Last Updated:October 21, 2025, 07:26 IST
अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया ने 8.5 बिलियन डॉलर की रेयर अर्थ और क्रिटिकल मिनरल्स डील की है. इससे अमेरिका की चीन पर निर्भरता कम होगी. ऐसे में सवाल उठता है कि जब अमेरिका क्वाड साझेदारों से खनिज समझौते कर सकता है, तो फिर भारत अगर चीन से अपने हित में इसी तरह की डील करे, तो क्या दिक्कत है?

अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया के बीच रेयर अर्थ और क्रिटिकल मिनरल्स पर एक बड़ा समझौता हुआ है. अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और ऑस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री एंथनी अल्बनीज ने सोमवार को इस समझौते पर हस्ताक्षर किए. दोनों QUAD (क्वाड) पार्टनर्स के बीच यह समझौता ऐसे वक्त में हुआ है जब चीन अपने रेयर अर्थ मिनरल्स की सप्लाई पर कंट्रोल कस रहा है.
व्हाइट हाउस में हुए इस समझौते को लेकर ट्रंप ने बताया कि यह डील चार से पांच महीने की गहन बातचीत के बाद पूरी हुई है. इस मौके पर दोनों नेताओं ने व्यापार, रक्षा उपकरण और पनडुब्बी समझौते जैसे मुद्दों पर भी चर्चा की. अल्बानीज़ ने इस समझौते को 8.5 बिलियन डॉलर (करीब 71,000 करोड़ रुपये) की आर्थिक पाइपलाइन करार दिया. इस समझौते के तहत, दोनों देश अगले छह महीनों में खनन और प्रोसेसिंग परियोजनाओं में निवेश करेंगे. इतना ही नहीं, उन्होंने क्रिटिकल मिनरल्स के लिए न्यूनतम मूल्य (Price Floor) भी तय करने का फैसला किया है, जिसकी मांग पश्चिमी खनन कंपनियां लंबे समय से कर रही थीं.
दरअसल, चीन के पास दुनिया के सबसे बड़े रेयर अर्थ रिज़र्व्स हैं, लेकिन ऑस्ट्रेलिया भी इस क्षेत्र में एक प्रमुख खिलाड़ी है. यही वजह है कि अमेरिका अब अपने QUAD पार्टनर ऑस्ट्रेलिया पर निर्भरता बढ़ा रहा है, ताकि वह चीन की सप्लाई चेन पर निर्भर न रहे. पर सवाल यह उठता है कि जब अमेरिका अपने रणनीतिक साझेदारों से खनिज समझौते कर सकता है, तो भारत अगर चीन से अपने हित में इसी तरह की डील करे, तो क्या दिक्कत है?
अमेरिका और ऑस्ट्रेलिया के बीच यह डील केवल आर्थिक नहीं, बल्कि भू-राजनीतिक रणनीति का हिस्सा है. पश्चिमी देश अब चीन पर निर्भरता कम करना चाहते हैं, क्योंकि रेयर अर्थ मिनरल्स जैसे नियोडिमियम, डिस्प्रोसियम और लैंथेनम इलेक्ट्रिक वाहनों, जेट इंजनों और रक्षा रडारों के निर्माण में जरूरी हैं.
वहीं दूसरी तरफ चीन ने हाल के महीनों में रेयर अर्थ निर्यात नियंत्रण को और कड़ा कर दिया है, जिससे वैश्विक सप्लाई चेन पर दबाव बढ़ गया है. अमेरिका और उसके सहयोगी देशों ने बीजिंग की इस नीति को वैश्विक उद्योगों के लिए खतरा बताया है.
भारत के लिए यह घटनाक्रम बेहद अहम है. अमेरिका अपने क्वाड सहयोगी ऑस्ट्रेलिया से रेयर अर्थ और क्रिटिकल मिनरल्स ले रहा है, ताकि चीन पर निर्भरता घटा सके, जबकि भारत अपनी ऊर्जा, तकनीकी और रक्षा जरूरतों के लिए अभी भी कई मामलों में चीन से आयात पर निर्भर है.
तो सवाल यह है कि अगर भारत भी अपने राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रखते हुए चीन से आवश्यक संसाधनों की डील करे, तो उसे ‘रणनीतिक जोखिम’ क्यों माना जाए, जबकि अमेरिका यही काम अपने साझेदारों के साथ कर रहा है?
यह डील न सिर्फ अमेरिका-ऑस्ट्रेलिया के आर्थिक रिश्तों को गहरा करेगी, बल्कि इंडो-पैसिफिक क्षेत्र में शक्ति संतुलन को भी नए सिरे से परिभाषित करेगी. जहां पश्चिम चीन से दूरी बनाने में लगा है, वहीं भारत को यह तय करना होगा कि वह वैश्विक राजनीति की दिशा के साथ चलेगा या अपने संसाधन हितों के अनुसार रास्ता चुनेगा.
An accomplished digital Journalist with more than 13 years of experience in Journalism. Done Post Graduate in Journalism from Indian Institute of Mass Comunication, Delhi. After Working with PTI, NDTV and Aaj T...और पढ़ें
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Location :
New Delhi,Delhi
First Published :
October 21, 2025, 07:26 IST