Last Updated:September 25, 2025, 09:07 IST
Hindu Succession Act, Kapil Sibbal Argument and Supreme Court: हिंदू उत्तराधिकार की धारा 15 और 16 पर सुनवाई के दौरान जाने माने वकील कपिल सिब्बल ने अपने तर्कों से सुप्रीम कोर्ट को उलझा दिया. इस सुप्रीम कोर्ट को कहना पड़ा कि सामाजिक संरचना और महिलाओं के अधिकारों में संतुलन की जरूरत है.

Hindu Succession Act, Kapil Sibbal Argument and Supreme Court: सुप्रीम कोर्ट ने हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के प्रावधानों को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर सुनवाई के दौरान सख्त चेतावनी दी है कि अदालत हिंदू समाज की हजारों वर्ष पुरानी संरचना को तोड़ने का काम नहीं करेगी. जस्टिस बीवी नागरत्ना और आर महादेवन की बेंच ने कहा कि कुछ कठिन मामलों के आधार पर कठोर तथ्यों से प्रभावित होकर कानून में बदलाव नहीं किया जा सकता, क्योंकि इससे हिंदू सामाजिक ढांचा चूर-चूर हो सकता है. बेंच ने जोर दिया कि महिलाओं के अधिकार महत्वपूर्ण हैं, लेकिन सामाजिक संरचना और महिलाओं को अधिकार देने के बीच संतुलन बनाना जरूरी है.
बुधवार को चली सुनवाई में बेंच ने कहा- हिंदू समाज की मौजूदा संरचना को कमजोर न करें… हम एक अदालत के रूप में आपको चेतावनी दे रहे हैं. हिंदू सामाजिक संरचना है और आप इसे ध्वस्त न करें. हम अपने फैसले से हजारों वर्षों से चली आ रही व्यवस्था को तोड़ना नहीं चाहते. यह टिप्पणी हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 15 और 16 पर केंद्रित याचिकाओं पर आई, जो महिलाओं की मृत्यु के बाद संपत्ति के उत्तराधिकार की लिंग-आधारित योजना को चुनौती देती हैं.
पति के परिवार को प्राथमिकता
इन प्रावधानों के तहत यदि कोई हिंदू महिला बिना वसीयत के मर जाती है तो उसकी संपत्ति पहले उसके पति और बच्चों को जाती है उसके बाद पति के परिवार को प्राथमिकता मिलती है. उसके माता-पिता या भाई-बहनों को संपत्ति तभी मिलती है जब पति का कोई उत्तराधिकारी न हो.
बेंच ने स्पष्ट किया कि संपत्ति के कानून हिंदू सामाजिक परंपराओं से गहराई से जुड़े हैं. उन्होंने उदाहरण दिया कि विवाह के बाद महिला का गोत्र बदल जाता है और वह न केवल पति से, बल्कि ससुराल वालों से भी भरण-पोषण का दावा कर सकती है. बेंच ने सवालिया लहजे में कहा कि महिला अपने भाई या बहन के खिलाफ भरण-पोषण का मुकदमा नहीं दायर करती है. इसका तर्क क्या है?
जजों ने 2005 के संशोधन का भी जिक्र किया, जिसमें बेटियों को संयुक्त परिवार संपत्ति में सह-उत्तराधिकारी का अधिकार दिया गया था. बेंच का कहना था कि इससे परिवारों में दरारें आईं और पारिवारिक संरचना को काफी नुकसान पहुंचा. बेंच ने कहा- हम महिलाओं को संपत्ति देने के खिलाफ नहीं हैं, लेकिन वास्तविक प्रभावों को नजरअंदाज नहीं कर सकते.
मौजूदा कानून में पति और बच्चे न होने की स्थिति में शादीशुदा हिंदू महिला की संपत्ति पर पति के परिवार का हक होता है.
वकीलों के बीच तीखी बहस
सुनवाई के दौरान वकीलों के बीच तीखी बहस हुई. याचिकाकर्ताओं की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता कपिल सिब्बल ने तर्क दिया कि ये प्रावधान बहिष्कारकारी और भेदभावपूर्ण हैं. महिला अब कोई वस्तु नहीं है. उसे समान व्यवहार मिलना चाहिए. उन्होंने जोड़ा कि आज कई महिलाएं बड़ी कंपनियों का संचालन कर रही हैं और परंपराओं के नाम पर उन्हें समान उत्तराधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता. जब बेंच ने सुझाव दिया कि यदि महिला अपनी मायके वाली संपत्ति देना चाहे तो वसीयत बना ले तो सिब्बल ने पलटवार किया- एक पुरुष को वसीयत बनाने की जरूरत नहीं पड़ती. यह भेदभाव है.
वरिष्ठ अधिवक्ता मेनका गुरुस्वामी ने भी बेंच से अपील की कि हिंदू समाज की व्यापक अवधारणा पर ध्यान न देकर वैधानिक ढांचे पर फोकस करें. उन्होंने कहा कि कोर्ट हिंदू संरचना के मुद्दे पर विचार नहीं कर रहा, बल्कि यह एक वैधानिक प्रावधान का मामला है.
सामाजिक संरचना को नष्ट करने की कोशिश
दूसरी ओर केंद्र की ओर से अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल केएम नटराज ने कानून को सुविचारित बताते हुए याचिकाकर्ताओं पर आरोप लगाया कि वे सामाजिक संरचना को नष्ट करने की कोशिश कर रहे हैं. विवाद का केंद्र हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा 15 और 16 हैं, जो हिंदू महिलाओं के लिए अलग उत्तराधिकार रेखा निर्धारित करती हैं. पुरुष की संपत्ति बिना वसीयत के पत्नी, बच्चों और उसकी मां में समान रूप से बंटती है, लेकिन एक शादीशुदा महिला की संपत्ति पहले बच्चों और फिर पति को, फिर पति के वारिसों को जाती है. मौजूदा कानून के तहत बच्चों और पति के नहीं होने की स्थिति में महिला की संपत्ति उनके माता-पिता को नहीं मिलती है.
आलोचकों का कहना है कि इससे महिला की स्व-प्राप्त संपत्ति भी मायके के बजाय ससुराल को चली जाती है, जो आधुनिक वास्तविकताओं को नजरअंदाज करता है और लिंग असमानता को बढ़ावा देता है.पहली याचिका 2018 में मुंबई की निवासी कमल अनंत खोपकर ने दायर की थी, जिसका मामला बाद में सुलझ गया, लेकिन संबंधित याचिकाएं अब भी लंबित हैं.
नवंबर 2024 में इसी बेंच (तब जस्टिस नागरत्ना और पंकज मिथल के साथ) ने वैधानिक योजना को वैज्ञानिक और तार्किक बताया था और कहा था कि यह लिंग न्याय का मुद्दा नहीं, बल्कि माता-पिता और ससुराल के बीच प्रतिस्पर्धी दावों का है. 2019 में जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ की अगुवाई वाली बेंच ने इसे संवैधानिक महत्व का मुद्दा माना था. बुधवार को बेंच ने स्पष्ट किया कि वह प्रथम दृष्टया प्रावधानों को रद्द करने के पक्ष में नहीं है और पक्षकारों को सुप्रीम कोर्ट के मध्यस्थता केंद्र भेजा. अगली सुनवाई 11 नवंबर को निर्धारित की गई. बेंच ने कहा कि हिंदू उत्तराधिकार कानूनों में असंतुलन तो था, लेकिन कानून और न्यायशास्त्र में प्रगति हुई है. एक ओर कानूनी प्रगति है, दूसरी ओर हिंदू परिवारों में विघटन. सामाजिक संरचना और महिलाओं के अधिकारों के बीच संतुलन जरूरी है.
न्यूज18 हिंदी में बतौर एसोसिएट एडिटर कार्यरत. मीडिया में करीब दो दशक का अनुभव. दैनिक भास्कर, दैनिक जागरण, आईएएनएस, बीबीसी, अमर उजाला, जी समूह सहित कई अन्य संस्थानों में कार्य करने का मौका मिला. माखनलाल यूनिवर्स...और पढ़ें
न्यूज18 हिंदी में बतौर एसोसिएट एडिटर कार्यरत. मीडिया में करीब दो दशक का अनुभव. दैनिक भास्कर, दैनिक जागरण, आईएएनएस, बीबीसी, अमर उजाला, जी समूह सहित कई अन्य संस्थानों में कार्य करने का मौका मिला. माखनलाल यूनिवर्स...
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First Published :
September 25, 2025, 09:03 IST