Last Updated:October 23, 2025, 14:19 IST
Bihar News: बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव एक वक्त प्रधानमंत्री बनने के बेहद करीब पहुंच चुके थे, लेकिन ऐन वक्त पर पासा पलट गया और देवगौड़ा को देश की कमान सौंपी गई. ऐसे ही कई रोचक सियासी घटनाक्रमों पर से परदा उठाती है 'नीले आकाश का सच' किताब...

साल 1996 का दौर भारतीय राजनीति के लिए अस्थिरता का दौर था. गैर-भाजपा व गैर-कांग्रेस पार्टियों के बनाए संयुक्त मोर्चा को प्रधानमंत्री पद के लिए एक सर्वसम्मत उम्मीदवार के नाम पर सहमति बनाने में भारी मशक्कत करनी पड़ रही थी. इसी सियासी उठा-पटक के बीच बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव की निगाहें भी दिल्ली के तख्त की ओर थीं. वे एक साल पहले ही अविभाजित बिहार के लगातार दूसरी बार मुख्यमंत्री बने थे. उन्होंने अपनी बिसात भी बिछा ली थी. लेकिन फिर हालात ऐसे बने कि उन्हें अपनी यह तमन्ना छोड़नी पड़ी. प्रधानमंत्री की कुर्सी एचडी देवगौड़ा को मिली. बाद में देवेगौड़ा भी ज्यादा समय टिक नहीं पाए और इंद्र कुमार गुजराल सत्ता में आए.
ऐसे ही कई रोचक सियासी घटनाक्रमों पर से पर्दा उठाती है वरिष्ठ पत्रकार अमरेंद्र कुमार की किताब ‘नीले आकाश का सच’. यह किताब बताती है कि ऊपर से नीले दिखने वाले सियासी आसमान के भीतर दरअसल साजिशों और भ्रष्टाचार की कितनी कालिख छिपी होती है. अमरेंद्र कुमार की यह किताब एक पत्रकार बतौर उनके बीते तीन दशक के अनुभवों का निचोड़ है. उन्हें इतने सालों के दौरान पत्रकारिता के जरिये बिहार और झारखंड की सियासत को करीब से देखने का मौका मिला है. ये किताब सिर्फ घटनाओं का दस्तावेज नहीं है, बल्कि यह भी उजागर करती है कि सत्ता की बिसात पर किस तरह से फैसले लिए जाते हैं और फिर इन फैसलों के दूरगामी नतीजे क्या निकलते हैं.
बिहार और झारखंड के अनसुने किस्से
किताब की शुरुआत ‘बिहार विभाजन और झारखंड गठन’ अध्याय से होती है, जिसमें झारखंड आंदोलन की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, संघर्ष और राज्य निर्माण की राजनीतिक खींचतान को विस्तार से बताया गया है. यह एक ऐतिहासिक घटनाक्रम था, जिसने देश के पूर्वी इलाके की राजनीतिक तस्वीर बदल दी थी. बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद लगातार कहते आ रहे थे कि झारखंड राज्य का गठन उनकी लाश पर ही हो सकता है.
तो फिर लालू प्रसाद आखिर क्यों और कैसे अलग झारखंड राज्य बनाने के लिए राजी हो गए? और जब नवगठित राज्य का मुख्यमंत्री चुनने का वक्त आया तो भाजपा के वरिष्ठ नेता करिया मुंडा के हाथों से यह मौका किस तरह रातों-रात छिन गया और बाबूलाल मरांडी झारखंड के पहले मुख्यमंत्री बने… इसकी परतें भी किताब बारीकी से खोलती है. अलग झारखंड राज्य के निर्माण की धुरी रहे शिबू सोरेन के साथ क्या राजनीतिक खेल हुआ और उन्हें सत्ता से दूर क्यों रखा गया, अमरेंद्र इस पर भी प्रकाश डालते हैं.
बिहार की राजनीति की बात उसके कुख्यात चारा घोटाले के बिना अधूरी है. किताब का एक पूरा अध्याय इसी घोटाले को समर्पित किया गया है. लेखक बताते हैं कि कैसे लालू प्रसाद ने शुरुआत में घोटाले से जुड़े माफिया पर एफआईआर के आदेश देने से इनकार कर दिया था, लेकिन अंततः उन्हें ऐसा करने पर मजबूर होना पड़ा. किताब यह भी उजागर करती है कि कैसे घोटालों के कर्ताधर्ताओं के आगे पूरा सिस्टम नतमस्तक हो जाता है. ‘गुप्त फंड का गुप्त उपयोग’, ‘खान और उद्योग’ और ‘शराब पर खेल’ जैसे अध्याय सत्ता और व्यावसायिक घरानों के नापाक गठजोड़ को उजागर करते हैं. ये दिखाते हैं कि किस तरह प्राकृतिक संसाधनों और योजनाओं का इस्तेमाल निजी स्वार्थों को साधने में किया गया और आज भी किया जा रहा है.
अमरेंद्र कुमार एक पत्रकार के तौर पर पटना से लेकर रांची तक के सियासी हलचलों के साक्षी रहे हैं. दरअसल, राजनीति में ऊपर से जो नजर आता है, वैसा अंदर भी हो, यह जरूरी नहीं है. इसे समझने के लिए जो तीक्ष्ण दृष्टि और समझ चाहिए, वह गहन अनुभवों से आती है. किताब में आप उसी दृष्टि और समझ से रूबरू होते हैं.
ऐसा भी नहीं है कि किताब केवल घोटालों-घपलों या सियासी साजिशों तक ही सीमित है. इसमें लेखक की लेखकीय संवेदनशीलता और किस्सागोई शैली की झलक भी देखने को मिलती है. किताब का तीसरा अध्याय ‘लालू प्रसाद और राबड़ी देवी के रोचक किस्से’ राजनीति के मानवीय और नाटकीय पहलुओं को सामने लाता है. खासकर साल 2001 में दरभंगा में आई बाढ़ के समय लालू और राबड़ी देवी का सत्तू और चूरा खाने का वृतांत न केवल लालू-राबड़ी दंपती की सहजता को बताता है, बल्कि यह भी दिखाता है कि खबरों में बने रहने के लिए लालू किस तरह के फंडे अपनाया करते थे.
कुल मिलाकर, ‘नीले आकाश का सच’ बिहार और झारखंड की राजनीति की उस धूलभरी जमीन से निकली कहानी है, जिसमें सत्ता की कड़वी सच्चाई, भ्रष्टाचार की गंध और उम्मीदों का नीला आकाश, सब एक साथ सांस लेते हैं. यह किताब न सिर्फ राजनीति की परतें खोलती है, बल्कि यह भी बताती है कि एक साहसी पत्रकार अपनी कलम से इतिहास को कैसे दर्ज करता है. यह किताब पत्रकारिता, राजनीति और समाज के उन अदृश्य सूत्रों को भी जोड़ने का काम करती है, जिनसे ही भारत के लोकतंत्र की असल तस्वीर बनती है.
रशीद किदवई देश के जाने वाले पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं. वह ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन (ORF) के विजिटिंग फेलो भी हैं. राजनीति से लेकर हिंदी सिनेमा पर उनकी खास पकड़ है. 'सोनिया: ए बायोग्राफी', 'बैलट: टेन एपिस...और पढ़ें
रशीद किदवई देश के जाने वाले पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं. वह ऑब्जर्वर रिसर्च फाउंडेशन (ORF) के विजिटिंग फेलो भी हैं. राजनीति से लेकर हिंदी सिनेमा पर उनकी खास पकड़ है. 'सोनिया: ए बायोग्राफी', 'बैलट: टेन एपिस...
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Location :
New Delhi,Delhi
First Published :
October 23, 2025, 14:12 IST