जेन जी के बीच 'Body Count' है कूलनेस का नया टर्म जानिए क्या इसका मतलब

5 hours ago

नई दिल्ली (इंटरनेट डेस्क), अदिति शुक्ला। सोशल मीडिया में आपने भी कई ऐसी वीडियोज देखी होंगी जहां, दो एडल्ट्स या करीब 17 से 20 साल तक के यंग लोग एक दूसरे से 'बॉडी काउंट' पूछते नजर आ जाएंगे। और उनके रिएक्शन से आप यह भी समझ जाएंगे कि जिसने कम नंबर बताया वह cool नहीं है। अब जेन जी की भाषा में क्या है बॉडी काउंट, कहां से आया है और क्यो इतना वायरल हो रहा है पूरी कहानी जानें यहां...

बॉडी काउंट आखिर है क्या?

- आज की डिजिटल जनरेशन में एक सवाल अचानक बहुत आम हो गया है 'व्हाट्स योर बॉडी काउंट?' पहली नजर में यह सवाल कैजुअल और मजाकिया लग सकता है, लेकिन इसके पीछे छिपी सोच बेहद गहरी और परेशान करने वाली है। सोशल मीडिया, खासकर टिकटॉक और इंस्टाग्राम रील्स ने बॉडी काउंट को सिर्फ एक शब्द नहीं, बल्कि एक ट्रेंड बना दिया है। पार्टी गेम्स, स्ट्रीट इंटरव्यू और पॉडकास्ट के जरिए यह सवाल युवाओं की पहचान और सेल्फ-वर्थ से जुड़ता जा रहा है। लेकिन क्या वाकई किसी इंसान की कीमत उसके सेक्शुअल पास्ट के नंबर से तय हो सकती है?

- जेन जी स्लैंग में बॉडी काउंट का मतलब है किसी व्यक्ति के अब तक के सेक्शुअल पार्टनर्स का नंबर। यह शब्द असल में युद्ध क्षेत्रों में होने वाली मौतों की गिनती के लिए इस्तेमाल किया जाता था, लेकिन समय के साथ youth culture ने इसके मायने बदल दिए। आज यह शब्द sexual history को बताने के लिए इस्तेमाल हो रहा है। शब्द अपने आप में नुकसानदेह नहीं है, लेकिन जिस तरह से इसका इस्तेमाल हो रहा है, वह चिंता पैदा करने वाला है। सोशल मीडिया पर बॉडी काउंट को एक तरह की अचीवमेंट की तरह पेश किया जाने लगा जितना ज्यादा नंबर, उतनी ज्यादा कूलनेस। भारत में यह ट्रेंड वेस्टर्न ओरिजन से आया, लेकिन शहरी युवाओं में तेजी से फैल गया। डेटिंग ऐप्स, वायरल रील्स और इन्फ्लुएंसर कल्चर ने इसे नॉर्मलाइज कर दिया। नतीजा यह हुआ कि युवा अपने रिश्तों को समझने के बजाय उन्हें गिनने लगे।

जेंडर डबल स्टैंडर्ड: मेल्स के लिए शान, फीमेल्स के लिए शर्म

बॉडी काउंट ट्रेंड का सबसे जहरीला पहलू है इसका जेंडर बायस। अगर कोई लड़का ज्यादा बॉडी काउंट बताता है तो उसे 'एक्सपीरियंस्ड', 'प्लेयर' या 'डिजायरेबल' कहा जाता है। लेकिन वही बात कोई लड़की कह दे तो उसे कैरेक्टरलेस, लूज या मैरेज-अनफिट मान लिया जाता है। यह दोहरा मापदंड सदियों पुराने पैट्रिआर्की से जुड़ा है, जो आज भी नए डिजिटल वर्ल्ड में जिंदा है। अब दिक्कत यह है कि सोशल मीडिया एक तरफ कैजुअल डेटिंग को ग्लैमराइज करता है, दूसरी तरफ महिलाओं को उसी बिहेवियर के लिए शर्मिंदा करता है। यही कॉन्ट्राडिक्शन यंग माइंड्स को कन्फ्यूज्ड और इमोशनली अनसेफ बना रहा है।

मेंटल हेल्थ पर पड़ता असर

बॉडी काउंट की यह ऑब्सेशन सिर्फ सोशल डिबेट नहीं है, बल्कि एक मेंटल हेल्थ क्राइसिस भी है। लगातार कम्पैरिजन कि 'मेरे दोस्त का ज्यादा है', 'मेरा कम है', 'लोग क्या सोचेंगे' युवाओं में एंग्जायटी और डिप्रेशन बढ़ा रहा है। खासकर लड़कियों में लो सेल्फ-एस्टीम, गिल्ट और शेम की भावना गहराती जा रही है। भारत जैसे समाज में, जहां सेक्शुअलिटी पहले से टैबू है, वहां बॉडी काउंट का स्टिग्मा और भी खतरनाक हो जाता है। कई युवा अपनी सेक्शुअल च्वॉइसेज को लेकर खुद से नफरत करने लगते हैं। साइकोलॉजिस्ट्स इसे इंटरनलाइज्ड स्टिग्मा कहते हैं जब समाज का जजमेंट व्यक्ति के अंदर बैठ जाता है। इसका असर सिर्फ दिमाग पर नहीं, व्यवहार पर भी पड़ता है लोग सेक्शुअल हेल्थ चेकअप्स से बचते हैं, पार्टनर्स से खुलकर बात नहीं करते और प्रोटेक्शन को इग्नोर करते हैं।

हेल्थ रिस्क्स: जिस पर कोई बात नहीं करता

सोशल मीडिया पर बॉडी काउंट फ्लेक्स करने वाले बहुत से युवाओं को बेसिक सेक्शुअल हेल्थ की जानकारी तक नहीं होती। टेस्टिंग, STIs, कंसेंट और सेफ सेक्स जैसे मुद्दे डिस्कशन से बाहर रहते हैं। भारत में सेक्शुअली ट्रांसमिटेड इंफेक्शन्स के मामले लगातार बढ़ रहे हैं, लेकिन अवेयरनेस बेहद कम है।

तो असली मायने क्या रखते हैं

एक हाई बॉडी काउंट किसी को बेहतर इंसान या पार्टनर नहीं बनाता। उसी तरह लो बॉडी काउंट कोई प्योरिटी सर्टिफिकेट नहीं है। हर इंसान की जर्नी अलग होती है उसकी वैल्यूज, परिस्थितियां और च्वॉइसेज अलग होती हैं। रिश्तों की क्वालिटी को नंबर्स में नहीं तौला जा सकता। जो सच में मायने रखता है वह है इमोशनल कम्पैटिबिलिटी, ऑनेस्टि, म्यूचुअल रिस्पेक्ट, क्लियर कम्युनिकेशन और इन्फॉर्म्ड कंसेंट। ये चीजें वायरल नहीं होतीं, इसलिए रील्स में नहीं दिखतीं।

कूलनेस की नई परिभाषा जरूरी है

आज जरूरत है बॉडी काउंट की जगह सेल्फ-अवेयरनेस को कूल बनाने की। अपने बाउंड्रीज समझना, पार्टनर से खुलकर बात करना, सेफ सेक्स अपनाना और प्राइवेसी को रिस्पेक्ट करना यही असली मैच्योरिटी है। पैरेंट्स, टीचर्स और कंटेंट क्रिएटर्स को भी शेमिंग के बजाय एजुकेशन पर जोर देना होगा। सेक्शुअलिटी नॉर्मल है, लेकिन उसे परफॉर्मेंस मेट्रिक बनाना खतरनाक है। जब हम इंसानों को नंबर्स में तौलना बंद करेंगे, तभी रिलेशनशिप्स मीनिंगफुल बनेंगी।

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