60 साल पहले जब भारत और पाकिस्तान के बीच युद्ध हुआ था, तब ऐसे भारतीय सैनिक ने ऐसा पराक्रम करके दिखाया, जिसकी कहानी आज भी जब सुनाई जाती है तो विश्वास नहीं होता कि एक अकेले सैनिक ने इतना बड़ा काम किया होगा, जो अविश्वसनीय था. हालांकि अपने इस पराक्रम में उन्हें मृत्यु का सामना करना पड़ा. बाद में भारत सरकार ने उन्हें सर्वोच्च सैन्य सम्मान परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया. अब्दुल हमीद की कहानी एक देशभक्त, साहस और बलिदान की गाथा है, जो आज भी सैनिकों को प्रेरित करती है.
अब्दुल हमीद भारतीय सेना के वीर सैनिक थे. 10 सितंबर 1965 में रणक्षेत्र में वह शहीद हुए थे. उन्होंने कैसे एक के बाद एक पाकिस्तान के 9 टैंकों को चकनाचूर कर दिया था. ये कहानी हम बताएंगे, इससे पहले उनके बारे में और भी कुछ जान लीजिए.
दर्जी के बेटे थे
अब्दुल हमीद का जन्म उत्तर प्रदेश के गाजीपुर जिले के धामूपुर गांव में एक साधारण परिवार में हुआ था. उनके पिता मोहम्मद उस्मान दर्जी का काम करते थे. बचपन से ही हमीद में देशसेवा का गजब का जुनून था. पढ़ाई में रुचि कम थी लेकिन कुश्ती, लाठी चलाने और निशानेबाजी में खूब माहिर थे. 20 वर्ष की आयु में हमीद वाराणसी में भारतीय सेना की 4 ग्रेनेडियर्स रेजिमेंट में भर्ती हुए.
घुटने और कोहनी के बल 14-15 किमी रेंगते रहे
सेना में भर्ती होने के बाद अब्दुल हमीद की पोस्टिंग आगरा, अमृतसर, जम्मू-कश्मीर, दिल्ली, अरुणाचल प्रदेशन और रामगढ़ में हुई. 1962 के भारत-चीन युद्ध में उनकी बटालियन ने नमका-छू की लड़ाई में शिरकत की. युद्ध के दौरान वह गंभीर रूप से घायल हुए. क्योंकि उन्होंने घुटनों और कोहनियों के बल चलकर 14-15 किमी का क्षेत्र पार किया . फिर भारत-चीन सीमा पर तिरंगा फहराया. इस वीरता के लिए उन्हें राष्ट्रीय सेना मेडल मिला.
पाकिस्तान के पास थे अजेय पैटन टैंक
1965 में पाकिस्तान ने ऑपरेशन जिब्राल्टर की साजिश रचते हुए जम्मू-कश्मीर में घुसपैठ शुरू की, जिसके जवाब में युद्ध छिड़ गया. अब्दुल हमीद उस समय पंजाब के तरनतारन जिले के खेमकरण सेक्टर में तैनात थे. उस समय पाकिस्तान के पास अमेरिकी पैटन टैंक थे, जिन्हें अजेय माना जाता था. 8 सितंबर 1965 की रात पाकिस्तानी सेना ने उन्हीं टैंकों के साथ वहीं पास के असल उत्तर गांव पर हमला किया.
एक एक करके पाकिस्तान के नौ टैंक तबाह कर दिए
अब्दुल हमीद तब सेना की अपनी कंपनी में क्वार्टरमास्टर हवलदार थे. उनके पास थी केवल 106mm की रिकॉइललेस राइफल. बस इसी से वह उस पैटन टैंक से मुकाबला करने वाले थे. उन्होंने रायफल के साथ जीप में मोर्चा संभाला. गन्ने के खेतों में छिप गए.
उन्होंने दुश्मन के टैंकों पर सटीक निशाना साधा. एक के बाद एक आठ पाकिस्तानी पैटन टैंकों को नष्ट कर दिया. पाकिस्तानी सेना में खलबली मच गई. उनकी इस वीरता ने युद्ध का रुख बदल दिया. हालांकि नौवां टैंक नष्ट करते समय दुश्मन टैंक से निकला गोला उनकी जीप पर लगा. वह वीरगति को प्राप्त हुए.
लोग विश्वास ही नहीं कर पाए कि ऐसा भी हो सकता है
उन्होंने ये एक ऐसा काम किया था कि लोगों को विश्वास ही नहीं हुआ कि एक अकेला सैनिक इतना असंभव काम कर सकता है. लेकिन ये काम उन्होंने बहुत बहादुरी और समझदारी के साथ किया. और ये ऐसी वीरता थी, जो भारतीय सेना में किवदंती बन गई. आज भी सेना में लोगों की जुबान पर ये कहानी रहती है. यूपी के गाजीपुर के लिए तो वह हीरो हैं.
बटालियन ने उनके शहीद स्थल पर समाधि बनाई
4 ग्रेनेडियर्स ने असल उत्तर में उनकी कब्र पर एक समाधि बनवाई, जहां हर साल उनके बलिदान दिवस पर मेला लगता है. गाजीपुर में उनके गांव में उनके नाम पर डिस्पेंसरी, पुस्तकालय और स्कूल चलाए जाते हैं. 28 जनवरी 2000 को भारतीय डाक विभाग ने उनकी स्मृति में 3 रुपये का एक डाक टिकट जारी किया, जिसमें वे रिकॉइललेस राइफल चलाते हुए जीप पर दिखाए गए. दूरदर्शन में उन्हें एक धारावाहिक में दिखाया गया.
युद्ध में सैनिकों को जोश देती थी उनकी कहानी
अब्दुल हमीद की वीरता युवाओं को देशभक्ति और साहस का संचार करती है. खासकर युद्ध के समय हमीद की कहानी सैनिकों को जोश से भर देती है. वैसे इस इलाके में पाकिस्तान के बहुत से टैंक इसके बाद तबाह किए गए. उनके बलिदान ने साबित किया कि सीमित संसाधनों के बावजूद, साहस और रणकौशल से असंभव को संभव बनाया जा सकता है. उनकी शहादत को सलाम करते हुए, उनके गांव धामूपुर में हर साल उनकी जयंती पर कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं.
अब्दुल हमीद का जीवन बहुत सादगी भरा था. सेना में क्वार्टरमास्टर हवलदार के रूप में उनकी जिम्मेदारियां बड़ी थीं, लेकिन वे हमेशा जमीन से जुड़े रहे. उनके सहयोगियों और गांववासियों के अनुसार, वह मिलनसार और मददगार स्वभाव के थे.