्व समाज की सियासत करने वाली पार्टी के रूप में पहचान रखती थी. लेकिन, 1990 के विधानसभा चुनाव ने बिहार की राजनीति की दिशा बदल दी.
1990 में लालू प्रसाद यादव का उभार
दरअसल, जनता दल के नेता लालू यादव मुख्यमंत्री बने और पिछड़ा-अति पिछड़ा वर्ग की राजनीति ने कांग्रेस की जड़ों को हिलाना शुरू कर दिया. कांग्रेस के परंपरागत मुस्लिम वोट बैंक भी लालू यादव की ओर खिसक गए और सवर्ण एवं दलित कांग्रेस से छिटक लिए. जानकारों की नजर में यही वो दौर था जब कांग्रेस के पतन की शुरुआत हो गई थी. आज के दौर में कांग्रेस के कोर वोट बैंक मुस्लिम पर राजद का पूरा कब्जा है, वहीं दलित और सवर्ण अब एनडीए के साथ दिखते हैं.
1952 से 1985 तक कांग्रेस का दबदबा रहा, लेकिन 1990 के बाद लालू यादव के साये में लगातार पतन होता गया.
ऐसे में कांग्रेस के 1990 से पहले का राजनीतिक इतिहास और चुनाव दर चुनाव प्रदर्शन को देखें, फिर लालू यादव के बिहार की राजनीति में छा जाने के बाद 1990 के बाद कांग्रेस कैसे खत्म होती गई, इसको समझें तो चुनाव दर चुनाव प्रदर्शन के आंकड़े सबकुछ स्पष्ट कहानी कह जाते हैं.
चुनाव दर चुनाव कांग्रेस का गिरता ग्राफ (संयुक्त बिहार 324 सीटें)
1985: कांग्रेस को 239 सीटों में से 196 सीटें मिलीं (बहुमत) 1990: कांग्रेस घटकर सिर्फ 71 सीटों पर सिमट गई. 1995: पार्टी 29 सीटों तक गिर गई. 2000: कांग्रेस को केवल 23 सीटें मिलीं.कांग्रेस का गिरता ग्राफ (झारखंड अलग होने के बाद 243 सीटें)
2005 (फरवरी): 10 सीटों पर सिमट गई. 2005 (अक्टूबर): सिर्फ 9 सीटों पर जीत दर्ज की. 2010: कांग्रेस को महज 4 सीटें मिलीं. 2015: राजद और जदयू के साथ महागठबंधन में रहते हुए कांग्रेस 27 सीटें जीत पाई. 2020: फिर से कांग्रेस घटकर सिर्फ 19 सीटों पर रह गई.यह आंकड़े साफ बताते हैं कि कांग्रेस लगातार कमजोर होती गई और विपक्ष में भी उसकी भूमिका सीमित होती गई. बता दें कि इससे पहले 1952 से 1972 तक कांग्रेस बिहार की निर्विवाद शक्ति थी. लेकिन, 1977 आपातकाल के बाद कांग्रेस को करारा झटका लगा था. इसके बाद 1980 और 1985 में पार्टी ने फिर से मजबूत वापसी की, लेकिन यही उसका आखिरी सुनहरा दौर रहा. 1990 से लालू यादव के उभार के साथ कांग्रेस का पतन शुरू हो गया. ऐसे में आइये जानते हैं कि इससे पहले 1990 के दशक में मंडल आंदोलन से पहले 1952 से 1985 तक कांग्रेस की कैसी स्थिति रही थी.
बिहार विधानसभा में कांग्रेस का प्रदर्शन (1952–1985)
चुनाव वर्ष | कुल सीटें | कांग्रेस जीती सीटें | स्थिति कैसी/क्यों रही? |
1952 | 330 | 239 | कांग्रेस ने स्पष्ट बहुमत से सरकार बनाई |
1957 | 318 | 210 | कांग्रेस का दबदबा जारी रहा |
1962 | 318 | 185 | कांग्रेस फिर सबसे बड़ी पार्टी, सरकार बनाई |
1967 | 318 | 128 | कांग्रेस को झटका, पर सबसे बड़ी पार्टी रही, गैर–कांग्रेस दल मजबूत |
1969 | 318 | 118 | कांग्रेस की स्थिति और कमजोर, सत्ता अस्थिर |
1972 | 318 | 167 | इंदिरा लहर का असर, कांग्रेस ने वापसी की |
1977 | 324 | 57 | आपातकाल के बाद कांग्रेस बुरी तरह हारी, जनता पार्टी का दबदबा |
1980 | 324 | 169 | इंदिरा गांधी की वापसी के साथ सत्ता वापसी |
1985 | 239 | 196 | कांग्रेस का अंतिम स्वर्णिम चुनाव, भारी बहुमत से जीत |
लालू यादव के साये में कांग्रेस की कमजोरी
साफ है कि 1990 से पहले और 1990 के बाद की बिहार में कांग्रेस की राजनीति पूरी तरह से पलटी हुई दिख रही है. यह आंकड़ों में भी स्पष्ट तौर पर दिख रहा है. दरअसल, लालू यादव की राजनीति ने पिछड़ा और मुस्लिम वर्ग को मजबूती से जोड़ दिया. जो कांग्रेस पहले इन वर्गों के साथ ही सर्व समाज की राजनीति के आसरे वर्चस्व कायम रखती थी, वह धीरे-धीरे अप्रासंगिक होती गई. लालू यादव के दौर में मुस्लिम वोट लगभग पूरी तरह राजद के खाते में चला गया. सवर्ण भाजपा–जदयू के साथ गए, जबकि दलित वोटर कई खेमों में बंट गए. परिणाम यह हुआ कि कांग्रेस का कोई पुख्ता आधार ही नहीं बचा.
महागठबंधन में कांग्रेस की स्थिति
इसके बाद तो सियासत पूरी तरह उल्टी दिशा में घूम गई और कांग्रेस महागठबंधन में ‘छोटी पार्टनर’ बनकर रह गई. वर्ष 2015 में राजद–जदयू की जोड़ी ने कांग्रेस को अस्थायी सहारा दिया, लेकिन 2020 में स्थिति फिर कमजोर हो गई. पार्टी अब सीट बंटवारे में भी ‘सम्मानजनक हिस्सेदारी’ के लिए संघर्ष करती दिखती है.
तेजस्वी यादव की अगुवाई में राहुल गांधी की कांग्रेस की चुनावी लड़ाई, पटना में कांग्रेस वर्किंग कमिटी की बैठक में पुनर्जीवन की तैयारी. (फाइल फोटो)
पटना में कांग्रेस की बैठक से उम्मीदें
राजनीति के जानकार कहते हैं कि वर्ष 1940 के बाद दूसरी बार पटना में हो रही कांग्रेस वर्किंग कमिटी की बैठक का संदेश साफ है कि बिहार कांग्रेस को पुनर्जीवित करने की कवायद कर रही है. बिहार विधानसभा चुनाव से पहले पार्टी नेतृत्व इस बैठक के माध्यम से कार्यकर्ताओं को उत्साह देना चाहती है और बिहार में अपनी नई रणनीति बनाने के साथ ही उस पर आगे बढ़ना चाहती है.
क्या बिहार में कांग्रेस फिर खड़ी हो पाएगी?
हालांकि, राजनीति के जानकार मानते हैं कि सिर्फ बैठकों से पार्टी का पुराना जनाधार लौटना मुश्किल है. कांग्रेस के सामने सबसे बड़ी चुनौती है उसका अपना खोया हुआ वोट बैंक वापस पाना. मुस्लिम समाज पूरी तरह महागठबंधन में उसके अपने ही सहयोगी राजद के साथ है, जबकि सवर्ण और दलित वोट एनडीए में बंट चुके हैं. ऐसे में कांग्रेस को नए मुद्दे और युवाओं से सीधा जुड़ाव बनाना होगा. अगर रणनीति सही रही तो पटना बैठक एक नई शुरुआत हो सकती है.
पत्रकारिता क्षेत्र में 22 वर्षों से कार्यरत. प्रिंट, इलेट्रॉनिक एवं डिजिटल मीडिया में महत्वपूर्ण दायित्वों का निर्वहन. नेटवर्क 18, ईटीवी, मौर्य टीवी, फोकस टीवी, न्यूज वर्ल्ड इंडिया, हमार टीवी, ब्लूक्राफ्ट डिजिट...और पढ़ें
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First Published :
September 23, 2025, 11:11 IST