ठेकुआ को क्यों दिया ये नाम, कितनी पुरानी है इसकी कहानी, कैसे बना छठ का प्रसाद

6 hours ago

देश में लोकप्रिय हो चुके बिहार के छठ पर्व के साथ पहचान के रूप में जो मीठा व्यंजन जुड़ा हुआ है, उसको ठेकुआ कहते हैं. बगैर ठेकुआ छठ पर्व को अधूरा माना जाता है. क्या है इसकी कहानी, क्यों पड़ा इसका ये नाम. दरअसल छठ और ठेकुआ एक दूसरे के प्रतीक बन गए हैं. बगैर ठेकुआ कैसा छठ. गोल आकार या ओवल आकार वाले ठेकुआ को छठ के प्रसाद के तौर पर दिया जाता है. क्रिस्पी, मीठा और मधुर स्वाद वाला. क्या आपको मालूम है कि इसका नाम ठेकुआ ही क्यों पड़ा. ये कितना पुराना है. ये मिष्ठान कैसे छठ से कैसे जुड़ा.

ठेकुआ की कहानी और उत्पत्ति बहुत पुरानी है. इसका इतिहास करीब 3700 साल पहले ऋग्वैदिक काल से जुड़ा हुआ माना जाता है. ऋग्वेद में ‘अपूप’ नामक एक मिष्ठान का उल्लेख मिलता है, जो स्वाद और बनाने के तरीके में ठेकुआ से मिलता-जुलता था.

ऋग्वेद में इसे अपूप कहा गया

अपूप को एक तरह के मीठे पके हुए व्यंजन के रूप में बताया गया है, जो ठेकुआ की बनावट और सामग्री से मिलता-जुलता हैं. यह व्यंजन आटे और गुड़ से बनता था, जो वर्तमान ठेकुआ के प्रमुख घटक हैं.

पुरावैदिक काल में ठेकुआ जैसा व्यंजन एक प्रकार से धार्मिक और आध्यात्मिक अनुष्ठानों का हिस्सा था, जो बाद में छठ पूजा जैसी परंपराओं में समाहित हो गया.

भारतीय खाने पीने के इतिहास में कहा गया है कि पहली और दूसरी सदी में एक व्यंजन बनाया जाता था, जिसमें जौ और बाजरा के आटे को घी या दूध में शहद के साथ गूंथकर आग पर भूना जाता था. ये ठेकुआ की तरह ही था.

क्या कहता है इसका इतिहास

प्रसिद्ध फूड हिस्टोरियन के.टी. आचाय्या ने अपनी किताब इंडियन फूड : ए हिस्टोरिकल केंपेनियन (1994) में भारतीय व्यंजनों का गहन ऐतिहासिक विश्लेषण किया है. यह किताब भारतीय भोजन के प्रागैतिहासिक काल से आधुनिक समय तक के विकास को कवर करती है. ठेकुआ का सीधा नाम इस किताब में नहीं मिलता, लेकिन आचाय्या ने इसके प्राचीन मूल रूप “अपूप” के बारे में विस्तार से बताया है. इसे ठेकुआ का ही वैदिक संस्करण माना जाता है.

देवताओं का भोग

आचाय्या किताब के वैदिक काल के अध्याय में अपूप को एक प्राचीन मीठे व्यंजन के रूप में बताते हैं. इसके अनुसार, अपूप गेहूं के आटे, गुड़ (या शहद), घी और कभी-कभी नारियल या मसालों से बनाया जाता था. इसे तलकर तैयार किया जाता था, जो आज के ठेकुआ जैसा ही है. वैदिक ग्रंथों जैसे ऋग्वेद में इसका उल्लेख “देवताओं को भोग” के रूप में मिलता है. आचाय्या लिखते हैं, अपूप गेहूं के आटे, गुड़ या शहद, और घी से बना एक मीठा तला हुआ केक था, जो वैदिक अनुष्ठानों में देवताओं को चढ़ाया जाता था.

यह व्यंजन ऊर्जा प्रदान करने वाला और पौष्टिक माना जाता था. आचाय्या बताते हैं कि वैदिक काल में अपूप को व्रत या यज्ञ के दौरान खाया जाता था, जो बाद में क्षेत्रीय त्योहारों का हिस्सा बन गया.

आचाय्या धार्मिक भोजन के बारे में बताते हैं कि सूर्य पूजा (जैसे छठ) में तले हुए गेहूं-आधारित मीठे प्रसाद की परंपरा वैदिक है. अपूप को सूर्य देव को अर्घ्य के साथ चढ़ाने की प्रथा प्राचीन है, जो ठेकुआ के छठ महाप्रसाद रूप में जारी है. किताब में वो लिखते हैं, अपूप जैसा तले हुआ गेहूं से बना मीठा व्यंजन व्रत के दौरान पोषण के लिए सौर पूजा अनुष्ठानों का अभिन्न अंग माना जाता था.

ठोंक कर बनाते थे तो नाम पड़ा ठेकुआ

चूंकि इसको पहले ठोंक कर बनाया जाता था, लिहाजा इसका नाम ठोकना से ठेकुआ पड़ा. इसे पारंपरिक रूप से आटे को हथौड़े या किसी भारी वस्तु से सांचे में दबाकर बनाया जाता था. वैसे जो भी कहिए ये व्यंजन नेचर के बहुत करीब है और बहुत आसान तरीके से बन जाता है. जिसमें स्वाद भी होता है और मिठास भी. इसी वजह से ये सैकड़ों सालों से हमारी परंपराओं में प्रिय व्यंजन रहा है.

भगवान बुद्ध को जब दिया गया ठेकुआ

ठेकुआ का इतिहास बौद्ध काल तक भी जाता है, जब भगवान बुद्ध ने ज्ञान प्राप्त करने के बाद बोधिवृक्ष के नीचे 49 दिनों का उपवास रखा. उस दौरान दो व्यापारियों ने उन्हें आटे, घी और शहद से बना व्यंजन दिया था, जिसे खाकर उन्होंने अपना उपवास खोला था. ये व्यंजन भी ठेकुआ जैसा था.

बिहार, पूर्वी यूपी, झारखंड और नेपाल में लोकप्रिय

ठेकुआ खासतौर पर बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश, झारखंड और नेपाल के तराई क्षेत्र में बहुत लोकप्रिय है. ये शादियों में तैयार होता है. पवित्र कामों में इसकी उपस्थिति जरूरी है. छठ पूजा का ये मुख्य प्रसाद भी है. छठ पूजा में इसे सूर्य देव को अर्पित किया जाता है. इसे बनाना व बांटना श्रद्धा और भक्ति का प्रतीक माना जाता है.

इसका पारंपरिक बनाने का तरीका गेहूं के आटे, गुड़, घी और सूखे मेवों का उपयोग करके होता है. पकाने के बाद ठेकुआ बाहर से कुरकुरा और अंदर से नरम होता है, जो ठंडा होने पर खस्ता हो जाता है.

ऊर्जा देने वाला व्यंजन 

वक्त के साथ यह मिठाई इतना लोकप्रिय हुआ कि अब इसे छठ पूजा के अलावा भी लोगों द्वारा बनाकर खाया जाता है. इसके पौष्टिक गुण भी हैं, क्योंकि गुड़ और घी से बना यह ऊर्जा देने वाला व्यंजन माना जाता है.

इससे जुड़ा एक पुराना रोचक किस्सा 

ठेकुआ से जुड़ा एक बहुत ही लोकप्रिय और रोचक किस्सा है, “ठेकुआ ने बचाई छठ व्रती की जान”. यह कहानी बिहार-झारखंड के गांवों में पीढ़ी-दर-पीढ़ी सुनाई जाती है. इसमें आस्था, चतुराई और ठेकुआ का चमत्कार सब कुछ है.

एक बार की बात है, एक गांव में राधा चाची नाम की एक विधवा महिला रहती थीं. वे हर साल छठ का कठिन व्रत करती थीं. चार दिन का निर्जला उपवास. नहाय-खाय से लेकर अर्घ्य तक सब कुछ शुद्धता से. खरना के दिन उन्होंने ठेकुआ बनाया. घी की खुशबू, गुड़ की मिठास और सांचे में दबाकर सुंदर डिज़ाइन. पूरी रात चूल्हे के पास जागकर ठेकुआ तैयार किया ताकि सुबह अर्घ्य में चढ़ा सकें.

गांव में कुछ चोर थे, जो छठ के दिनों में घरों में चोरी करने का मौका ढूंढते थे. उन्हें पता चला कि राधा चाची अकेली हैं. घर में सोने-चांदी के गहने हैं. रात को वे चुपके से उनके घर में घुसे. राधा चाची उस वक्त ठेकुआ को बांस की टोकरी में सजाकर पूजा घर में रख रही थीं. चोरों ने देखा – अंधेरे में टोकरी में कुछ चमक रहा है. उन्हें लगा, “अरे, ये तो सोने के बिस्किट हैं!”
चोर सरदार ने फुसफुसाया, “चुपके से टोकरी उठाओ, ये सोने के टुकड़े हैं!” चोरों ने टोकरी उठाई और भागने लगे. जैसे ही वो बाहर निकले, राधा चाची की नज़र पड़ी. वो चिल्लाईं – “अरे छठी मइया! मेरो ठेकुआ ले गए चोर!”
अब हुआ यूं – चोर भागते-भागते रुके. एक ने ठेकुआ का टुकड़ा मुंह में डाला. जैसे ही चबाया, तो चिल्लाया, “अरे बाप रे! ये तो आटा-गुड़ का है! सोना नहीं!”
लेकिन… ठेकुआ इतना स्वादिष्ट था कि चोर रुक गए. एक-दूसरे को देखा और बोले, “चलो, थोड़ा खा लें। इतना अच्छा तो कभी नहीं खाया!” इतने में गांव वाले जाग गए. चोरों को पकड़ लिया गया. पुलिस आई. चोरों ने कबूल किया, “हम सोना समझकर ठेकुआ ले गए थे पर खाकर रुक गए. राधा चाची का ठेकुआ इतना मीठा था कि चोरी भूल गए!”
राधा चाची ने मुस्कुराते हुए कहा, “छठी मइया का प्रसाद है. चोर भी नहीं बच सकता!” आज भी गांवों में कहते हैं, “ठेकुआ में छठी मइया का वास है, कोई छू नहीं सकता!”

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