खाने में कमी पर आगबबूला हो जाती थी नूरजहां, उसके गुस्से से कांपती थी शाही किचन

8 hours ago

ये बात काफ़ी हद तक सही मानी जाती है कि नूरजहां खाने-पीने और शाही रसोई को लेकर बहुत “पजेसिव” और सख़्त थीं. शाही किचन के बनाए खानों में जरा भी कमी बर्दाश्त नहीं कर पाती. खाना अगर खराब हुआ तो उसका पारा चढ़ जाता था. शाही किचन का स्टाफ नूरजहां से घबराया रहता था. शाही रसोई उसके लिए केवल भोजन बनाने वाली जगह नहीं बल्कि सत्ता, शान और नियंत्रण का प्रतीक थी.

नूरजहां यानि मेहर-उन-निसा जब जहांगीर की सबसे प्रभावशाली बेगम बनीं, तब उसने केवल प्रशासन और राजनीति में नहीं, बल्कि रोज़मर्रा की दरबारी ज़िंदगी खासकर खानपान में भी दख़ल दिया. शाही किचन पर उसी का हुक्म चलता था. वो तय करती थी कि शाही दस्तख़्वान पर क्या परोसा जाएगा. कौन-सा व्यंजन किस मौक़े पर बनेगा. मसालों की मात्रा कितनी होगी और पकाने का तरीक़ा क्या होगा – इन सब पर उसकी निगरानी रहती थी.

नूरजहां का स्वाद ईरानी-मध्य एशियाई परंपरा से काफ़ी प्रभावित था. उसने शाही रसोई में कई बदलाव कराए, तब किचन में फारसी असर बढ़ा. जिसमें हल्के मसालों, केसर, गुलाबजल, केवड़ा, सूखे मेवे और मांस को धीमी आंच पर पकाने पर जोर दिया जाता था. उसने किचन में कुछ स्वाद जोड़े. शोरबे में शोरबे में खुशबू और रंग पर ज़ोर दिया. नूरजहां को नफ़ासत वाली मिठाइयां पसंद थीं. कम भारी, ज़्यादा खुशबूदार, जिनकी सजावट पर भी उसका खास ध्यान होता था.

क्या वह रसोई में ग़लतियों पर नाराज़ होती थीं?

दरबारी वर्णनों के अनुसार, अगर खाने में नमक ज़्यादा हो जाए, खुशबू कम लगे या व्यंजन उनके तय मानक से नीचे हो तो रसोइयों की खैर नहीं होती थी. तब वह नाराज हो जाया करती थी. कड़ी फटकार लगाती थी. रसोई स्टाफ में ऊपर से लेकर नीचे तक नौकरियाें चली जाती थीं. वह मानती थी कि शाही रसोई में गलती सिर्फ़ स्वाद की नहीं, प्रतिष्ठा की भी बात मानी जाती थी – ख़ासकर जब विदेशी मेहमान या अमीर-उमराव मौजूद हों.

क्यों इतना सख्ती करती थी

नूरजहां की सख़्ती के पीछे तीन बड़े कारण दिखते हैं.
1. भोजन पर नियंत्रण का मतलब था सम्राट के दैनिक जीवन पर नियंत्रण
2. जहांगीर शराब और अफ़ीम का आदी था, नूरजहां उनके खानपान को संतुलित रखने की कोशिश करती थीं
3. मुग़ल दरबार को दुनिया का सबसे सुसंस्कृत दरबार दिखाना

नूरजहां को अक्सर ज़िद्दी, कंट्रोलिंग और तेज मिजाज कहा जाता है. आधुनिक इतिहासकार मानते हैं कि रसोई पर उसका नियंत्रण भी उसी सत्ता का विस्तार था.

जब खाने में नमक ज्यादा हुआ

ये क़िस्सा जहांगीर के आख़िरी वर्षों से जोड़ा जाता है. कहा जाता है कि एक दिन जहांगीर के लिए परोसे गए कोरमे में नमक ज़रा-सा ज़्यादा था. जहांगीर ने भले ही खुलकर कुछ नहीं कहा, लेकिन नूरजहां ने एक ही कौर में यह महसूस कर लिया.

दरबारी विवरणों के अनुसार, नूरजहां ने उसी समय रसोई के दारोग़ा को बुलवाया. उसने कहा, “यह आम आदमी का नहीं, बादशाह-ए-हिंद का खाना है. यहां गलती लापरवाही नहीं, बेअदबी है.” उसी दिन मुख्य बावर्ची को हटा दिया गया. कुछ समय के लिए उसे शाही रसोई से अलग कर दिया गया. नूरजहां स्वाद की गलती को भी शाही अपमान मानती थी.

खुशबू नहीं आई तो खाना लौटा दिया

फ़ारसी परंपरा में भोजन की खुशबू बहुत अहम मानी जाती थी. नूरजहां इस पर खास ज़ोर देती थी. एक बार यख़नी जैसा हल्का शोरबा परोसा गया. स्वाद ठीक था लेकिन उसमें केवड़ा या गुलाबजल की हल्की खुशबू नहीं थी. किस्से के मुताबिक, नूरजहां ने थाली हाथ लगाए बिना लौटा दी. उसने कहा, “जो नाक को पहले न भाए, वह ज़बान को कैसे भाएगा.”

उस दिन के बाद रसोई में “खुशबूदार मसालों” की अलग निगरानी तय की गई और इत्रची से सलाह लेकर खाने में खुशबू का संतुलन तय किया गया.

विदेशी मेहमान और बिगड़ा स्वाद

यह क़िस्सा तब का है जब मुग़ल दरबार में फारसी या मध्य एशियाई मेहमान आए हुए थे. भोजन परोसा गया, लेकिन मसाले भारतीय स्वाद के हिसाब से कुछ ज़्यादा तीखे थे. नूरजहां को यह बिल्कुल पसंद नहीं आया. दरबारी लेखों में संकेत मिलता है कि नूरजहां ने कहा, “हमारा दरबार दुनिया का आईना है.
अगर स्वाद में संतुलन नहीं, तो शान में भी नहीं.” उस दिन पूरे रसोई स्टाफ़ को बेशक नहीं बदला गया लेकिन मेन्यू तय करने का अधिकार पूरी तरह नूरजहां के पास चला गया. उसके बाद रसोई सिर्फ़ बावर्चियों की नहीं बेगम की पसंद से चलने लगी.

क्या थे उसके पसंदीदा व्यंजन

यखनी नूरजहां का सबसे पसंदीदा मांसाहारी व्यंजन माना जाता है. ये मटन या चिकन का बेहद हल्के शोरबे का व्यंजन था, जो साबुत मसाले और बिना मिर्च या कम मिर्च से बनता था. इसे सेहत के लिए बेहतर मानते थे. फारसी स्वाद के भी करीब था. कोरमा भी नूरजहां का पसंदीदा था, जो दही या बादाम , खसखस की हल्की ग्रेवी से बनता था. इसमें केसर की कुछ लड़ियां भी डाली जाती थीं. इसमें मीठे और नमकीन का संतुलन होता था. कहां जाता है कि कोरमे को “शाही नफ़ासत” का दर्जा नूरजहां के समय मिला.

नूरजहां को मसालेदार तंदूरी कबाब नहीं बल्कि नरम, रसदार, कम मसाले वाले कबाब पसंद थे. चावल उसके भोजन का अहम हिस्सा था. वह जहां भारी हलवों और अत्यधिक मीठी मिठाइयों से दूर रहती थीं. उसे फलों से विशेष लगाव था.

नाराजगी में क्या खानसामों की पिटाई कर देती थी

हालांकि ये किस्से भी प्रचलित है कि शाही किचन के खाने में गड़बड़ी पर कभी कभी नूरजहां को इतना तेज गुस्सा आता था कि वो स्टाफ की पिटाई भी कर देती थी लेकिन ये बातें दरबारी गपशप या औपनिवेशिक काल के लेखकों की अतिरंजित कहानियां ज्यादा लगती हैं. यहां ये समझना जरूरी है कि मुग़ल बेगम, चाहे कितनी शक्तिशाली क्यों न हो, सीधे हाथ उठाना शाही मर्यादा के ख़िलाफ़ माना जाता था. नूरजहां गंभीर गलतियों पर खानसामे को तुरंत हटा देती थी, वेतन रोक देती थी या दूसरे विभाग में भेज देती थी. वह सख्त थी.

इतिहासकार क्या कहते हैं?

आधुनिक इतिहासकार मानते हैं कि खाने को लेकर नूरजहां की नाराज़गी व्यक्तिगत चिड़चिड़ापन नहीं थी बल्कि यह सत्ता, अनुशासन और शाही गरिमा बनाए रखने का तरीका था. शाही रसोई उस दौर में राजनीति का विस्तार थी. नूरजहां उसे पूरी तरह अपने नियंत्रण में रखना चाहती थी.

सोर्स
जहांगीर की आत्मकथा – तुज़ुक-ए-जहाँगीरी
यूरोपीय यात्रियों के विवरण (हॉकिन्स, फ़िंच आदि)

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