Last Updated:December 26, 2025, 04:53 IST
Manmohan Singh Death Anniversary: 26 दिसंबर 2024 को दुनिया को अलविदा कहने वाले पूर्व पीएम डॉ. मनमोहन सिंह एक ऐसे नेता थे जिन्होंने कभी लोकसभा चुनाव नहीं जीता, फिर भी 10 साल देश चलाया. विपक्ष ने उन्हें 'कमजोर' और 'रिमोट कंट्रोल' पीएम कहा. जिसके जवाब में पीएमओ को बाकायदा सबूत देना पड़ा कि उन्होंने 1198 भाषण दिए हैं. (All Photos : PTI Archives)

'हजारों जवाबों से अच्छी है मेरी खामोशी, न जाने कितने सवालों की आबरू रखी.' संसद के गलियारों में गूंजी ये पंक्तियां सिर्फ एक शेर नहीं थीं, बल्कि एक ऐसे प्रधानमंत्री का जवाब थीं जिसे दुनिया ने 'मौन' मान लिया था. 26 दिसंबर की तारीख भारतीय राजनीति के लिए एक भावुक दिन है. 2024 में इसी दिन देश के पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने दुनिया को अलविदा कह दिया था. एक ऐसे नेता जिन्होंने कभी लोकसभा का चुनाव नहीं जीता, जिन्हें 'एक्सीडेंटल प्राइम मिनिस्टर' कहा गया, लेकिन जिन्होंने 10 साल तक दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की कमान संभाली. उनकी खामोशी में भी एक शोर था, जिसे इतिहास अब सुन रहा है.

26 सितंबर 1932 को अविभाजित भारत (अब पाकिस्तान) के पंजाब में जन्मे मनमोहन सिंह की कहानी किसी फिल्मी पटकथा से कम नहीं है. वे न तो पैदाइशी नेता थे और न ही राजनीति उनका शौक था. वे एक अर्थशास्त्री थे, एक ब्यूरोक्रेट थे. हालात की मजबूरियां और किस्मत का खेल उन्हें पहले वित्त मंत्री और फिर सीधे प्रधानमंत्री की कुर्सी तक ले आया. हैरानी की बात यह है कि 10 साल तक देश चलाने वाले मनमोहन सिंह ने कभी लोकसभा का चुनाव नहीं जीता. वे हमेशा राज्यसभा के रास्ते संसद पहुंचे और देश चलाया. उन्होंने अपनी आंखों के सामने देश को आर्थिक महाशक्ति बनते देखा और अपनी ही सरकार को भ्रष्टाचार के दलदल में धंसते भी देखा, लेकिन उनकी व्यक्तिगत छवि हमेशा बेदाग रही.

मनमोहन सिंह का कार्यकाल आसान नहीं था. विपक्ष ने उनकी छवि एक 'कमजोर' और 'रिमोट कंट्रोल' वाले प्रधानमंत्री की बना दी थी. भाजपा के दिग्गज नेता लालकृष्ण आडवाणी ने उन पर अब तक का सबसे तीखा हमला बोला था. आडवाणी ने एक भाषण में कहा था, 'मैंने ऐसा कमजोर प्रधानमंत्री पहले कभी नहीं देखा. जब भी मैंने उनको कमजोर कहा है, मेरे मन में एक ही भाव रहा है कि हिंदुस्तान में लोकतंत्र है और लोकतंत्र में सबसे महत्वपूर्ण पता प्रधानमंत्री निवास (7 रेस कोर्स रोड) का होता है, लेकिन आज उसका कोई महत्व नहीं रह गया है.' इशारा साफ था कि सत्ता की असली चाबी 10 जनपथ (सोनिया गांधी) के पास है.
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आरोप इतने बढ़ गए थे कि इतिहास में पहली बार प्रधानमंत्री कार्यालय (PMO) को सफाई देने के लिए प्रेस कॉन्फ्रेंस करनी पड़ी. मनमोहन सिंह के मीडिया सलाहकार रहे पंकज पचौरी ने मीडिया के सामने आकर आंकड़ों का हिसाब दिया. उन्होंने बताया कि मनमोहन सिंह 'मौन' नहीं हैं. उन्होंने अपने 10 साल के कार्यकाल में लगभग 1198 बार भाषण दिए. यानी औसतन हर तीसरे दिन प्रधानमंत्री ने कुछ न कुछ बोला था. लेकिन धारणा (Perception) इतनी मजबूत थी कि ये आंकड़े भी उनकी 'खामोश' छवि को नहीं तोड़ पाए.

यूपीए-2 के दौरान जब 2जी स्पेक्ट्रम और कोयला घोटाले ने सरकार की नींव हिला दी थी, तब भी मनमोहन सिंह खामोश रहे. लेकिन 27 अगस्त 2012 को संसद में उन्होंने अपनी चुप्पी तोड़ी और वही मशहूर शेर पढ़ा- 'हजारों जवाबों से अच्छी है मेरी खामोशी...' विरोधियों ने उन्हें 'रिमोट कंट्रोल पीएम' कहा, उन पर फैसले न लेने का आरोप लगाया. लेकिन यह भी सच है कि परमाणु डील (Nuclear Deal) के मुद्दे पर यही 'कमजोर' प्रधानमंत्री अपनी ही सरकार को दांव पर लगाने से पीछे नहीं हटा था.

अपने विदाई भाषण में मनमोहन सिंह ने कहा था, 'मुझे उम्मीद है कि इतिहास मेरे साथ मीडिया की तुलना में ज्यादा नरमी से पेश आएगा.' आज जब हम पीछे मुड़कर देखते हैं, तो उनकी यह बात सच साबित होती है. 26 दिसंबर 2024 को जब उनकी सांसें थमीं, तो देश ने एक ऐसे विद्वान को खो दिया जिसकी खामोशी में देश की अर्थव्यवस्था को बदलने की ताकत थी. वे भारतीय राजनीति के वो 'खामोश योद्धा' थे, जिनके काम का शोर उनके जाने के बाद सुनाई दे रहा है.

मनमोहन सिंह को केवल प्रधानमंत्री के रूप में याद रखना उनके साथ नाइंसाफी होगी. 1991 में जब भारत अपना सोना गिरवी रखने की कगार पर था, तब वित्त मंत्री के रूप में मनमोहन सिंह ने ही 'आर्थिक उदारीकरण' (Liberalization) का दरवाजा खोला था. आज अगर हम विदेशी ब्रांड्स, एमएनसी और ग्लोबल इकोनॉमी की बात करते हैं, तो उसकी नींव मनमोहन सिंह ने ही रखी थी. उन्होंने विक्टर ह्यूगो को कोट करते हुए कहा था- 'दुनिया की कोई ताकत उस विचार को नहीं रोक सकती जिसका समय आ गया है.'
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2 hours ago
