आज सरदार वल्लभभाई पटेल की 75वीं पुण्यतिथि है. ‘लौह पुरुष’ के नाम से मशहूर देश के पहले गृहमंत्री ने भारत की आजादी के बाद 562 रियासतों को एकजुट करके एक अखंड भारत के निर्माण में बड़ी भूमिका निभाई. उनकी दूरदर्शिता, निर्णायक क्षमता और साम्प्रदायिक सद्भाव की भावना ने देश को मजबूत नींव दी. लेकिन आज जब हम उनकी याद करते हैं, तो एक ऐसा विवाद सामने आता है जो दशकों तक भारत की राजनीति और समाज को प्रभावित करता रहा… बाबरी मस्जिद-राम जन्मभूमि विवाद.
1949 में अयोध्या की बाबरी मस्जिद में राम और सीता की मूर्तियां रखे जाने की घटना पर पटेल की क्या राय थी? क्या उन्होंने इस कदम का समर्थन किया या विरोध? यह कुछ ऐसे सवाल हैं जो रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह के हालिया बयान के बाद एक बार फिर उठ खड़े हुए हैं. उन्होंने कहा था, ‘जब पंडित जवाहरलाल नेहरू सरकारी खजाने से पैसा खर्च करके बाबरी मस्जिद बनवाने की चर्चा छेड़ी थी तो उसका भी विरोध सरदार वल्लभ भाई पटेल ने किया था. उस समय उन्होंने सरकारी पैसे से बाबरी मस्जिद नहीं बनने दिया.’ तो चलिये आज सरदार पटेल की पुण्यतिथि के मौके पर इन सवालों के जवाब ढूंढते हैं….
सरदार पटेल का जन्म 31 अक्टूबर 1875 को गुजरात के नडियाद में हुआ था. वे एक किसान परिवार से थे, लेकिन अपनी मेहनत से बैरिस्टर बने और स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े. महात्मा गांधी के करीबी रहे पटेल ने बारदोली सत्याग्रह से ‘सरदार’ की उपाधि पाई. आजादी के बाद वे भारत के पहले गृह मंत्री बने. 15 दिसंबर 1950 को हृदयाघात से उनका निधन हुआ. उनकी पुण्यतिथि पर हम उनकी विरासत को याद करते हैं, जिसमें साम्प्रदायिक सद्भाव एक प्रमुख हिस्सा है.
बाबरी मस्जिद में मूर्तियों पर नेहरू का क्या कहना था?
पटेल ने हमेशा कहा कि भारत की एकता विभिन्नता में है, और किसी भी विवाद को बलपूर्वक नहीं सुलझाया जाना चाहिए. यही दृष्टिकोण अयोध्या विवाद में भी झलकता है. 1949 का वह साल था जब भारत आजादी के दो साल बाद भी विभाजन की पीड़ा से उबर रहा था. लाखों लोग विस्थापित हुए थे, साम्प्रदायिक दंगे हुए थे. ऐसे में 22 दिसंबर 1949 की रात को कुछ लोग अयोध्या की बाबरी मस्जिद में घुसे और केंद्रीय गुंबद के नीचे राम और सीता की मूर्तियां रख दीं. स्थानीय प्रशासन ने मूर्तियां हटाने से इनकार कर दिया, और जिला मजिस्ट्रेट केके नैयर ने इसे ‘दिव्य चमत्कार’ करार दिया.
इस घटना ने पूरे देश में हलचल मचा दी. प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू इससे बेहद नाराज थे. नेहरू आर्काइव्स में संरक्षित पत्रों से पता चलता है कि नेहरू ने उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत को कई पत्र लिखे. 26 दिसंबर 1949 को नेहरू ने तार भेजा: ‘अयोध्या की घटनाओं से मैं परेशान हूं. आशा है कि आप व्यक्तिगत रूप से इस मामले में दिलचस्पी लेंगे. वहां एक ख़तरनाक उदाहरण पेश हो रहा है जो बुरे नतीजे देगा.’
नेहरू का मानना था कि यह घटना कश्मीर मुद्दे और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पाकिस्तान के साथ भारत की छवि को प्रभावित करेगी. फरवरी 1950 में उन्होंने पंत को लिखा कि अयोध्या की स्थिति पूरे भारत, खासकर कश्मीर पर असर डालेगी. उन्होंने खुद अयोध्या जाने की पेशकश की, लेकिन पंत ने कहा कि समय सही नहीं है. नेहरू ने फिर उसी साल अप्रैल में पंत को एक और पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने कहा कि यूपी का माहौल साम्प्रदायिक हो रहा है, और कांग्रेस के सदस्य हिंदू महासभा जैसे बोल रहे हैं. नेहरू का रुख स्पष्ट था कि मूर्तियां हटाई जाएं, कानून का पालन हो.
क्या सोचते थे सरदार पटेल?
अब बात सरदार पटेल की. पटेल भी इस घटना से चिंतित थे, लेकिन उनका दृष्टिकोण नेहरू से थोड़ा अलग था, अधिक व्यावहारिक और संतुलित. ‘सरदार पटेल्स कॉरस्पॉन्डेंस’ (वॉल्यूम 9, संपादक दुर्गा दास) में उनका पत्र दर्ज है, जो उन्होंने पंत को लिखा. पटेल ने पंत को लिखा, ‘प्रधानमंत्री ने आपको पहले ही एक तार भेजा है जिसमें उन्होंने अयोध्या की घटनाओं पर चिंता जताई है. मैंने भी लखनऊ में आपसे इस पर बात की थी. मुझे लगता है कि यह विवाद बेहद अनुचित समय पर उठाया गया है…’
उन्होंने आगे कहा कि बड़े साम्प्रदायिक मुद्दों को हाल में सहमति से सुलझाया गया है, मुसलमान नए परिवेश में स्थिर हो रहे हैं, और वफादारियों के बदलाव की संभावना कम है. पटेल ने जोर दिया, ‘मेरा मानना है कि इस मुद्दे को आपसी सहनशीलता और सद्भाव की भावना में शांतिपूर्वक सुलझाया जाना चाहिए. मैं समझता हूं कि जो कदम उठाया गया है उसके पीछे गहरा भावनात्मक तत्व है.’ लेकिन उन्होंने साफ कहा कि ‘ऐसी बातें तभी शांतिपूर्वक हल हो सकती हैं जब हम मुस्लिम समुदाय की स्वेच्छा को अपने साथ लें. ज़बरदस्ती से ऐसे विवाद नहीं सुलझाए जा सकते. उस स्थिति में कानून और व्यवस्था की ताक़तों को हर हाल में शांति बनाए रखनी पड़ेगी.’
विवाद सुलझाने पर पटेल की क्या थी राय?
पटेल का रुख संतुलित था. वे हिंदू भावनाओं को समझते थे. ‘गहरा भावनात्मक तत्व’ का जिक्र इसी ओर इशारा करता है, लेकिन वे किसी भी पक्ष को फायदा पहुंचाने के खिलाफ थे. उन्होंने लिखा कि ‘किसी भी आक्रामक या दबाव आधारित एकतरफा कार्रवाई को स्वीकार नहीं किया जा सकता.’ पटेल ने जोर दिया कि मुद्दे को ‘जीवंत नहीं बनाया जाना चाहिए’ और मौजूदा विवादों को शांतिपूर्ण तरीके से हल किया जाए.
कुछ स्रोतों में कहा जाता है कि पटेल मूर्तियां हटाने के पक्ष में थे, लेकिन उनके पत्र से स्पष्ट है कि वे बल प्रयोग के खिलाफ थे, क्योंकि इससे दंगे हो सकते थे. पटेल की व्यावहारिकता यहां दिखती है. वे जानते थे कि विभाजन के बाद साम्प्रदायिक तनाव उच्च स्तर पर था, और कोई भी कदम स्थिति बिगाड़ सकता था. पटेल की सोच को समझने के लिए उनके समग्र विचारों को देखें. वे हिंदू-मुस्लिम एकता के पक्षधर थे.
पटेल ने कभी मस्जिद का विरोध नहीं किया, बल्कि वे सद्भाव पर जोर देते थे. नेहरू-पटेल के बीच मतभेद थे, लेकिन अयोध्या पर दोनों चिंतित थे. पटेल की मृत्यु के बाद यह विवाद बढ़ता गया, जो 1992 में बाबरी विध्वंस तक पहुंचा. आज पटेल की पुण्यतिथि पर हमें उनकी शिक्षाओं को याद करना चाहिए… एकता, सद्भाव और कानून का शासन. पटेल की सोच थी कि धार्मिक विवादों को राजनीति से दूर रखा जाए. अयोध्या विवाद पर उनके विचार हमें सिखाते हैं कि भावनाओं का सम्मान करें, लेकिन सहमति के बिना कोई कदम न उठाएं. आज जब राम मंदिर बन चुका है, पटेल की विरासत हमें याद दिलाती है कि शांति ही स्थायी समाधान है.

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