वंदे मातरम की वो दो लाइनें, जिन पर मौलाना रशीदी बोले- हम भी गुनगुनाएंगे, लेकिन

10 hours ago

Last Updated:December 07, 2025, 17:39 IST

वंदे मातरम पर सोमवार को संसद में बहस होने वाली है. इसी बीच मौलाना साजिद रशीदी ने कहा क‍ि कि राष्ट्रगीत से परहेज 'देश' से नहीं, बल्कि 'देश को भगवान बनाने' से है. हमें पहली दो लाइनें गाने से कोई ऐतराज नहीं. आख‍िर कौन सी हैं, वो दो लाइनें? बाकी पर ऐतराज क्‍यों?

वंदे मातरम की वो दो लाइनें, जिन पर मौलाना रशीदी बोले- हम भी गुनगुनाएंगे, लेकिनवंदे मातरम को लेकर विवाद हो रहा है.

लोकसभा में सोमवार को राष्ट्रगीत ‘वंदे मातरम’ को लेकर एक महत्वपूर्ण चर्चा और संभावित बहस शुरू होने वाली है. लेकिन संसद के भीतर होने वाले इस संग्राम से ठीक पहले, संसद के बाहर ऑल इंडिया इमाम एसोसिएशन के अध्यक्ष मौलाना साजिद रशीदी ने एक ऐसा बयान दिया है, जिसने इस दशकों पुराने विवाद को एक नया और सुलझा हुआ नजरिया देने की कोशिश की है. अक्सर ‘वंदे मातरम’ को लेकर मुस्लिम पक्ष की तरफ से पूर्ण विरोध की खबरें आती रही हैं, लेकिन मौलाना रशीदी ने स्पष्ट किया है कि मुसलमानों को इस गीत से नफरत नहीं है, बल्कि उनकी आपत्ति विशुद्ध रूप से धार्मिक मान्यताओं (एकेश्वरवाद) और गीत के अगले हिस्सों में ‘मूर्ति पूजा’ के भाव को लेकर है. उन्होंने साफ कहा कि राष्ट्रगीत की शुरुआती दो लाइनों को गाने में किसी भी मुसलमान को कोई परहेज नहीं होना चाहिए.

मौलाना रशीदी ने कहा, ‘देखिए, वंदे मातरम की पहली दो लाइनों को गाने में हमें कोई ऐतराज नहीं है. ये दो लाइनें तो साजिद रशीदी भी गा सकता है और गुनगुना सकता है. ऐसा इसलिए है क्योंकि हमने आजादी की लड़ाई में भी इसे गाया है. उस वक्त यह एक नारा था जो पूरे हिंदुस्तान को, चाहे वो हिंदू हो या मुसलमान, एक सूत्र में बांधता था. अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई में ‘वंदे मातरम’ ने एक जोश भरने का काम किया था.’ रशीदी का यह बयान इसलिए अहम है क्योंकि यह भाजपा और दक्षिणपंथी संगठनों के उस नरेटिव को काटता है जिसमें अक्सर यह कहा जाता है कि मुसलमान राष्ट्रगीत का अपमान करते हैं. रशीदी ने यह स्वीकार किया कि गीत की शुरुआत वतन की खूबसूरती और उसकी समृद्धि की तारीफ है, जिससे किसी को दिक्कत नहीं है.

तो फिर विवाद कहां है?

मौलाना रशीदी ने स्पष्ट किया कि विवाद गीत की शुरुआती पंक्तियों के बाद शुरू होता है. उन्होंने कहा, आगे की जो लाइनें हैं, उनमें मुल्क को एक देवी (दुर्गा/लक्ष्मी) के रूप में चित्रित किया गया है. यह हमारी आस्था के मूल सिद्धांत के खिलाफ जाता है. इस्लामी मान्यताओं का हवाला देते हुए उन्होंने समझाया, हम मुसलमान हैं और हम केवल एक अल्लाह को मानते हैं (तौहीद). हम वतन से मोहब्बत करते हैं, वतन पर जान न्योछावर कर सकते हैं, लेकिन हम वतन की पूजा नहीं कर सकते. वतन हमारी ‘मां’ जैसी हो सकती है जिसका हम सम्मान करते हैं, लेकिन वह ‘देवी’ नहीं हो सकती जिसकी हम आराधना करें. गीत के अगले हिस्से में देश को दुर्गा का स्वरूप बताया गया है, जो सीधे तौर पर बुतपरस्ती (मूर्ति पूजा) से जुड़ता है, और इस्लाम में इसकी इजाजत नहीं है.

क्या हैं वो दो लाइनें और आगे का विवादित हिस्सा?

बंकिम चंद्र चटर्जी द्वारा लिखित ‘आनंदमठ’ के इस गीत की जिन शुरुआती पंक्तियों पर रशीदी ने सहमति जताई है, वे हैं… ‘सुजलां सुफलां मलयजशीतलाम्, शस्यश्यामलां मातरम्!’ (अर्थात: जल से परिपूर्ण, फलों से लदी, दक्षिण की हवाओं से शीतल और फसलों से हरी-भरी माँ, मैं आपकी वंदना करता हूं.) यहां तक केवल देश की प्राकृतिक सुंदरता का वर्णन है.

लेकिन विवादित हिस्सा बाद में आता है… ‘त्वं हि दुर्गा दशप्रहरणधारिणीम्…’ (अर्थात: तुम ही दस हथियार धारण करने वाली दुर्गा हो…) मुस्लिम विद्वानों का तर्क है कि यहां देश को सीधे हिन्दू देवी दुर्गा का रूप मान लिया गया है, जिसे गाना उनके लिए शिर्क (अल्लाह के अलावा किसी और की इबादत) जैसा है.

कहां से ख‍िंची लकीर

मौलाना रशीदी का यह बयान अकेला नहीं है, बल्कि यह उस ऐतिहासिक समझौते की याद दिलाता है जो आजादी से पहले भी चर्चा में था. रशीदी के इस बयान पर मुस्लिम समुदाय के अन्य विद्वानों और नेताओं की प्रतिक्रिया भी इसी लकीर पर दिखती है. बीजेपी का दावा है क‍ि मौलाना रशीदी जो कह रहे हैं, वही 1937 में कांग्रेस वर्किंग कमेटी का भी फैसला था. उस समय मौलाना अबुल कलाम आजाद और जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता वाली समिति ने यह तय किया था कि ‘वंदे मातरम’ के शुरुआती दो छंदों को ही राष्ट्रगीत के रूप में स्वीकार किया जाएगा क्योंकि बाकी हिस्सों में धार्मिक प्रतीक थे. वहीं, जमीयत उलेमा-ए-हिंद के एक पदाधिकार‍ियों का कहना है, मुसलमानों को अपनी देशभक्ति साबित करने के लिए किसी प्रमाण पत्र की जरूरत नहीं है. हम ‘सारे जहां से अच्छा’ गाते हैं, हम राष्ट्रगान ‘जन गण मन’ के लिए सम्मान से खड़े होते हैं. लेकिन अगर किसी गीत में धार्मिक विश्वासों का टकराव होता है, तो संविधान हमें अपने धर्म का पालन करने की आजादी देता है. संसद में इस पर चर्चा करते समय सरकार को यह ध्यान रखना चाहिए कि इसे थोपा न जाए. हालांकि, कुछ कट्टरपंथी मुस्लिम नेताओं का मानना है कि ‘वंदे मातरम’ का पूरा संदर्भ ही ‘आनंदमठ’ उपन्यास से आता है, जो कथित तौर पर मुस्लिम विरोधी भावनाओं पर आधारित था, इसलिए इसे पूरी तरह से त्याग देना चाहिए. लेकिन रशीदी का “दो लाइन गुनगुनाने” वाला बयान एक मध्यम मार्ग की तरह देखा जा रहा है.

संसद में क्या होगा?

सोमवार को लोकसभा में इस मुद्दे पर चर्चा प्रस्तावित है. माना जा रहा है कि सत्ता पक्ष यानी बीजेपी इसे ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ के मुद्दे के तौर पर पेश करेगा. कई बीजेपी सांसदों की मांग रही है कि ‘वंदे मातरम’ को ‘जन गण मन’ के बराबर दर्जा दिया जाए और इसे स्कूलों और सरकारी कार्यक्रमों में अनिवार्य किया जाए. ऐसे में रशीदी का यह बयान विपक्ष को एक तर्क दे सकता है. विपक्षी सांसद यह कह सकते हैं कि जब समुदाय विशेष को शुरुआती पंक्तियों से दिक्कत नहीं है, तो पूरे गीत को अनिवार्य बनाकर विवाद क्यों पैदा किया जाए?

ध्रुवीकरण या समाधान?

राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि चुनाव और संसद सत्र के दौरान ऐसे मुद्दों का उठना महज संयोग नहीं है. रशीदी का बयान भाजपा के ‘राष्ट्रवाद बनाम तुष्टिकरण’ के गुब्बारे से हवा निकालने की कोशिश है. अगर मुसलमान खुद कह रहे हैं कि हम इसे गुनगुनाने को तैयार हैं, बस हमारी धार्मिक मर्यादा का ख्याल रखा जाए, तो फिर झगड़े की गुंजाइश कम हो जाती है. अब देखना यह है कि संसद में सरकार इस ‘ऑफर’ को स्वीकार करती है या इसे ‘वोट बैंक की राजनीति’ बताकर खारिज करती है.

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Gyanendra Mishra

Mr. Gyanendra Kumar Mishra is associated with hindi.news18.com. working on home page. He has 20 yrs of rich experience in journalism. He Started his career with Amar Ujala then worked for 'Hindustan Times Group...और पढ़ें

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Delhi,Delhi,Delhi

First Published :

December 07, 2025, 17:39 IST

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