तब साइकल एक अजूबा थी, डॉक्टरों ने कहा - अनहेल्दी, भारत में कहा - इसमें भूत है

2 days ago

Last Updated:September 24, 2025, 14:43 IST

दुनिया में कई ऐसे आविष्कार हुए जिनका पहले लोगों ने मज़ाक उड़ाया. खारिज कर दिया. वो बाद में सुपरहिट साबित हुए. इसी में साइकिल भी है, जिसको खतरनाक और अनहेल्दी तक कहा गया.

तब साइकल एक अजूबा थी, डॉक्टरों ने कहा - अनहेल्दी, भारत में कहा - इसमें भूत है

क्या आप सोच सकते हैं कि जब 19वीं सदी में यूरोप में साइकिल का आविष्कार हुआ तो कई डॉक्टरों और वैज्ञानिकों ने इसे अनहेल्दी और खतरनाक कहा. वही साइकल जिसे आजकल खुद फिट रखने के लिए सबसे बेहतरीन चीजों में माना जाता है. अखबारों ने तो इसे समाज को बिगाड़ने वाला खिलौना बताया था. बाद में यही साधन लोगों की आज़ादी और परिवहन का सस्ता और लोकप्रिय साधन बन गया.

हालांकि ये बात सही है कि साइकिल के जो शुरुआती मॉडल 19वीं सदी के शुरू में आए, वो अजीबोगरीब और बड़े पहियों वाले थे. शुरुआती मॉडल को “ड्रेसीना” कहा गया, जिसे 1817 में कार्ल वॉन ड्रेसे ने बनाया था. उसके बाद 1870 तक “हाई व्हीलर और पेनी-फार्थिंग” मॉडल आया, जिसमें आगे वाला पहिया बड़ा और पीछे का पहिया छोटा था.

लोग कहते थे कि “इसे चलाना असंभव है”. उस समय इस साइकल से लोग गिरा भी बहुत करते थे. अख़बारों में इसे “मानव को गिराने वाली मशीन” और “खतरनाक खिलौना” कहा गया. कई चिकित्सकों ने डर जताया कि “इस पर बैठना और घूमना स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है.”

साइकिल समाज में नएपन और आजादी की प्रतीक भी बनी. महिलाओं ने जब इसे चलाना सीखा तो कई लोगों ने कहा कि “महिलाओं के लिए साइकिल चलाना अनैतिक है”, क्योंकि ये उनके शरीर और कपड़ों को प्रदर्शित करता है.

शुरुआती साइकिलें बहुत महंगी थीं. शहरों में सड़कों पर घुमते हाई व्हीलर लोगों को डराते थे. कभी-कभी दुर्घटनाओं का कारण बनते थे. साइकिल पर गिरते हुए लोगों का मज़ाक अख़बारों और कार्टून में खूब उड़ाया गया. गांवों में लोग इसे घोड़े के बिना दौड़ने वाला अजूबा कहते थे.

डॉक्टर कहते थे अनहेल्दी

चिकित्सकों ने इसे लेकर डर जताया कि लगातार साइकिल चलाने से स्नायु और रीढ़ पर बुरा असर पड़ेगा. कुछ ने इसे खतरनाक खेल माना. तब इसे एक्सरसाइज माना ही नहीं गया.

लोहे का घोड़ा

वर्ष 1817 में कार्ल वॉन ड्रेसे ने जर्मनी में “द्रैसीना” नामक सवारी बनाई, जिसे लोग “लौह घोड़ा” कहते थे. ये साइकल का शुरुआती रूप था. अख़बार में लिखा गया, “यह दो पैरों वाले मानव के लिए खतरनाक है. इससे लोग गिरेंगे और चोट खाएंगे.” कई शहरों में लोग इसे देखकर डरते थे. बच्चे इसके पीछे दौड़ते थे.

एक जर्मन गांव में एक युवा लड़के ने इसे चलाने की कोशिश की. जैसे ही उसने पैडल घुमाया, वह सड़क पर गिर पड़ा. गांव वाले हंसते हुए बोले: “यह तो जादू की मशीन नहीं, बल्कि हंसी की मशीन है.”

इसे चलाना तो पागलपन है

1870 – 80 में साइकल का और परिष्कृत रूप हाई व्हीलर या पेनी-फार्थिंग सामने आया. ये साइकिल का अगला मॉडल था, इसमें आगे वाला पहिया बड़ा और पीछे वाला छोटा था. लोगों ने इसे देखा और कहा: “इसे चलाना किसी भी सामान्य इंसान के लिए पागलपन है.”

लंदन में एक अमीर नवयुवक ने हाई व्हीलर खरीदी और सड़क पर उतरा. जैसे ही वह मोड़ पर आया, साइकिल पलट गई. अख़बार में अगले दिन छपी हेडलाइन थी: “लड़के की उड़ान असफल, साइकिल ने उसे धराशायी कर दिया.” यह कटिंग लोगों में हंसी का कारण बनी और पूरे शहर में चर्चा का विषय.

जब महिलाओं के साइकल चलाने को अनैतिक कहा गया

अमेरिका और यूरोप में 1890-1900 के दशक में महिलाओं ने भी साइकिल चलाना शुरू किया. अख़बारों और समाज ने इसे “अनैतिक” और “खतरनाक” बताया. 1896 में एक ब्रिटिश अख़बार ने लिखा: “अगर महिला साइकिल चलाएगी तो उसकी मर्यादा हवा में उड़ जाएगी.” फ्रांस में एक पत्रिका ने मजाकिया अंदाज में लिखा, “महिलाएं अब घोड़े की बजाय लोहे के जानवर पर सवार हो गई हैं.”

लंदन की एक उच्च वर्ग की महिला पहली बार साइकिल पर सवारी करने गई. लोग उसे देखकर मुस्कुराए. बच्चों ने उसका पीछा करते हुए कहा: “देखो, महिला उड़ रही है.” भारत में भी कई जगहों पर माना जाता था कि “लड़कियां साइकिल चलाएंगी तो बदनामी होगी.”

फ्रांस और ब्रिटेन में हाई व्हीलर के कारण सड़क पर दुर्घटनाएं बढ़ीं. कुछ शहरों ने नियम बनाए कि सड़क पर साइकिल वाले के पीछे लाल झंडा लेकर चलना होगा. लंदन में कहा गया: “सड़क पर धातु के इस जानवर को नियंत्रित करना जरूरी है.”

भारत में जब आई तब अजूबा थी

भारत में साइकिल की शुरुआत 19वीं सदी के अंत में हुई. ब्रिटिश राज के दौरान इंग्लैंड से लायी गई यह “नयी मशीन” सबसे पहले बंबई (आज का मुंबई), कलकत्ता और मद्रास जैसे बंदरगाहों पर दिखाई दी. उस समय इसे आम लोग नहीं, बल्कि अंग्रेज अफ़सर और कुछ अमीर भारतीय ही खरीद सकते थे.

उस दौर में लोग इसे देखकर “शैतान की गाड़ी”, “उड़ने वाली बैलगाड़ी”, और कभी-कभी “दो पहियों वाला अजूबा” कहते थे. ग्रामीण इलाक़ों में तो कई लोग इसे देखकर डर जाते थे. उन्हें लगता था कि यह जादू है या किसी अंग्रेज़ की चालाकी से बनी हुई भूतिया गाड़ी.

भारत में शुरुआती साइकल स्टेटस सिंबल थी

भारत में जब साइकिल आई, तो वह स्टेटस सिंबल थी. साइकिल उस दौर में बहुत महंगी थी. 1890 के दशक में एक साइकिल की क़ीमत 300-400 रुपये तक थी जबकि उस समय एक मज़दूर की मासिक मज़दूरी केवल 10-15 रुपये होती थी. इस वजह से यह केवल अंग्रेज़ अफ़सर, भारतीय जमींदार और नवाबों का शौक बन सकी.

कुछ कहानियां बताती हैं कि कलकत्ता और बॉम्बे के कुछ पारसी व्यापारी सबसे पहले साइकिल लाए. इसे अपने स्टेटस सिंबल की तरह इस्तेमाल करते थे. रविवार की सुबह वे अपनी सफ़ेद ड्रेस और हैट पहनकर सड़क पर साइकिल चलाते थे, ताकि लोग देखें और दंग रह जाएं.

भारत में दहेज में दी जाती थी साइकल

साइकिल चलाना आसान नहीं था. शुरुआती मॉडल “हाई व्हीलर” या “पेनी-फार्थिंग” जैसे बड़े पहियों वाले होते थे, जिन पर चढ़ना और बैलेंस बनाना बहुत कठिन था. इसलिए लोग इसे मज़ाक में “गिरने वाली गाड़ी” भी कहते थे. कलकत्ता के अख़बारों में 1900 के दशक की रिपोर्ट मिलती है कि कैसे “कई बाबू और क्लर्क दफ़्तर जाते वक्त साइकिल पर चढ़कर गिर पड़ते तो राहगीरों का तमाशा बन जाते.” धीरे-धीरे साइकिल को “क्लर्क की गाड़ी” कहा जाने लगा, क्योंकि शहरों के दफ़्तर जाने वाले बाबू लोग इसका इस्तेमाल करते थे.

जब पहली बार गांव-कस्बों में साइकिल पहुंची, तो लोगों की प्रतिक्रिया तीन तरह की थी.
– “ये खुद-ब-खुद कैसे चलती है? इसमें भूत है!”
– “दो पहिये पर आदमी गिरा-गिरा घूमता है, ये कौन सी अक्लमंदी है.”
– “अगर ये चलाना आ जाए, तो बड़ी शान की बात है.”

तब साइकल के लिए अलग कमरा बनवाया जाता था

1920 के दशक में पंजाब में किसान साइकिल से हाट-बाज़ार जाने लगे. शुरू में वे इसे इतना कीमती मानते थे कि घर में साइकिल रखने के लिए अलग कमरा बनवाते. 1930-40 के दशक में कई जगह दहेज में साइकिल देना एक स्टेटस सिंबल बन गया.ये 60-70 के दशक तक जारी रहा. बारात में दूल्हे को साइकिल पर बैठाकर घुमाने के किस्से भी हैं.

Sanjay Srivastavaडिप्टी एडीटर

लेखक न्यूज18 में डिप्टी एडीटर हैं. प्रिंट, टीवी और डिजिटल मीडिया में काम करने का 30 सालों से ज्यादा का अनुभव. लंबे पत्रकारिता जीवन में लोकल रिपोर्टिंग से लेकर खेल पत्रकारिता का अनुभव. रिसर्च जैसे विषयों में खास...और पढ़ें

लेखक न्यूज18 में डिप्टी एडीटर हैं. प्रिंट, टीवी और डिजिटल मीडिया में काम करने का 30 सालों से ज्यादा का अनुभव. लंबे पत्रकारिता जीवन में लोकल रिपोर्टिंग से लेकर खेल पत्रकारिता का अनुभव. रिसर्च जैसे विषयों में खास...

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Location :

Noida,Gautam Buddha Nagar,Uttar Pradesh

First Published :

September 24, 2025, 14:43 IST

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