नई दिल्ली: सोनम रघुवंशी, मुस्कान रस्तोगी, प्रगति यादव, शिवानी… नाम बदल रहे हैं, मगर कहानी वही है. इन सब पर अपने-अपने पतियों की बेरहमी से हत्या करने/करवाने का आरोप है. ताजा मामला सोनम का है, जिसने कथित रूप से अपने पति राजा रघुवंशी का मेघालय में हनीमून के दौरान मर्डर करवा दिया. इंदौर के ट्रांसपोर्ट कारोबारी राजा की हनीमून ट्रिप के दौरान मेघालय में हुई हत्या से पूरा देश हैरान है. पूरी कहानी अभी सामने नहीं आई है लेकिन ज्ञान देने वाले अपनी ढफली लेकर निकल पड़े हैं. सोनम को कानूनन दोषी तब तक नहीं कहा जा सकता जब तक कोर्ट का फैसला न आ जाए. लेकिन इस बीच मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री मोहन यादव ने ऐसा बयान दे दिया, जो किसी दुघद घटना से सबक लेने की बजाय समाज को एक बार फिर महिला पर नियंत्रण के पुराने पाठ पढ़ाने की कोशिश जैसा लगता है. मोहन यादव ने कहा, ‘विवाह के बाद बच्चों को हनीमून पर दूर भेजना सही नहीं है. हमें पुराने जमाने की परंपराओं की ओर लौटना चाहिए. हमें बच्चों पर निगरानी रखनी चाहिए.’ जब एक दुखद हत्याकांड को लेकर देश में गुस्सा हो, चारों तरफ न्याय की मांग हो, तब किसी मुख्यमंत्री का बयान अगर सामाजिक चेतना की बजाय पितृसत्ता की परंपरा से लिपटा हो, तो ये सिर्फ ‘अजीब’ नहीं बल्कि ‘खतरनाक’ भी बन जाता है.
क्या वाकई यह समाधान है?
एक महिला पर हत्या की साजिश का आरोप लगा है. अगर वह दोषी पाई जाती है तो उसे कानून के तहत सख्त से सख्त सजा मिलनी चाहिए. इसमें कोई दो राय नहीं. लेकिन सवाल यह है कि क्या इस एक मामले की आड़ में पूरे समाज को यह संदेश देना सही है कि ‘हनीमून पर जाना ही समस्या की जड़ है’?
इसका मतलब क्या हुआ? शादी के बाद पति-पत्नी को अकेले घूमने नहीं जाना चाहिए? क्या अब विवाह की रस्मों के साथ एक चेतावनी कार्ड भी जोड़ दिया जाए, ‘कृपया बाहर मत जाइए, आपकी बीवी आपको मार सकती है!’
यह सोच कितना खोखला और पुराना है, इसका अंदाजा इस बात से लगाइए कि यह बयान किसी ग्रामीण ढाबे पर बैठे बुजुर्ग ने नहीं, बल्कि एक राज्य के मुख्यमंत्री ने दिया है.
क्या अब महिलाएं शादी के बाद सिर्फ चौखट तक सीमित रहें?
मोहन यादव के बयान में छिपा असली संदेश ये भी है, ‘महिलाओं पर भरोसा नहीं किया जा सकता, इसलिए उन्हें दूर न भेजो, निगरानी रखो, कंट्रोल करो.’ ये सोच उसी दकियानूसी परंपरा का विस्तार है जो कभी कहती थी कि बेटी को ज़्यादा पढ़ाओ मत, नौकरी करने मत दो, क्योंकि ‘बिगड़ जाएंगी’.
जब कोई मुख्यमंत्री इस सोच को सरकारी स्टेटमेंट में बदल देता है, तो ये सिर्फ विचार नहीं रहते, ये पॉलिसी में तब्दील होने लगते हैं. हत्याकांड को बहस का मुद्दा बनाइए, लेकिन लक्ष्यों को सही रखिए.
इस पूरे मामले में जो सवाल उठाए जा सकते हैं, वे हैं:
इन तमाम गंभीर पहलुओं के बीच मुख्यमंत्री का यह बयान असल मुद्दे से ध्यान भटका देता है और मामले को ‘पुरुष बनाम महिला’ की सस्ती बहस में ढकेल देता है.
क्या हत्या के बाद कोई लड़की दोषी हो, तो पूरे महिला समाज को संदिग्ध मान लें?
अगर यही तर्क सही है, तो फिर उन तमाम हत्याओं पर क्या कहेंगे जो पतियों, भाइयों या प्रेमियों ने की हैं? क्या तब किसी मुख्यमंत्री ने कहा कि ‘शादी के बाद लड़की को लड़के के घर मत भेजो’? क्या कभी किसी पुरुष अपराधी की वजह से सारे पुरुषों को ‘घर में रखने’ की सलाह दी गई?
ये सबक किसी अपराध से नहीं, एक समाज की मानसिक बनावट से आते हैं, जहां महिला की आज़ादी हमेशा संदेह के घेरे में रहती है और पुरानी परंपराएं हमेशा नई आज़ादी पर भारी पड़ती हैं.
समाधान क्या है? कंट्रोल नहीं, न्याय और भरोसा
अगर इस घटना से सबक लेना है, तो वह यह होना चाहिए कि रिश्तों में ईमानदारी और संवाद बढ़ाया जाए. विवाह में सिर्फ रस्में न हों, समझ और जिम्मेदारी भी हो. कोई भी अपराध हो, उस पर जांच निष्पक्ष हो. मीडिया ट्रायल से बचा जाए और कोर्ट की प्रक्रिया पर भरोसा रखा जाए. और सबसे जरूरी- नेताओं को अपनी जुबान पर लगाम रखनी चाहिए, क्योंकि उनका हर शब्द समाज की दिशा तय करता है.
आखिर में एक सवाल कि क्या किसी राजा की हत्या से समाज को यह सबक मिलना चाहिए कि शादीशुदा जोड़े अब साथ बाहर न जाएं? या हमें यह सोचना चाहिए कि कैसे रिश्तों को सशक्त बनाया जाए, कैसे जांच निष्पक्ष हो और कैसे महिलाओं और पुरुषों दोनों को समान रूप से इंसाफ मिले?
CM मोहन यादव को अगर वाकई ‘बच्चों’ की चिंता है, तो उन्हें उनके अधिकारों की रक्षा करनी चाहिए, न कि उन्हें घर में बंद करने की सलाह देनी चाहिए. शादी बंधन है, कैद नहीं. और हनीमून अपराध का मैदान नहीं. यह एक पर्सनल स्पेस है. उसे सुरक्षित बनाने की जिम्मेदारी समाज की है, डर फैलाने की नहीं.