पटना. बिहार की राजनीति में उलटफेर कोई नई बात नहीं, लेकिन कुछ घटनाएं ऐसी होती हैं जो पीछे छूटने के बाद भी राजनीतिक इतिहास का रुख तय कर देती हैं. नीतीश कुमार आज दसवीं बार बिहार के मुख्यमंत्री पद पर पहुंचने की तैयारी में हैं, लेकिन उनका यह सफर हमेशा साफ और सीधा नहीं रहा. दो दशक पहले एक समय ऐसा भी आया था जब उनकी ही पार्टी के दिग्गज नेता उनके नेतृत्व को स्वीकार करने को तैयार नहीं थे. उसी दौर में भाजपा के एक शीर्ष रणनीतिकार ने वह रास्ता बनाया, जिसने आगे चलकर बिहार की राजनीति हमेशा के लिए बदल दी. नीतीश कुमार अब जब फिर मुख्यमंत्री बनने जा रहे हैं तो 2005 का वह वाकया जान लीजिए जब सहयोगी दल भाजपा की ओर से एक एक रणनीति बनी और जदयू में असहमति दूर कर एनडीए को एकजुट किया और बिहार की जनता को वो चेहरा मिल गया जो बीते दो दशक से सत्ता के शीर्ष पर काबिज है.
राजनीतिक संकट और नेतृत्व का सवाल
फरवरी 2005 के विधानसभा चुनाव में कोई भी दल बहुमत तक नहीं पहुंच सका. राजनीतिक अस्थिरता के बीच फिर अक्टूबर में चुनाव होने की घोषणा हुई. इस बार एनडीए ने तय किया कि जनता के सामने स्पष्ट नेतृत्व रखना जरूरी है. मगर सवाल सामने था- किसे नेतृत्व दिया जाए? नीतीश कुमार भाजपा की पसंद जरूर थे, लेकिन जदयू (उस समय की समता पार्टी) में यह राय सर्वसम्मति से स्वीकार्य नहीं थी. गठबंधन को एक चेहरा चाहिए था, मगर उस चेहरे पर मतैक्य नहीं बन पा रहा था.
मुजफ्फरपुर की एक चुनावी सभा में लालकृष्ण आडवाणी ने अचानक घोषणा कर दी-एनडीए नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में पेश करेगा
आडवाणी की घोषणा और जदयू में हलचल
इसी असमंजस के बीच मुजफ्फरपुर की एक सभा में लालकृष्ण आडवाणी ने अचानक घोषणा कर दी कि एनडीए की ओर से नीतीश कुमार मुख्यमंत्री पद का चेहरा होंगे. यह घोषणा जितनी सहजता से भाजपा ने स्वीकार की, उतनी ही तीखी प्रतिक्रिया जदयू में हुई. वरिष्ठ नेता जॉर्ज फर्नांडीस ने इस पर नाराजगी जताई कि ऐसा बड़ा फैसला उनसे चर्चा किए बिना किया गया. बांका के सांसद दिग्विजय सिंह भी नीतीश को आगे लाने के पक्ष में नहीं थे. नीतीश को मुख्यमंत्री उम्मीदवार बनाना आडवाणी का फैसला था, लेकिन उसे लागू कराना आसान नहीं लग रहा था.
अरुण जेटली को मिली सबसे कठिन जिम्मेदारी
स्थिति कठिन होती देख लालकृष्ण आडवाणी ने भाजपा के चुनाव प्रभारी अरुण जेटली को बुलाया. जेटली को यह जिम्मेदारी दी गई कि वे जदयू के भीतर की असहमति को दूर करें और सुनिश्चित करें कि गठबंधन बनी रहे और नेतृत्व का विवाद शांत हो. अरुण जेटली पहले से मानते थे कि नीतीश कुमार ही लालू यादव को चुनौती देने के लिए सबसे उपयुक्त विकल्प हैं. बिहार की राजनीति की उस समय की सामाजिक संरचना और राजनीतिक माहौल में नीतीश कुमार ही वह चेहरा थे जो एनडीए को जीत दिला सकते थे.
लालकृष्ण आडवाणी ने अरुण जेटली को बुलाया और कहा- गठबंधन टूटे नहीं, और नीतीश सीएम फेस बने रहें-इसका हल निकालिए.
जेटली बिहार चुनाव प्रभारी थे. फरवरी 2005 से ही नीतीश के साथ बिहार में काम करते हुए दोनों के बीच मजबूत तालमेल बन चुका था.
रणनीति, बातचीत और सहमति का रास्ता
अरुण जेटली के साथ भाजपा के एक और रणनीतिकार प्रमोद महाजन को भी इस मिशन में शामिल किया गया. दोनों ने दिल्ली में बैठकर बातचीत की रणनीति बनाई और फिर जॉर्ज फर्नांडीस से मुलाकात की. यह मुलाकात आसान नहीं थी. जॉर्ज एक गहरे राजनीतिक अनुभव वाले नेता थे और अपनी राय पर ठाम रहते थे. जेटली ने उनकी आपत्तियां सुनीं और फिर शांत, तर्कपूर्ण तरीके से अपनी बात रखी. उन्होंने बताया कि कैसे लगातार तीन चुनाव जीत चुके लालू यादव को हराने के लिए ऐसा नेतृत्व चाहिए जो प्रदेश की सामाजिक संरचना में व्यापक स्वीकार्यता रखता हो. धीरे-धीरे जॉर्ज फर्नांडीस का रुख नरम हुआ. उसके बाद दिग्विजय सिंह को भी समझा-बुझाकर सहमति दिलाई गई. इसी प्रक्रिया ने नीतीश कुमार की राह से सबसे बड़ा अवरोध हटाया.
एनडीए का एकजुट होना और नीतीश का उभार
जब सभी पक्ष एक मत हुए, तब एनडीए पूरी ताकत से चुनाव में उतर सका. अक्टूबर 2005 के चुनाव में नीतीश कुमार को मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में पेश किया गया. इस निर्णय का असर चुनाव परिणामों में साफ दिखा-एनडीए को स्पष्ट बहुमत मिला और बिहार की राजनीति का नया अध्याय शुरू हुआ. नीतीश कुमार पहली बार मुख्यमंत्री बने और वर्षों से चली आ रही लालू-राबड़ी शासन की सत्ता समाप्त हुई. यह वह मोड़ था जिसने बिहार की राजनीति के समीकरण बदलकर रख दिए.
नीतीश का आज भी जताया गया सम्मान
नीतीश कुमार के राजनीतिक जीवन में अरुण जेटली की भूमिका सिर्फ एक घटना नहीं, बल्कि निर्णायक मोड़ थी. इसलिए जेटली के प्रति उनका निजी आदर समय-समय पर झलकता रहा. 2019 में जब अरुण जेटली का निधन हुआ तो नीतीश कुमार ने बिहार में दो दिन का राजकीय शोक घोषित किया और सभी कार्यक्रम रद्द कर दिए. वे तत्काल दिल्ली पहुंचे और श्रद्धांजलि अर्पित की. यह कदम इस बात का प्रमाण था कि पुराने राजनीतिक एहसान और व्यक्तिगत सम्मान नीतीश कुमार के लिए आज भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं.
जॉर्ज फर्नांडिस पहले टालते रहे, फिर असहमत रहे, लेकिन अरुण जेटली की दलीलों से धीरे-धीरे सहमत होते गए. उसके बाद दिग्विजय सिंह को भी जेटली-महाजन की टीम ने मनाया. और बस, यहीं से नीतीश कुमार का रास्ता साफ हो गया.
अब जब नीतीश फिर शपथ लेने जा रहे हैं…
दसवीं बार मुख्यमंत्री पद संभालने की तैयारी कर रहे नीतीश कुमार का यह सफर याद दिलाता है कि 2005 में उनकी राह का सबसे बड़ा मोड़ उनके विरोधियों या समर्थकों ने नहीं, बल्कि अरुण जेटली की सूझबूझ ने तय किया था. राजनीति भले ही अनिश्चितताओं का खेल हो, मगर कुछ भूमिकाएं इतिहास में हमेशा स्थायी रूप से दर्ज हो जाती हैं-जैसे जेटली और नीतीश के उस निर्णायक क्षण की साझेदारी.

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