क्या कभी जिन्ना ने बोला "वंदे मातरम', किन मुस्लिम नेताओं ने भरी इससे हुंकार

2 hours ago

राष्ट्रीय गीत वंदेमातरम के 150 साल हो गए हैं. इसके बाद देशभर में इसे लेकर संसद से लेकर घरों तक एक बहस छिड़ गई है. सत्ता पक्ष इसे लेकर कांग्रेस पर आरोप लगा रहा है कि उसने इस गीत के टुकड़े – टुकड़े करके राष्ट्रीय अस्मिता के साथ खिलवाड़ किया है. सत्ता पक्ष का ये भी कहना है कि जिन्ना के दबाव में कांग्रेस ने वंदे मातरम के साथ ये सलूक किया. हम ये जानेंगे कि जिन्ना का वाकई वंदे मातरम पर क्या रुख था. ये भी जानेंगे कि किस मुस्लिम नेताओं ने समय समय पर वंदेमातरम नारे के साथ आजादी की लड़ाई में हुंकार भरी थी.

वैसे तथ्य ये भी है कि जिस वंदे मातरम के 150वीं जयंती देश अभी मना रहा है, उसके दो छंद ही तब तक इसके रचयिता बंकिम चंद्र चटर्जी द्वारा लिखे गए थे. ये दो छंद उन्होंने 1875 में लिखा. तब इसे ही उन्होंने संपूर्ण मान लिया. इसके कुछ साल बाद उन्होंने जब आनंठ मठ लिखने का फैसला किया तो उपन्यास के कथानक के अनुसार इसमें छह छंद और जोड़े. इन छह छंदों पर विवाद लबे समय से चला आ रहा है, क्योंकि इसमें हिंदू देवी दुर्गा को प्रतीक मानते हुए राष्ट्र की वंदना की गई.

जिन्ना ने क्यों विरोध किया

अब आइए जानते हैं कि क्या कभी मुहम्मद अली जिन्ना ने कभी वंदे मातरम बोला था या वंदे मातरम का नारा लगाया था. भारत की आज़ादी से पहले जब राष्ट्रीय गान या गीत का मुद्दा उठा, तो मुस्लिम लीग के नेतृत्व में कुछ मुस्लिम नेताओं ने “वंदे मातरम” को राष्ट्रीय गान बनाए जाने का विरोध किया.

उनका तर्क था कि इस गीत में हिंदू देवी दुर्गा की छवि और पूजा की गई है, जो इस्लाम की मूर्ति पूजा के खिलाफ है और मुस्लिम धर्म की शिक्षाओं के अनुरूप नहीं है. जिन्ना ने भी इसी आधार पर इस गीत का विरोध किया था.

जिन्ना का स्पष्ट रुख था कि “वंदे मातरम” एक “सांप्रदायिक गीत” है. इसे भारत के राष्ट्रीय गान के रूप में नहीं अपनाया जाना चाहिए. उन्होंने इसे एक धार्मिक प्रतीक के रूप में देखा. क्या जिन्ना ने कभी यह नारा लगाया? इस बारे में कोई प्रमाणिक ऐतिहासिक रिकॉर्ड उपलब्ध नहीं है. उनकी सार्वजनिक छवि और राजनीतिक विचारधारा इसके विपरीत थी. हालांकि स्वतंत्रता आंदोलन के शुरुआती दिनों में जब वह अखिल भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में थे और एक अखंड भारत के पक्षधर थे, तब भी उन्होंने कभी इसका नारा नहीं लगाया.

समर्थन का कोई रिकॉर्ड नहीं 

जब जिन्ना कांग्रेस में थे, तब उन्हें “हिन्दू-मुस्लिम एकता का राजदूत” कहा जाता था. वह लोकमान्य तिलक के मुक़दमे का बचाव करते हैं. गांधी की कई पहलों का समर्थन करते हैं. कांग्रेस–मुस्लिम लीग समझौते लखनऊ पैक्ट,1912 में मुख्य भूमिका निभाते हैं लेकिन कहीं भी उनके “वंदे मातरम्” बोलने, गाने या समर्थन करने का रिकॉर्ड नहीं मिलता.

क्या कहा था जिन्ना इस गीत को लेकर 

1920 के दशक से जिन्ना ने साफ़ कहा, “वंदे मातरम् मुसलमानों के धार्मिक विश्वासों से मेल नहीं खाता,” इसलिए वो इसे राष्ट्रगीत के रूप में स्वीकार नहीं कर सकते. 1930 और 1940 के दशक में, जब कांग्रेस सत्रों में “वंदे मातरम्” गाया जाता था, तब मुस्लिम लीग के नेता और प्रतिनिधि अक्सर बैठे रहते थे या बाहर चले जाते थे. जिन्ना का तर्क था कि गीत के पहले दो पद स्वीकार्य हैं, लेकिन पूरे गीत में देवी-दर्शन और पूजा के तत्व हैं, जो इसे मुस्लिम लीग के लिए अस्वीकार्य बनाते हैं.

कभी-कभी सोशल मीडिया में ये दावे होते हैं कि जिन्ना ने सुरेंद्र नाथ बनर्जी की सभा में और कांग्रेस के शुरुआती अधिवेशनों में वंदे मातरम् बोला था लेकिन इन दावों का कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है.

कांग्रेस के मुस्लिम नेताओं का क्या था रुख

अब आइए बात करते हैं आजादी की लड़ाई कांग्रेस में मौजूद मुस्लिम नेताओं का इस पर क्या रुख हुआ करता था. 1923 और 1940 में कांग्रेस के अध्यक्ष मौलाना अबुल कलाम अपने भाषणों में “वंदे मातरम्” के नारे का समर्थन करते थे. 1920 से 40 के बीच कई कांग्रेस अधिवेशनों में उनके मंच पर रहते हुए वंदे मातरम् गाया जाता था. उन्होंने कभी इसका विरोध नहीं किया, बल्कि इसे आज़ादी की भावना का प्रतीक माना.

खान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान खुद ‘वंदे मातरम्’ बोलते थे. उनके लिए कांग्रेस मंचों पर इसका उच्चारण सामान्य था. उनकी खुदाई खिदमतगार की रैलियों में भी लोग इसे बोलते थे. उन्होंने कहा था, “भारत की मुक्ति के लिए जो भी प्रेरणा दे, वह हमारी है.”

खिलाफ़त आंदोलन और कांग्रेस के बड़े नेता हकीम अजमल ख़ान की दिल्ली में 1919 से 1922 के बीच सभाओं में वंदे मातरम् का नारा लगाया जाता था. उन्होंने कभी इसका विरोध नहीं किया. कई जगह दस्तावेजों में दर्ज है कि वे मंच पर बैठते समय ‘वंदे मातरम्’ के नारे पर सम्मान से खड़े होते थे.

जवाहरलाल नेहरू के निकट सहयोगी रफी अहमद किदवई यूपी में कांग्रेस की सभाओं में खुद “वंदे मातरम्” का नारा लगाते थे. उनकी जीवनी में इसका उल्लेख है कि वे इसे राष्ट्रीय पुकार मानते थे. वकील, स्वतंत्रता सेनानी और बाद में भारत के पहले राजदूतों में से एक आसफ अली ने 1930 – 40 के कांग्रेस कार्यक्रमों में वंदे मातरम् का जयघोष किया. दिल्ली में 1930 के नमक सत्याग्रह अभियानों की सभाओं में ये बात स्पष्ट रूप से दर्ज है.

गांधी के सबसे बुज़ुर्ग स्वयंसेवी नेता अब्बास तैयबजी कांग्रेस अधिवेशनों में वंदे मातरम् के साथ शुरुआत करवाते थे. 1920 – 30 की रिपोर्ट्स में इसका उल्लेख मिलता है.

1857 के विद्रोह में इलाहाबाद (प्रयागराज) में नेतृत्व करने वाले प्रमुख मुस्लिम क्रांतिकारी मौलवी लियाकत अली द्वारा “हर हर महादेव – वंदे मातरम्” जैसे नारे लगाए जाने के उल्लेख मिलते हैं.

रिकार्ड्स में ये भी कहा गया कि 1905 से 1940 कांग्रेस के मुस्लिम डेलीगेट्स सैकड़ों की संख्या में उसके वार्षिक अधिवेशनों में मौजूद रहते थे. अधिवेशन की शुरुआत वंदे मातरम् से होने पर वे सामूहिक रूप से इसे दोहराते या सम्मान में खड़े होते थे.

सोर्स
1. Vande Mataram: The Biography of a Song – Sabyasachi Bhattacharya
2. ऐतिहासिक शोध और इस बारे में लिखे गए लेख

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