₹400 करोड़ vs ₹550 करोड़ : ISRO और SpaceX में से कौन है असली 'पैसा वसूल'?

2 hours ago

नई दिल्ली: आज सुबह जब श्रीहरिकोटा से इसरो के ‘बाहुबली’ रॉकेट LVM3 ने उड़ान भरी, तो उसकी गूंज सिर्फ भारत में नहीं बल्कि पूरी दुनिया में सुनाई दी. इसरो ने अमेरिकी कंपनी के 6100 किलो वजनी ‘ब्लू बर्ड’ सैटेलाइट को सफलतापूर्वक स्पेस में पहुंचा दिया है. इस सफलता के साथ ही एक पुरानी बहस फिर से जिंदा हो गई है. स्पेस मार्केट में आखिर कौन सा खिलाड़ी सबसे किफायती है? एक तरफ भारत का इसरो है जो अपनी ‘जुगाड़’ और सस्ती इंजीनियरिंग (Frugal Engineering) के लिए जाना जाता है. दूसरी तरफ एलन मस्क की कंपनी स्पेस-एक्स है जो रॉकेट को दोबारा इस्तेमाल (Reuse) करके कीमतें घटा रही है. आज हम आंकड़ों के जरिए समझेंगे कि आखिर किसका रॉकेट सस्ता पड़ता है और ग्लोबल मार्केट में भारत कहां खड़ा है.

इसरो बनाम स्पेस-एक्स: लॉन्च की कीमत का पूरा गणित

सबसे पहले बात करते हैं एलन मस्क की कंपनी स्पेस-एक्स की. उनका ‘फाल्कन 9’ (Falcon 9) रॉकेट दुनिया का सबसे व्यस्त रॉकेट है. रिपोर्ट्स के मुताबिक फाल्कन 9 के एक लॉन्च की कीमत करीब 6.7 करोड़ डॉलर (लगभग 550 से 560 करोड़ रुपए) आती है. वहीं, इसरो के LVM3 रॉकेट की बात करें तो इसकी एक लॉन्च की लागत करीब 400 से 450 करोड़ रुपए के बीच बताई जाती है.

पहली नजर में देखने पर इसरो का रॉकेट एलन मस्क के रॉकेट से सस्ता लगता है. कुल लागत के मामले में भारत आज भी दुनिया के कई देशों से बहुत आगे है. लेकिन यहां एक पेंच है. यह पेंच है ‘कॉस्ट पर केजी’ (Cost per kg) का. यानी 1 किलो वजन को अंतरिक्ष में भेजने का खर्च कितना आता है? इसी गणित में असली खेल छिपा है.

वजन उठाने की क्षमता में कौन है ‘बाहुबली’?

इसरो का LVM3 रॉकेट लो अर्थ ऑर्बिट (LEO) में करीब 8,000 से 10,000 किलोग्राम तक वजन ले जा सकता है. आज इसने 6,100 किलो का पेलोड उठाया जो इसका रिकॉर्ड है. दूसरी तरफ स्पेस-एक्स का फाल्कन 9 रॉकेट लो अर्थ ऑर्बिट तक 22,800 किलोग्राम वजन ले जा सकता है. चूंकि फाल्कन 9 एक बार में बहुत ज्यादा वजन ले जा सकता है, इसलिए उसका ‘प्रति किलो’ खर्च कम हो जाता है.

आंकड़ों के हिसाब से स्पेस-एक्स का खर्च लगभग 2,700 से 3,000 डॉलर प्रति किलो आता है. जबकि इसरो का LVM3 अभी थोड़ा महंगा पड़ता है. लेकिन अगर हम छोटे रॉकेट्स और पीएसएलवी (PSLV) की बात करें तो भारत आज भी दुनिया में सबसे सस्ते विकल्पों में से एक है.

एलन मस्क के पास है ‘ब्रह्मास्त्र’, लेकिन इसरो भी कम नहीं

स्पेस-एक्स की सबसे बड़ी ताकत है ‘रियूजेबिलिटी’ (Reusability). एलन मस्क के रॉकेट स्पेस में जाकर वापस धरती पर लौट आते हैं. उनका इंजन और बॉडी दोबारा इस्तेमाल हो जाता है. इससे उनकी लागत बहुत कम हो जाती है. इसरो का LVM3 रॉकेट अभी ‘एक्सपेंडेबल’ है. यानी यह एक बार इस्तेमाल होने के बाद नष्ट हो जाता है. हर लॉन्च के लिए नया रॉकेट बनाना पड़ता है. यही वजह है कि इसरो अभी स्पेस-एक्स से थोड़ा पीछे है.

लेकिन इसरो चुप नहीं बैठा है. भारत भी अपने रीयूजेबल लॉन्च व्हीकल (RLV) और नए रॉकेट NGLV (नेक्स्ट जनरेशन लॉन्च व्हीकल) पर काम कर रहा है. जिस दिन भारत ने रॉकेट को वापस लैंड कराना सीख लिया, उस दिन वह कीमत के मामले में मस्क को पछाड़ देगा.

फिर दुनिया भर की कंपनियां इसरो के पास क्यों आ रही हैं?

अब सवाल यह उठता है कि अगर मस्क सस्ते हैं तो कंपनियां इसरो के पास क्यों आ रही हैं? आज के लॉन्च में भी अमेरिकी कंपनी का सैटेलाइट था. इसकी कई वजहें हैं.

भरोसा (Reliability): इसरो का LVM3 रॉकेट 100% सफल रहा है. स्पेस में भरोसा पैसे से ज्यादा कीमती होता है. कंपनियां अपना करोड़ों का सैटेलाइट रिस्क में नहीं डालना चाहतीं.

स्लॉट की कमी: स्पेस-एक्स के पास इतने ऑर्डर पेंडिंग हैं कि उनके पास स्लॉट नहीं मिलते. इसरो के पास उपलब्धता है.

मोनोपोली का डर: दुनिया सिर्फ एक कंपनी (स्पेस-एक्स) पर निर्भर नहीं रहना चाहती. यूरोप और अमेरिका की कंपनियां विकल्प के तौर पर भारत को सबसे मजबूत पार्टनर मानती हैं.

डेडिकेटेड मिशन: स्पेस-एक्स अक्सर ‘राइडशेयर’ (बस की तरह) मिशन करता है. अगर किसी कंपनी को अपना स्पेशल ऑर्बिट चाहिए तो इसरो उनके लिए स्पेशल रॉकेट (टैक्सी की तरह) देता है, जैसा आज ब्लू बर्ड मिशन में हुआ.

भविष्य की तस्वीर: भारत बदलने वाला है स्पेस का गेम

इसरो के चेयरमैन वी. नारायणन पहले ही कह चुके हैं कि वे भविष्य के रॉकेट्स पर काम कर रहे हैं. आने वाले समय में ‘सूर्य’ (Soorya) कोडनेम वाला रॉकेट आ सकता है जो रीयूजेबल होगा. इसके अलावा भारत के प्राइवेट सेक्टर में भी हलचल है. स्काईरूट (Skyroot) और अग्निकुल (Agnikul) जैसी कंपनियां छोटे सैटेलाइट्स के लिए बहुत सस्ता विकल्प ला रही हैं.

कुल मिलाकर देखें तो ‘कॉस्ट पर केजी’ में मस्क भले ही आगे हों, लेकिन ‘वैल्यू फॉर मनी’ और भरोसे के मामले में इसरो का कोई तोड़ नहीं है. आज का लॉन्च साबित करता है कि इसरो अब सिर्फ साइंस के लिए नहीं, बल्कि बिजनेस के लिए भी पूरी तरह तैयार है. स्पेस की यह रेस अभी लंबी चलने वाली है और भारत इसमें एक बड़ी छलांग लगाने की तैयारी में है.

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