पटना. 2025 का चुनाव तेजस्वी यादव के लिए एक निर्णायक मौका माना जा रहा था. बेरोजगारी, पलायन और आर्थिक सहायता जैसे मुद्दों को लेकर वह आक्रामक थे. बिहार में बदलाव के नारे के साथ दम खम के साथ चुनाव मैदान में थे. लेकिन जब चुनाव परिणाम आए तो तस्वीर बदली हुई दिखी. साफ जाहिर हुआ कि वह चुनाव प्रचार के दौरान जो सामने से दिखाया रहा था, जनता का मिजाज उसके बिल्कुल उलट था. बिहार चुनाव परिणामों ने एक बार फिर साबित कर दिया कि राजनीति सिर्फ नारों और भीड़ के दम पर नहीं, बल्कि विश्वास, भय, उम्मीद और सामाजिक दबावों के सूक्ष्म संतुलन पर टिकती है. तेजस्वी यादव के ‘बदलाव’ वाले अभियान को युवा ऊर्जा जरूर मिली, लेकिन नतीजों ने दिखा दिया कि यह ऊर्जा पर्याप्त नहीं थी. एनडीए प्रचंड बहुमत की ओर बढ़ता दिख रहा है, जबकि महागठबंधन 60 सीटों के आसपास सिमटता नजर आ रहा है. सवाल यह नहीं कि तेजस्वी ने क्या कहा और जनता ने क्या सुना और क्या माना? जाहिर है इसी फर्क ने नतीजे तय कर दिए.
जानकारों की नजर में कुछ बातें जनता को जोड़ नहीं सकीं, कुछ से जनता डरी-सहमी रही, कुछ ने नेतृत्व को कमजोर किया और बाकी ने महागठबंधन को भीतर से हिला दिया. इस चुनाव में महागठबंधन ने बेरोजगारी, महंगाई और बदलाव जैसे मुद्दों को जोरदार ढंग से उठाया, लेकिन एनडीए ने चुनावी रणनीति को पूरी तरह मनोवैज्ञानिक और सामाजिक समीकरणों पर केंद्रित रखा. एक तरफ तेजस्वी यादव युवा ऊर्जा, नए अवसर और बदलाव की राजनीति का संदेश दे रहे थे, वहीं दूसरी ओर एनडीए ने बिहार के अतीत-विशेषकर 1990-2005 के ‘जंगल राज’ को याद दिलाकर सुरक्षा और स्थिरता को प्राथमिक मुद्दा बना दिया. कुल मिलाकर 11 ऐसे कारण सामने से दिख रहे हैं जिन्होंने तेजस्वी के अभियान को हवा दी, लेकिन वोटों में तब्दील होने से रोक दिया. आइए इस पर एक नजर डालते हैं.
जंगल राज का भय
सबसे पहली और निर्णायक वजह रही-जंगल राज का भय. एनडीए ने लगातार 1990-2005 के बीच के उसी दौर को याद दिलाया जब अपहरण, हत्या और भ्रष्टाचार बिहार की पहचान बन गया था. खासकर महिलाएं इस नैरेटिव से सबसे ज्यादा प्रभावित दिखीं. तेजस्वी जितना बदलाव की बात करते रहे, एनडीए उतना अतीत का डर दिखाता रहा और एनडीए की यह रणनीति काम कर गई.
दावों पर यकीन नहीं
दूसरा फ़ैक्टर था अवास्तविक नौकरी वादे. तेजस्वी यादव ने हर घर को एक नौकरी देने की बात कही, जिसे एनडीए ने ‘असंभव’ बताया. तेजस्वी का यह बड़ा वादा युवाओं में चर्चा तो बना, लेकिन विश्वसनीय नहीं बन पाया. ढाई करोड़ से अधिक सरकारी नौकरी का दावा बिल्कुल ही जनता के मन में विश्वास नहीं जमा पाया.
जातिगत समीकरण विफल
जातिगत समीकरण हमेशा RJD की ताकत रहे हैं, लेकिन इस बार उल्टे पड़ते दिखे. मुस्लिम-यादव (MY) कोर मजबूत रहा-90% यादव महागठबंधन के साथ वोट करते दिखे, लेकिन अन्य जातियां, खासकर ईबीसी और एससी, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार की जोड़ी की ओर मजबूती से बने रहे और यह शिफ्ट निर्णायक था.
कांग्रेस का कमजोर प्रदर्शन
महागठबंधन की कमजोरी को और गहरा किया कांग्रेस के खराब प्रदर्शन ने. पार्टी 61 सीटों पर लड़ी, पर शुरुआती रुझानों में सिर्फ 9 सीटों पर ही लीड दिखी. 2020 में 19 सीटें थीं और इस गिरावट ने महागठबंधन की समग्र लड़ाई कमजोर कर दी.
नीतीश कुमार का बड़ा ब्रांड
नीतीश कुमार का ब्रांड ‘सुशासन बाबू’ इस बार भी काम करता दिख. खासकर महिलाओं को 10,000 रुपये की सहायता ने एनडीए के पक्ष में बड़ा संतुलन बनाया. आंकड़े बताते हैं कि महिलाओं का बड़ा झुकाव नीतीश कुमार की योजनाओं से जुड़ा रहा.
राहुल गांधी का वोट चोरी नैरेटिव
तेजस्वी यादव बेरोजगारी पर लगातार केंद्रित थे, लेकिन राहुल गांधी के ‘वोट चोरी’ नैरेटिव ने उनका फोकस भटका दिया. तेजस्वी यादव भी राहुल गांधी के साथ नजर आए पर ग्राउंड पर यह मुद्दा पकड़ नहीं पाया, बल्कि इससे विपक्ष की ऊर्जा बंट गई.
विपक्षी एकता की कमी
महागठबंधन के अंदर भी एकता की कमी साफ दिखी. सीट बंटवारा विवादित रहा, सहयोगी पार्टियों- खासतौर पर VIP जैसी पार्टियों का प्रदर्शन कमजोर रहा. परिणामस्वरूप महागठबंधन का ग्राउंड मैकेनिज्म लड़खड़ा गया.
प्रशांत किशोर का असर
प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी ने 0-5 सीटें ही सही, लेकिन वोट कटवा असर दिखाया. जन सुराज ने एनडीए को नुकसान तो पहुंचाया, लेकिन सीमांचल जैसे गढ़ में RJD के कोर वोटों में सेंध पड़ी और कई सीटों पर महागठबंधन को नुकसान हुआ.
एनडीए को महिलाओं का साथ
महिलाओं का झुकाव एनडीए की ओर और ज्यादा साफ तब हुआ जब आंकड़ों में दिखा कि अधिकांश महिलाओं ने एनडीए, जबकि सिर्फ महागठबंधन पर महिलाओं का भरोसा कम रहा. योजनाएं, सुरक्षा और स्थिरता जैसे इन तीनों मुद्दों ने इस जनसमूह को एनडीए के करीब रखा.
लालू परिवार पर भ्रष्टाचार का दाग
तेजस्वी यादव और उनके परिवार पर भ्रष्टाचार का दाग इस बार भी एक अहम हथियार रहा.चुनाव के दौरान आईआरसीटीसी घोटाला मामले की सुनवाई हुई और एनडीए ने इसे भ्रष्टाचार की वापसी के रूप में प्रचारित किया और जनता के एक वर्ग ने इसे गंभीरता से लिया.
युवा वोटरों में विश्वास की कमी
युवा मतदाता भी निर्णायक भूमिका में थे. बेरोजगारी बड़ा मुद्दा था, लेकिन तेजस्वी के 2022-24 के डिप्टी सीएम कार्यकाल में कोई ठोस उपलब्धि नहीं दिखी. पलायन की समस्या भी जस की तस रही. इस कारण युवाओं का भरोसा उतना मजबूत नहीं बन पाया.
फेल हुआ तेजस्वी का बदलाव मॉडल
जानकारों की नजर में तेजस्वी यादव का यह चुनावी अभियान जोश से भरा था, लेकिन नतीजे बताते हैं कि जोश और जनादेश दो अलग चीजें हैं. 12 बड़े फैक्टर ने मिलकर वह माहौल बनाया जिसमें महागठबंधन 60 सीटों के आसपास ठहर गया. बिहार ने बदलाव की बात तो सुनी पर भरोसा सुशासन, स्थिरता और सुरक्षा पर दिखाया. तेजस्वी के लिए यह सिर्फ हार नहीं, बल्कि भविष्य की राजनीति का एक कठोर सबक भी है.

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