Belgian Prince: राजशाही और लोकतंत्र जब एक साथ चलें तो टकराव की कुछ कहानियां अक्सर जन्म लेती हैं. बेल्जियम में कुछ ऐसा ही हुआ जब वहां के शाही परिवार के सदस्य प्रिंस लॉरेंट ने अपने शाही भत्ते के अलावा सोशल सिक्योरिटी यानी पेंशन जैसी सुविधाओं की मांग कर दी. उनका तर्क था कि वो भी एक आम कामकाजी नागरिक की तरह मेहनत करते हैं इसलिए उन्हें भी वही हक मिलने चाहिए. लेकिन अदालत ने उनका यह तर्क खारिज कर दिया और केस को बिना आधार बताया है.
इतिहास में अपनी तरह का पहला केस..
दरअसल यह मामला इसलिए भी खास था क्योंकि यह बेल्जियम के करीब 200 साल के संवैधानिक इतिहास में अपनी तरह का पहला केस था. 61 वर्षीय प्रिंस लॉरेंट पूर्व राजा और रानी के सबसे छोटे बेटे हैं. उन्होंने कहा कि यह मामला उनके लिए पैसों से ज्यादा सिद्धांतों का है. वह चाहते हैं कि उनके काम को पहचाना जाए और उन्हें भी वही सामाजिक सुरक्षा दी जाए जो एक स्वतंत्र उद्यमी या कर्मचारी को दी जाती है.
सिक्योरिटी सिस्टम उन पर लागू नहीं..
इंटरनेशनल मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक ब्रसेल्स की अदालत ने सुनवाई में माना कि प्रिंस के कार्य सिविल सेवा की तरह हैं जहां कुछ खास लाभ दिए जाते हैं. लेकिन सामान्य सोशल सिक्योरिटी सिस्टम उन पर लागू नहीं होता. उनके वकील ओलिवियर रिजकार्ट ने कहा कि वे फैसले को उच्च अदालत में चुनौती देने पर विचार कर रहे हैं. उन्होंने यह भी जोड़ा कि अदालत का फैसला बहुत विस्तार से लिखा गया है और वह उसकी दलीलों को समझते हैं.
प्रिंस लॉरेंट को पिछले साल सरकार से €3.88 लाख लगभग ₹3.3 करोड़ का सालाना भत्ता मिला और वह बिना किराया दिए अपने घर में रहते हैं. लेकिन उन्होंने कहा कि उनके भत्ते का बड़ा हिस्सा यात्रा कार्यक्रमों और स्टाफ की सैलरी में खर्च हो जाता है. इसलिए उन्हें हर महीने लगभग €5,000 मिलते हैं जो बेल्जियम के किसी वरिष्ठ अफसर की औसत सैलरी के बराबर है. लेकिन उनका कहना है कि उनके पास पूरी सोशल सिक्योरिटी नहीं है.
'ड़ाई केवल भत्ते की नहीं बल्कि..'
प्रिंस लॉरेंट पिछले 10 वर्षों से एक पशु कल्याण संस्था चला रहे हैं जो मुफ्त पशु चिकित्सा सेवा देती है. इसके अलावा वे बेल्जियम का प्रतिनिधित्व करते हुए कई आधिकारिक कार्यक्रमों में भी भाग लेते हैं. उन्होंने कहा कि उनके पास तीन बच्चे हैं और भविष्य में उनके परिवार की आर्थिक सुरक्षा के लिए सोशल सिक्योरिटी जरूरी है. उनका कहना है कि बीमारी या आपातकाल में बिना इस सुविधा के हालात मुश्किल हो सकते हैं. इसलिए यह लड़ाई केवल भत्ते की नहीं बल्कि सम्मान और अधिकार की है. फिलहाल कोर्ट ने उनकी दलील खारिज कर दी है.